भारत का हृदय प्रांत छत्तीसगढ़ एक उत्सव प्रिय राज्य होने के साथ ही लोककलाओं का कुबेर भी है।इसके अधिकांश हिस्से में ग्रामीण आदिवासी निवास करते हैं।लगभग वर्ष भर यहां विविध पर्वों और उत्सवों का आयोजन होता रहता है। प्राचीन काल से ऐसे उत्सवों पर उल्लास की अभिव्यक्ति छत्तीसगढ़ के कलाकार नाचा और गम्मत के माध्यम से करते आ रहे हैं। यह भारतीय लोक रंगमंच की एक मूल्यवान सांस्कृतिक धरोहर है। मेरे विचार से हम इसे विश्व धरोहर भी कह सकते हैं।
कहाँ से हुआ उदभव ?
छत्तीसगढ़ की लोक संस्कृति का अभिन्न अंग नाचा -गम्मत का उदभव मराठा सैनिकों के मनोरंजन साधन “खड़े साज गम्मत” को माना जाता है। इस विधा में पुरुष कलाकार ही स्त्री पात्र की भूमिका निभाते हैं, जिन्हें “नाच्या” कहा जाता है। नाच्या से ही नाचा शब्द की उत्पत्ति हुई है। महाराष्ट्र का तमाशा, गुजरात का गरबा, असम का बिहू, हरियाणा का सांग, पंजाब के भांगड़ा की भांति छत्तीसगढ़ की संस्कृति का प्रतिनिधित्व नाचा-गम्मत ही करते हैं।
एक सम्पूर्ण नाट्य विधा
नाचा गम्मत एक सम्पूर्ण नाट्य विधा है,जिसमें गायन- वादन -नृत्य के साथ-साथ हास्य- व्यंग की मोहक प्रस्तुति की जाती है। किसी पर्व मौसम विशेष में नहीं बल्कि बारहों महीना जनमनोरंजनार्थ इसे किया जाता है।अत्यधिक पुरातन इस विधा के माध्यम से सामाजिक, आर्थिक भेदभाव, आडम्बरों, विद्रूपताओं, ग्राम जीवन में शहरी मानसिकता की घुसपैठ को नाचा कलाकारों द्वारा सीमित साधनों में रोचकता से प्रस्तुत किया जाता है। सुदूर अंचलों में जनहितैषी शासकीय योजनाओं -संदेशों के प्रचार प्रसार हेतु आज भी नाचा गम्मत सर्वश्रेष्ठ कारगर माध्यम है।
पहले मशाल की रौशनी में होता था मंचन
नाचा का इतिहास बताता है कि जब बिजली नहीं थी, तब भभका (मशाल) पकड़े हुए कलाकार उसकी रौशनी में ही नाचा करते थे, फिर गैस बत्ती (पेट्रोमेक्स)और फिर धीरे-धीरे आधुनिकता के दौर में विविध रंग बिरंगी लाइट ने नाचा मंच में स्थान बना लिया है। ऐसे परिवर्तन के बावजूद आज भी ग्रामीण अंचल में नाचा गम्मत आयोजन स्थल पर बैठने हेतु लोग अपने अपने घरों से दरी, बोरा, चादर लेकर आते हैं और खुले आकाश तले बैठकर आंनद सागर में डूबे हुए पूरी रात गुजार देते हैं।
नाचा -गम्मत के पितामह दाऊ मंदराजी
रवेली नाचा पार्टी को छत्तीसगढ़ का प्रथम नाच पार्टी तथा दाऊ दुलार सिंह साव ‘मंदराजी’ को नाचा के पितामह होने का गौरव प्राप्त है। नाचा में हारमोनियम बजाने की पहल दाऊ जी ने ही की थी। वर्ष 1940 के दौर की बात है रायपुर में मंदराजी दाऊ का नाचा देखने अटूट भीड़ जुटती थी। तब बाबूलाल टाकीज में दर्शकों का टोटा पड़ जाता था और रात का शो बंद करने की नौबत आ जाती थी।
चंदैनी गोंदा और सोनहा बिहान
करीब सैंतालीस वर्ष पूर्व मुझे दाऊ रामचंद्र देशमुख की संस्था ‘चंदैनी गोंदा, ‘लोकनाट्य ‘कारी’ और दाऊ महासिंग चंद्राकर की संस्था ‘ सोनहा बिहान’ लोरिक चंदा में विभिन्न भूमिकाओं का निर्वहन करने का सुअवसर मिला। तब मैंने जाना कि छत्तीसगढ़ में नाचा को ग्रामीण अंचल की भांति शहरों में भी प्रतिष्ठित कराने में इनका योगदान अभूतपूर्व रहा है। नाचा की दशा दिशा को बेहतर बनाने हेतु वर्ष 1951 में देशमुख दाऊ ने पहली बार ग्राम पिनकापार में नाचा कार्यशाला का आयोजन किया था। देवार कलाकारों के उत्थान हेतु इनका उत्कृष्ट योगदान रहा है।
नाचा के चार स्वरूप
नाचा के चार स्वरूपों यथा- खड़े साज नाचा, गंड़वा नाचा, देवार नाचा और बैठकी साज नाचा की चर्चा बुजुर्ग करते हैं। खड़े साज में शुरूआती दिनों में वादकगण चिंकारा, मंजीरा ही बजाते थे। बाद में तबला, हारमोनियम, ढोलक, बांसुरी, बेंजो, क्लारनेट का समावेश हुआ। इसमें रात रात भर वादक अपने वाद्ययंत्र को कमर में बांधे खड़े खड़े ही बजाते थे। गंड़वा नाचा में गंड़वा समुदाय के कलाकार पारम्परिक वाद्य दमउ, दफड़ा, गुदुम, टिमकी मोहरी का उपयोग करते हैं। देवार नाचा को छत्तीसगढ़ की घुमक्कड़ जाति के देवार कलाकार प्रस्तुत करते हैं। आर्थिक दृष्टि से बेहद गरीब देवार कलाकार नृत्य गीत वादन कला में अत्यंत निपुण होते हैं। रूंझू इनका खास वाद्य होता है। नाचा का परिष्कृत स्वरूप बैठकी साज नाचा है। वर्तमान में प्रचलित इस नाचा शैली में सर्वसुविधायुक्त मंच, आधुनिक वाद्ययंत्र तथा कलाकारों के वस्त्र विन्यास भी फैशनेबल हो चले हैं।
पुरुष निभाते हैं स्त्री-पात्रों की भूमिका
नाचा की मजेदार बात यह होती है कि देवार नाचा को छोड़कर अन्य नाचा मंच पर पुरुष कलाकार ही स्त्री पात्र की भूमिका निभाते हैं। ऐसे कलाकारों को परी और नजरिया कहते हैं। सुहागन जैसे सजे नज़रिया अपने सिर पर कांस धातु निर्मित लोटे को रखते हैं। शानदार संतुलन बनाए हुए चक्करदार नृत्य करते समय भी लोटा इनके सिर से गिरता नहीं है। परी-नजरिया अपनी चंचलता, लचक और नृत्य की मोहक अदा से कुशल नृत्यांगनाओं को भी मात देते हैं। इनके प्रति दर्शकों की दीवानगी ऐसी होती है कि वे हजारों रुपए इन पर न्योछावर कर देते हैं। परी और नजरिया के अलावा नाचा का तीसरा प्रमुख पात्र जोक्कड़ (विदूषक)होता है। जोक्कड़ सिर पर टोपी, हाथ में टेढ़े-मेढ़े बांस की डन्डी और एक हाथ लम्बा रबर ट्युब का टूकड़ा रखते हैं। जिससे बात बात पर अपने साथी जोक्कड़ को तबला ढोलक की थाप पर मारते हुए ज्ञान की बात बताते हैं। वे शायरी, दोहा, पहेली लच्छेदार बातों और अपने अजीबोगरीब अंग संचालन से दर्शकों को हंसा हंसाकर लोटपोट करने में चार्ली चैपलिन की तरह माहिर होते हैं।
कोई लिखित स्क्रिप्ट नहीं
चौंकाने वाली बात यह भी होती है कि नाचा के अधिकांश कलाकार अनपढ़,अप्रशिक्षित होते हैं। वे लिखी हुई स्क्रीप्ट के बजाय किसी कहानी नाटक को सुनकर मनगढ़ंत संवाद बोलते हैं। स्वनिर्मित वेशभूषा,अंगराग पहनते हैं और सहज उपलब्ध वस्तुएं यथा कोयला, पीली मिट्टी, सफेद छुई, मुरदालशंख आदि से रूप सज्जा कर लेते हैं। यद्यपि आजकल आधुनिक श्रृंगार सामग्रियों का उपयोग नाचा के कलाकार करने लगे हैं, पर मजा पुराने स्वरूप में ही है।
उल्लेखनीय है कि छत्तीसगढ़ के मूल नाचा कलाकारों को लेकर पदम् भूषण हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ी लोकनाट्य कथाओं के अलावा अंग्रेजी नाटककार ब्रेख्त तथा शेक्सपियर लिखित नाटकों का मंचन भी किया था। उन्हें अंतर्राष्ट्रीय रंग जगत में अपार सराहना मिली थी।
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