दक्षिण बस्तर (दंतेवाड़ा जिला) के बारसूर को बिखरी हुई विरासतों का नगर कहना ही उचित होगा। एक दौर में एक सौ सैंतालिस तालाब और इतने ही मंदिरों वाला नगर बारसूर आज बस्तर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में गिना जाता है। कोई इस नगरी को दैत्य वाणासुर की नगरी कहता है तो कोई अतीत का बालसूर्य नगर।
यदि इस नगर के निकटस्थ केवल देवी प्रतिमाओं की ही बात की जाये तो बारसूर के देवरली मंदिर में अष्टभुजी दुर्गा, लक्ष्मी, भैरवी, वाराही आदि, दंतेवाड़ा में महिषासुरमर्दिनी की अनेक प्रतिमायें, भैरमगढ में चतुर्भुजी पार्वती की प्रतिमा, समलूर में गौरी की प्रतिमा तथा स्थान-स्थान पर सप्तमातृकाओं की प्रतिमा आदि प्राप्त हुई हैं जो यह बताती हैं कि बस्तर भी नागों के शासन समय में देवीपूजा का महत्वपूर्ण स्थल रहा है।
नलों-नागों के पश्चात बहुत कम प्रतिमायें अथवा मंदिर काकतीय/चालुक्य शासकों द्वारा निर्मित किये गये अंत: देवीस्थान के रूप में माँ दंतेश्वरी के अतिरिक्त मावली माता के अनेक मंदिर तो महत्व के हैं ही उनके कालखण्ड की अनेक अन्य भूली बिसरी पुरातात्विक सम्पदायें भी हैं, इनमें से एक है पेदाम्मागुडी।
बारसूर पहुँच कर युगल गणेश प्रतिमा, सोलह खम्भा बंदिर, चन्द्रादित्य मंदिर आदि तक आसानी से पहुँचा जा सकता है चूंकि ये मंदिर तथा प्रतिमायें पर्यटकों के मुख्य आकर्षण का केन्द्र बन गयी हैं। मुझे पेदम्मागुडी को खोजने में कठिनाईयाँ हुई क्योंकि यह मंदिर अल्पज्ञात है तथा बारसूर के पर्यटन नक्शे पर प्रमुखता से नहीं दर्शाया गया है। सडकों से अलग हट कर तथा बहुत सी झाडियों के लडते झगडते हुए ही इस प्राचीन देवी स्थान तक पहुँचा का सकता है।
अन्नमदेव ने नाग शासकों का वर्ष 1324 में जब निर्णायक रूप से पतन कर दिया तब बारसूर नगरी का वैभव भी धीरे धीरे अतीत की धूल में समा गया। अन्नमदेव के दौर की निशानी माना जाता है यहाँ अवस्थित पेदम्मागुड़ी मंदिर को। इस मंदिर को ले कर दो मान्यतायें हैं पहली यह कि इस मंदिर का अंशत: निर्माण बस्तर में चालुक्य वंश के संस्थापक अन्नमदेव ने करवाया जहाँ उन्होंने अपनी कुलदेवी की प्रथमत: स्थापना की और बाद में उन्हें दंतेवाड़ा ले गये।
इससे इतर लाला जगदलपुरी अपनी पुस्तक “बस्तर – लोक कला संस्कृति प्रसंग” में पेदम्मागुड़ी के विषय में लिखते हैं “बारसूर की प्राचीन दंतेश्वरी गुड़ी को नागों के समय में पेदाम्मागुड़ी कहते थे। तेलुगु में बड़ी माँ को पेदाम्मा कहा जाता है। तेलुगु भाषा नागवंशी नरेशों की मातृ भाषा थी। वे दक्षिण भारतीय थे।
बारसूर की पेदाम्मागुड़ी से अन्नमदेव ने पेदाम्माजी को दंतेवाड़ा ले जा कर मंदिर में स्थापित कर दिया। तारलागुड़ा में जब देवी दंतावला अपने मंदिर में स्थापित हो गयी, तब तारलागुड़ा का नाम बदल कर दंतावाड़ा हो गया। लोग उसे दंतेवाड़ा कहने लगे।” वस्तुत: बस्तर के इतिहास को ले कर खोज इतनी आधी अधूरी है कि किसी भी निर्णय पर पहुँचना जल्दीबाजी होगी।
प्रमुख बात यह है कि यह प्राचीन मंदिर अपने अलगे हिस्से में तो पूरी तरह ध्वस्त हो गया है किंतु पेदाम्मागुड़ी का पिछला हिस्सा आज भी सुरक्षित है तथा उसकी भव्य बनावट देखने वाले को मंत्रमुग्ध कर देती है। आंचलिकता तो धरोहरों का सम्मान करती ही है और अपने तरीके से उसे संरक्षण भी प्रदान करती है, यही कारण है कि आज भी पेद्दाम्मागुडी में वार्षिक जात्रा के अवसर पर बलि दी जाती है।
जन-मान्यता के अनुसार पेद्दाम्मागुडी मंदिर में नि:संतान दम्पत्ति भी अपनी मन्नत माँगने आते हैं। लाला जगदलपुरी सहित अन्य इतिहासकार जिस तरह दंतेश्वरी मंदिर और पेदाम्मागुडी का सम्बन्ध स्थापित करते हैं इससे संरक्षण की दृष्टि से भी आवश्यक हो गया है कि पुरातत्व विभाग इसे बचाने की पहल में आगे आये।
यहाँ योजनाबद्ध रूप से इतिहास को खोजने और उसे सहेजने की आवश्यकता है। पहल तो इस बात पर होनी चाहिये कि जो भग्न मंदिर अथवा इमारतें हैं उन्हें सही तरह से सहेज लिया जाये। जिस तेजी से बारसूर में आबादी फैलती जा रही है, आने वाले समय में चाह कर भी पुरातत्व विभाग यहाँ उत्खनन सम्बन्धी कार्य नहीं कर सकेगा।
आलेख – छायाचित्र ललित शर्मा