बलराम अथवा संकर्षण कृष्ण के अग्रज थे और कृष्ण के साथ – साथ इनका भी चरित्र विभिन्न पुराणों और अन्य ग्रन्थों में विस्तार पूर्वक वर्णित है। वासुदेव कृष्ण के साथ वृष्णि कुल के पंचवीरों में संकर्षण बलराम को भी सम्मिलित किया गया है। विष्णु के दशावतारों में सम्मिलित देवता बलराम वस्तुतः कृषि देवता के रूप में पूजित होते हैं, क्योंकि हल तथा मूसल उनके प्रमुख आयुध हैं और उनका सर्पाकार नागफण खेतों में खड़े फसल एवं संग्रहित उपज को नष्ट करने वाले चूहों के लिये कालस्वरूप है।
एक उल्लेख के अनुसार देवकी के सातवें गर्भ में जब बलराम आये उस समय कृष्ण ने योग माया को आदेश देकर वह गर्भ खीचकर रोहिणी के गर्भ में स्थापित करा दिया। खीचे जाने के कारण उनका नाम संकर्षण पड़ा। आयुधों के आधार पर बलराम के अनेक नामों में हलधर तथा हलायुध नाम भी सम्मिलित है।
बलराम प्रतिमा के शिल्प शास्त्रीय लक्षणों और साहित्यिक विवरणों के अनुक्रम में हल और चशक एवं सिरोभाग पर नागफण का संबंध-उनके कृषक स्वभाव, परिश्रम, ज्ञान तथा फसल के लिए घातक चूहों के विनाश से संबंधित प्राकृतिक चक्र का घोतक है। संकषर्ण का सबसे पहले उल्लेख अर्थशास्त्र में हुआ है।
पुराणों में संकर्षण एक भारी मधप देवता के रूप में चित्रित है। मूर्तिकला में बलराम को जैन तीर्थांकर नेमिनाथ की प्रतिमाओं में भी कृष्ण के साथ अंकित किया गया है। बृहत्संहिता में मदोन्मत नेत्रों वाले हलधर बलराम की प्रतिमा का उल्लेख हुआ है। विष्णुधर्मेत्तर पुराण में भी क्षीव अथवा मदोन्मत्त नेत्र वाले हल तथा मूसल युक्त दिखाने का निर्देश है।
अग्नि पुराण में बलराम की चतुर्भुजी प्रतिमा का उल्लेख हुआ है। उनके हाथों में गदा एवं पद्म के साथ हल और मूसल प्रदर्शित करने का विधान है। प्रतिमा कोष में भी संकर्षण की प्रतिमा का उल्लेख हुआ है। मूर्तियों में सामान्यतः चषक (मदिरा पात्र) हल और मूषल तथा कृषि कार्य की समाप्ति के बाद प्रसन्नता एवं समृद्धि के फलस्वरूप चषक बलराम के साथ दिखाया गया है।
भारतीय कला में बलराम अथवा संकर्षण की प्रतिमा शूंग काल में बनना प्रारंभ हो गई थी। प्रारंभ में बलराम की द्विभुजी एकाकी प्रतिमाएं निर्मित होती थी। गुप्त काल तथा मध्यकाल के प्रतिमाओं में बलराम के साथ रेवती का अंकन भी मिलने लगता है साथ ही बलराम की चतुर्भुजी प्रतिमाएं प्राप्त होने लगती हैं।
दशावतार में सम्मिलित होने के फलस्वरूप बलराम की स्वतंत्र प्रतिमाएं मूर्तिकला में सीमित संख्या में मिलती है। छत्तीसगढ़ के स्थापत्य कला में भी बलराम की प्रतिमाएं दृष्टव्य होती हैं। सोमवंशी कला शैली के वराह प्रतिमा के अधिष्ठान में निर्मित सर्पफण युक्त मानवाकार अनंत शेष आयुध के रूप में हल पकड़े दृष्टव्य हैं।
मल्हार संग्रहालय से बलराम और कृष्ण की दूसरी शती ईसवी की स्वतंत्र मूर्तियां मिली है। द्विभुजी बलराम के इस प्रतिमा में इनका दाहिना हाथ ऊपर की तरफ उठा तथा खण्डित है। बांया हाथ पैर पर रखे है। सिर के उपर नागछत्र की छाया एवं मुकुट है। कानों में कुण्डल, हाथ में कंकण, पैरों में पाद वलय के साथ प्रदिर्शित है।
पचराही (जिला – कबीरधाम) उत्खनन से प्राप्त एक खंडित प्रतिमा के उध्र्व भाग में क्रमशः दायें ओर हल पकड़े बलिराम तथा बायें ओर चक्र तथा शंख पकड़े चतुर्भुजी बलराम-विष्णु की युग्म प्रतिमा अपने वर्ग की विलक्षण तथा दुर्लभ प्रतिमा है। स्वतंत्र रूप से निर्मित ललितासन में स्थित द्विभुजी बलराम (शेष) प्रतिमाओं के हाथों में आयंध का अभाव होता है तथा हस्त मुद्रा निरूपित नहीं रहती है।
ऐसी प्रतिमाओं से पौराणिक कथा के अनुसार धरा-धाम से बलराम के प्रयाग (शेषावतार रूप के लीला संवरण) की स्थिति ज्ञात होती हैं। इस तरह की प्रतिमाएं लक्ष्मण मंदिर सिरपुर, आरंग स्थित पंचमुखी महादेव परिसर में रखी एक खंडित प्रतिमा तथा गिधपुरी स्थित डोंगरदई में भी दिखाई देती है।
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले के महेशपुर नामक पुरास्थल से बलराम की एक स्वतंत्र प्रतिमा प्राप्त हुई है। अर्ध ललितासन में स्थित यह प्रतिमा द्विभुजी है, उनके दायें हाथ में स्थित आयुध एवं वक्ष के सम्मुख स्थित बायां हाथ भग्न है। शिरोभाग का फण, मुख तथा वक्ष क्षरित है।
बलराम नीचे रखे हुए लम्बवत् हल पर अर्ध ललितासन में बैठे हैं। प्रतिमा के दायें ओर हल का हत्था तथा बायें आरे धरातल पर डांड़ी स्पष्ट रूप से दृष्टव्य है। कला शैली के आधार पर यह प्रतिमा कलचुरि कालीन बारहवीं सदी ईसवी में निर्मित प्रतीत होती है। शिल्प संहिता, क्षेत्रीय परंपरा तथा मौलिक कल्पना पर आधारित हलासीन (हल पर विराजित) बलराम की यह प्रतिमा छत्तीसगढ़ अंचल तथा हमारे देश की कृषि परंपरा तथा कृषक के महत्व को प्रतिपादित करती दुर्लभ कलाकृति है।
चूंकि छत्तीसगढ़ वनवासी बहुल क्षेत्र है, साथ ही प्राचीन काल से अनेक स्थानीय राजवंशों के समृद्ध और गौरवशाली इतिहास होने के कारण यहां के शासकों ने भी अपने आराध्य देव बलराम को कला में स्थान दिया। कृषि छत्तीसगढ़ का मुख्य व्यवसाय है साथ ही धान उत्पादक राज्य होने के कारण इसे धान का कटोरा भी कहा जाता है। वर्तमान समय में भी छत्तीसगढ़ के अनेक त्यौहारों में कृषि शस्त्रों के पूजा का विधान है।
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