वर्तमान बस्तर को पहले चक्रकाट, महाकान्तार, महावन, दण्डकारण्य, आटविक राज्य आदि नाम से संम्बोधित किया जाता था। अचल में प्रचलित एक किंवदन्ती के अनुसार वारंगल के राजा प्रताप रुद्रदेव का भाई अन्नमदेव राज्य स्थापना की नीयत से यहां आया तो बाँस तरी में (बाँस झुरमुट के नीचे) अपना पहला पड़ाव डाला।
चूंकि उनका प्रथम प्रवास बाँसतरी में व्यतीत हुआ था जिसकी याद में इस भू भाग को बाँस तरी कहा जाने लगा। कालान्तर में यही बाँसतरी बस्तर के नाम से प्रचलित हो गया। उक्त किवदन्ती से जाहिर है कि बस्तर में पूर्व से ही बाँस वृक्षों की बहुलता थी। आज भी बस्तर के सभी जिलों में बाँस के जंगल हैं।
यहां घर के आस-पास (बाड़ी) में भी बाँस के पौधे लगाये जाते हैं। बस्तर में बाँस को बाँवस कहा जाता है यहां के लोक जीवन में बाँस का महत्वपूर्ण स्थान है। यहां सुबह शाम दोना पहर दोना पत्तल में ही भोजन करने की परम्परा है और दोना पत्तल बनाने के लिए सींक की आवश्यकता होती है। ये सींक बाँस को चीर कर बनाया जाता है।
बाँस की उपरी खपच्ची ब्लेड जैसे धारदार होती है बुजुर्गों द्वारा बताया जाता है कि पहले इसी धारदार खपच्ची से नवजात शिशु का नाल काटा जाता था। विवाह संस्कार में मण्डपाच्छादन प्रारंभिक रस्म होता है और मण्डपाच्छादन में सबसे पहले बाँस पूजा की परंपरा है। भावी दम्पत्ति के वंश वृद्धि की कामना से पांच पंच मिल कर बाँस की पूजा करते है।
लोक मान्यता है कि विवाह पूर्व बाँस पूजन करने से दम्पत्ति को वांछित संतान की प्राप्ति होती है। अर्थात लोक आस्था में बाँस को वंश वृद्धि का द्योतक माना गया है। विवाह की सभी रस्मों में बाँस से बने पर्रा-विजना का अलग ही महत्व है। मृत्यु के पश्चात बाँस की बनाई काठी में श्मसान तक आदमी की अंतिम यात्रा होती है। अतः लोक जीवन में जन्म से ले कर मृत्यु तक बाँस काम आता हैं।
बस्तर का जनजातीय समुदाय शिकारी प्रवृति का होता है विभिन्न वन्य प्राणियों, पक्षियों और मछलियों का शिकार उनका शोक भी है और दैनिक जीवन का एक अंग भी है। मछलियों एवं पक्षियों के शिकार के लिए बाँस से ही विभिन्न प्रकार के फंदों निर्माण किया जाता है। मछली थापने के लिए थापा, चोरिया, झारा, चिड़ियों को फ़ँसाने के लिए चीक फांदा, आदि विभिन्न प्रकार के फ़ंदे बाँस से बनाये जाते हैं। मछली रखने के लिए पात्र जिसे दुटी कहा जाता है बाँस से ही बनाये जाते हैं।
सूपा, टोकरी, झउंहा, चंगोरा, झिझरी, गपा, पिसवा, मोरा, खुमरी, झाडू, बैठने व सोने के लिए चटाई आदि दैनिक जीवन में उपयोग के लिए अनेक वस्तुएं बाँस से ही बनाये जाते हैं। बैलगाड़ी में उपयोग किया जाने वाला ओंगन तेल भी बाँस की ठोंढ़ी में रखा जाता है। दूरस्थ ग्रामीण अंचल के लोग महत्वपूर्ण कागजात या नोट ( मुद्रा ) को सुरक्षित रखने के लिए बाँस की ठोढी को सबसे उपयुक्त मानते हैं। निवास के लिए गृह निर्माण में बाँस की अनिवार्यता तो होती ही है।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति से लुप्त हो रही बाँस गीत में बजाया जाने वाला वाद्ययंत्र और कर्णप्रिय धुन सुनाने वाली बाँसुरी मी बाँस से ही बनाये जाते हैं । बाँस के नये और मुलायम कोपलों को करील कहते हैं बस्तर में इसे बाँसता कहा जाता है। बाँसता की सब्जी बस्तर में चाव से खायी जाती हैं।
बस्तर के लोग वेसे तो दैनिक जीवन की कुछ सामग्री स्वयं ही निर्माण कर लेते हैं किन्तु कँडरा एव नाहर ( पारधी ) जाति का यह पैतृक व्यवसाय है। बाँस कला इन जातियों के लिए आजिविका का साधन एवं मुख्य वित्तीय स्त्रोत भी है। ये दैनिक आवश्यकता की सामग्री तैयार कर साप्ताहिक हाट बाजार में बेचते हैं और अपनी दैनिक आवश्यकता की सामग्री खरीद कर आजीविका चलाते हैं।
इनके कार्य में भी अब आधुनिकता का प्रभाव दिखने लगा है अब सोफा सेट कुर्सी, पलंग, खिलौना आदि विभिन्न कार के कलात्मक वस्तुओं का निर्माण कर अपनी आय में वृद्धि कर रहे हैं। एक खबर यह भी है कि स्व सहायता समूह की महिलायें अब बाँस से राखी और गहने बनाने की तैयारी कर रही हैं।
संभव है इस साल रक्षा बंधन के अवसर पर भाईयों की कलाई में कलात्मक राखी और बहनों के अंग में आकर्षक गहने भी सुशोभित हों। बस्तर मे शिल्पकारों और कलाकारों की कमी नहीं है। आवश्यकता है इन्हें साधन सुविधा मुहैया कर प्रोत्साहित करने की। पिला राम और सनउ पारधी ने बताया कि पहले वन काष्ठागार से रियायती दर पर बाँस उपलब्ध कराया जाता था।
अब सौ से डेढ सौ रूपये में एक बाँस खरीदना पड़ता है और उससे सामग्री तैयार कर बेचने में पर्याप्त जाय नहीं हो पाती। इसलिए बँसोड़ बाँस कला से विमुख होकर किसानों की मजदूरी करना ज्यादा पसंद करते हैं। बस्तर का घडवा कला, ( धातु शिल्प ) लौह शिल्प, मृदा शिल्प काष्ट शिल्प को भाति बाँस शिल्प भी प्रसिद्ध है।
महंगा कच्चा माल और प्रोत्साहन के अभाव में धीरे-धीरे बँसोड़ों का यह पैतृक व्यवसाय विलुप्ति के कगार पर पहुंच जायेगा। यहां की विभिन्न शिल्प विधाओं को शासन प्रशासन द्वारा प्रात्साहित किया जा रहा है। इन विधाओं के अनेक शिल्पकारों को राज्य स्तर एवं राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित भी किया जा चुका है।
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