बस्तर और सरगुजा के बीहड़ वन प्रांतरों से आच्छदित छत्तीसगढ़ का पश्चिमी भाग भी वनों से आच्छादित है, जो मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र प्रदेशों से लगा हुआ है। राजनांदगाँव जिला छत्तीसगढ़ का पश्चिमी भाग है। इसी राजनांदगाँव जिले के छुईखदान विकासखंड में बैगा जनजाति का निवास है। जिला मुख्यालय से लगभग 130 कि.मी. दूर है साल्हेवारा-बकरकट्टा क्षेत्र, जहाँ बैगा जनजाति के लोग आज भी अपनी आदिम अवस्था के अनुरूप जीवन-यापन कर रहे हैं। साल्हेवारा प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण वनक्षेत्र है।
लोक गायिका सुखियारिन मानिकपुरी का यह गीत हमें इस क्षेत्र के प्राकृतिक और सांस्कृतिक वैभव से परिचित कराता है-
साल्हेवारा के बाजार तैंहा आबे मंगल के।
खवाहूँ तेंदू-चार सरइपतेरा जंगल के।।
ठाढ़ पानी केरा पानी धांसे कुआँ।
ऊपर ले पानी झरे धुआँ-धुआँ ।
बकरकट्टा के तीर-तीर बइगा के डेरा,
मोला घेरे रहिथे तोर मया के धेरा।
आम गाँव जाम गाँव तेंदू के बठेना,
रामपुर बजार के चना-फुटेना।
साल्हेवारा के बजार……………………..
बकरकट्टा के आसपास अनेकों गाँव हैं, जहाँ बैगा जनजातियों की बाहुल्यता है। बैगा जनजाति के लोगों से साक्षात्कार करने और उनके देवलोक के गौरव और वैभव को जानने के लिए हम निकल पड़े। बीहड़ जंगलों, ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों और गहरे नदी-नालों को पार करते हुए ठाकुरटोला जमीदारी के नवागाँव की ओर। इस बार मेरी इस लोक यात्रा में शामिल थे पांडातराई, जिला कबीरधाम के संस्कृति प्रेमी शिक्षक देवचरन धुरी और मार्गदर्शक के रूप में भदेरा पैलीमेटा के शिक्षक व साहित्यकार राजकुमार मसखरे। मुख्य सड़क से 10 कि.मी. कच्ची सड़क पार कर पगडंडी से होते हुए हम नवागाँव बैगा डेरा पहुँचे। तो वहाँ कोई भी पुरूष वर्ग के लोग दिखाई नहीं दिए। एक महिला दिखाई दी, जिसके आँचल में एक बच्चा था। कुछ और छोटे बच्चे खेल रहे थे। हमें देखकर वे बच्चे सहम गए। पूछा तो पता चला कि महिला-पुरूष सभी जंगल गए हैं। उसी वक्त एक युवक आते हुए दिखाई पड़ा, जो रंग-रूप और पहनावे से बैगा नहीं लग रहा था। उसने अपना नाम अंजोरी राम धु्रर्वे बताया। वह बैगा ही था। बारहवी उत्तीर्ण है। हास्टल में रहकर शिक्षा प्राप्त की है। इसलिए भाषा में भी अंतर है। उसने हमारी आव-भगत की। हमने अपना उद्देश्य बताया, तो वह प्रफुल्लित हुआ और बताया कि अभी सब जंगल गए हैं, मोहलइन पान तोडने, शाम चार बजे तक आयेंगे। हमने अंजोरी राम से बैगा जनजाति के देवलोक के बारे में चर्चा की तो उन्होंने सामान्य जानकारी दी और कहा कि इस बारे में बुजुर्ग ही बता पायेंगे। हम पुनः आने को कहकर वापस आ गए। ठंड में बेमौसम बरसात के कारण शीत लहर के चलते भी हम तीनों निर्धारित समय पर पहुँचे, तो श्री टीकाराम धु्रर्वे 60 वर्ष और उनकी पत्नी सोनबती 57 वर्ष मिली। सामान्य गोठ बात में उन्होंने बताया कि वे मूल रूप से माहली घाट बोक्कर खार, विकासखण्ड बोड़ला, जिला कबीरधाम के रहने वाले हैं। विगत 8-10 वर्षो से यहाँ निवास कर रहे हैं। नवागाँव का नाम तुमड़ादाह है। उन्होंने अपने देवी-देवताओं व देवलोक की जानकारी देते हुए बताया कि ठाकुर दाईया (ठाकुरदेव), खैर माता, शीतला माता प्रमुख लोक देवता व देवी हैं। अगिया-बगिया की भी पूजा करते हैं। जो भूत प्रेत आदि का शमन कर हमारी रक्षा करते हैं। ये लोक देव इनके गाँव के पास ही विराज मान हैं। देव दर्शन के लिए जाते वक्त बीच रास्ते में झुमुक राम धु्रर्वे से उनके घर में भेंट हो गई। हम वहीं रूक गए। झुमुकराम टीकाराम जी के पिता हैं। जिनकी उम्र लगभग 80 साल होगी। वृद्ध पतला दुबला शरीर दुबला लेकिन गजब की स्फूर्ति। देवलोक की चर्चा करने पर उन्होंने कहा कि हम धरती पुत्र है। बैगा को भूमिया भी कहा जाता है। भूमिया अर्थात् भूमि से पैदा हुआ।
देवी-देवताओं की बात करते हुए मंत्र की भाँति उच्चारण कर देवी-देवताओं का स्मरण किया। हम आश्चर्य चकित थे। एक ही सांस में देवी-देवताओं की प्रार्थना और उन्हें आमंत्रण-
बारिरस पीपरस पात,
बाघराज हँसराज मेचका पानी गिरिसे।
देवार-देवारिन हनुमान गुरू महादेव,
ब्रम्हाजी राम कहिके
सब भजन करिस।
आठ खंड नौ पृथ्वी आगिन देवता,
पत्थर पेल ब्रम्हनीन सरसती
सरसती कंठन बैठ जिभिया के
सरसती माता चिल्हेरिना परेतीन
शैतान गांगू दिसाही माटिया।
सुरज नारायेन तारा शिकारी देव
रक्ताही देवता, छुताही माता
हमला सुख से राखबे, दुख झन देबे।
खैरमाई, बुढ़ीमाई, ठाकुर देव
कंकालिन दाई शंकर भगवान।
ऐसा कहकर उन्होंने सूरज की और हाथ उठाकर प्रणाम किया और कहा कि सारी प्रकृति ही हमारे देवी-देवता है। देवी-देवताओं की पूजन विधि ओर पूजन सामग्री पूछने पर उन्होंने बताया कि हमारे देवी-देवताओं में नारियल, धूपदीप, अगरबत्ती फूल पान के अतिरिक्त बलि भी दी जाती है। जैसे ठाकुर देव – सफेद मुर्गा, सफेद बकरा खैर माता – खैरी मुर्गा या खैरा बकरा शीतला माता – नारियल धूप दीप अगरबत्ती धरती को जगाने के लिए महुआ का दारू छिड़का जाता है। लोक देवी-देवताओं की पूजा एक साल में व तीन साल में की जाती है। तीन सला पूजा को गजदान या गज पूजा भी कहा जाता है। गजपूजा में अधिक खर्च आता है। झुमुक राम धु्रर्वे ने बैगा जनजाति की उत्पत्ति कथा की ओर इंगित करते हुए बताया कि हम नांगा बैगा की संतान हैं। नांगा बैगा तुमा से पैदा हुए और तुमा धरती से। उन्होंने बताया कि तुमा से दो आदमी निकले। पहला नांगा बाबा और दूसरा गोंड़। नांगा बैगा टंगिया लेकर जंगल की ओर चला गया। जबकि गोंड़ नांगर लेकर धरती की सेवा करने लगा। बैगा जनजाति की उत्पत्ति से संबंधित अनेक लोक कथाएं लोक प्रचलित हैं। कहा जाता है कि सृष्टि के आरंभ में ईश्वर ने नागा बैगा और बैगीन की रचना की, जो प्रथम मानव दम्पत्ति कहलाए। कुछ समय बाद उनसे दो पुत्र पैदा हुए। जिनमें से एक बैगा और दूसरा गोड़ कहलाया। एक दूसरी कथा यह भी है। जब इस पृथ्वी का निर्माण नहीं हुआ था। उस समय चारों ओर जल ही जल था। उस जल में कमल के पत्ते पर ब्रम्हा जी बैठे हुए थे। एक दिन ब्रम्हा जी ने जल में धरती बनाई। तत्काल धरती फोड़कर दो साधु निकले। जिनमें पहला ब्राम्हण और दूसरा नागा बैगा था। ब्रम्हा जी ने ब्राम्हण को कागज-कलम दे दिया और नागा बैगा को कुल्हाड़ी व कोदो-कुटकी देकर खेती करने का आदेश दिया। तब से बैगा जंगल काटकर खेती कर रहे हैं।
उपरोक्त कथाओं से यह स्पष्ट होता है कि बैगा जनजाति का उद्भव पृथ्वी से हुआ है। इसलिए ये अपना संबंध धरती से जोड़ते हैं। अतः ये धरती पुत्र हैं। प्रकृति के पुजारी ये बैगा भूमिया कहलाते हैं। भूमिया का अर्थ ही होता है, भूमि से जो पैदा हुआ हो। यह मिथक ही नही, बल्कि एक सच्चाई है, जो इनके जीवन यापन, रहन-सहन व कला-संस्कृति के माध्यम से दिखलाई पड़ती है। झुमुक राम ध्रुर्वे की बातों से इसकी प्रमाणिकता सिद्ध होती है। पूरी प्रकृति ही इनका देवलोक है। तब तक बैगा के अन्य परिवार जन जिसमें स्त्री-पुरूष, बच्चे सब शामिल थे। झुमुक राम जी के आँगन में एकत्रित हो गई। बहुत ही आत्मीय चर्चा हुई। वहीं झुमुक राम ध्रुर्वे की पत्नी सनपत्ती भी थी। हमने उनसे गीत गाने का आग्रह किया तो वे निःसंकोच गाने लगी।
बादर ऊँचे गहराये
कइसे जाबों दूर परदेशे।
कोन खूँटे गरजे,
कोन खूँटे घुमरे
कोन खूँटे बूँदी ल चुहाये
ये बादर ऊँचे गहराये।
तब तो बैगा गीतों की रिमझिम बरसात शुरू हो गई। झुमुक राम जी ने अनोखे अंदाज में अपनी कुशल अदायगी से गीत के साथ अभिनय कर हास-परिहास का वातावरण निर्मित कर दिया। पूष की सांझ उतर रही थी। अंधेरा घिर जाने के कारण देव स्थान नही जा पाये। देव स्थान नाले के उस पार था। बारिश हुई थी और अंधेरा भी घिरने लगा था। हमने अंजोरी राम से कहा कि आपके दादा और दादी के पास अनेकों बैगा गीत हैं। इन्हें सीखों और संग्राहित करो। टीकाराम ने बताया की इस स्थान पर उनके पाँच साढू भाई का परिवार निवास करता है। चेहरे पर मुस्कान और अर्न्तमन में अतृप्ति का भाव लिए हम तीनों मित्र फिर आने का वादा कर वापस घर आए। वापसी में एक अघरिया परिवार भी मिला। उन्होंने भी हमें पुनः आने का आमंत्रण दिया। जंगलों में रहने वाले बैगा जनजति का जीवन कितना निश्छल और कितना निस्पृह होता है। उनके देवी-देवता भी उन्हीं की तरह सहज और सरल होते हैं। यह जानना हमारे लिए सुखद अनुभव था।
हम रात आठ बजे घर पहुँचे। तभी साल्हेवारा रामपुर से लोक कलाकार भरत लाल हरिन्द्र का फोन आया। बताया कि कल आपको बगारझोला गाँव आना है, बैगा जनजाति के लोगों से मिलने। मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। दूसरे दिन अलसुबह साढ़े सात बजे बस से 60 कि.मी. दूर रामपुर पहुँच गया। वहाँ से बगारझोला की दूरी लगभग 10 कि.मी. है। भाई भरत लाल हरिन्द्र की मोटर सायकल से जब पहुँचे तो बीच रास्ते में बैगा भाईयों से भेंट हो गई। वे आखेट में मस्त थे। पाँच-छ: युवक खेत में मेढ़ के पास बने चूहों के बिल को खोद रहे थे। मुझे बड़ा कौतुहल हुआ। भरत भाई ने मोटर सायकल रोकी और परिचय कराया। वे अपने काम में निमग्न थे। वे सब चूहे का शिकार कर रहे थे। लगभग 8-10 चूहे मार चुके थे। बड़े-बड़े भूरे रंग के चूहे। उन्होंने बताया कि ये चौलई चूहे हैं। जो खेतों में चावल खाते हैं। इसलिए इनका नाम चौलई पड़ा। उनमें से एक भाई मरे चूहे को पकड़ कर विजय फोटो की मुद्रा में भी खिचाया। आखेट भी इनके जीविकोपार्जन का साधन है। पूछने पर बताया कि वे अभी घर नहीं जायेंगे। आप लोग जाईये। गाँव में और भी लोग हैं। वे आपको वांछित जानकारी देंगे। यह भी बताया कि कुंदन बैगा अच्छे जानकार हैं। वह बैगा और उनके देवलोक के संबंध में सब जानता है। हम बगारझोला पहुँचे तो गाँव के लोग अपनी बाड़ी में अरहर की फसल काट रहे थे। जंगलों और पहाड़ों के बीच बसा बगारझोला का प्राकृतिक सौंदर्य आँखों को सम्मोहित कर रहा था। प्रकृति के बीच जो कुछ भी है, चाहे वह पेड़-पौधे हों या, जंगल-पहाड़, नदी-नाले हों या पशु-पक्षी या मानव ही क्यों न हो सब सुन्दर लगते हैं। प्रकृति की सुन्दरता को तो प्रकृति के बीच रहकर ही अनुभव किया जा सकता है। हमारी पहली मुलाकात श्री समारू जी से हुई। जिनकी उम्र लगभग 65 साल है। पता चला की कुंदन बाहर गए हैं। नदी के पास जो उनका देवस्थल है, वहाँ तक ले गए। कुछ समय बाद सुखराम, भक्ता, पंचूराम, गपनत, चैनू और परसादी भी आ गए। सबने मिलकर बताया कि ये हमारा ठाकुर दइया (ठाकुर देव) हैं। कोई मूर्ति नहीं है। कुछ अनगढ़ पत्थर हैं। महुवा वृक्ष के नीचे रखे हुए हैं। कुछ मिट्टी के पुराने दीये पड़े हुए हैं। पास ही एक और महुवा वृक्ष के नीचे कुछ अनगढ़ पत्थर हैं। जिसे उन्होंने खैर माता का नाम दिया । एक और पेड़ है जो कैथा (कायत) का पेड़ है। उसे बावा लोक देवता के रूप में गाँव वालों ने प्रतिष्ठित किया है। यहाँ भी कोई मूर्ति नहीं है। ये ही इनके देवी -देवता हैं। प्राकृतिक रूप में ही डीह-डोंगर, घर परिवार और हमारे जीवन की रक्षा करते है। इन लोक देवी-देवताओं के प्रति बैगा जनों की बड़ी आस्था है। प्रतिवर्ष इनकी पूजा मान-दान होता है। लेकिन तीन साल या पाँच साल में बड़ी पूजा सम्पन्न होती है। जिसमें खैरी-पंडरा बकरी-बकरी, कुकरी-कुकरा और घेंटी-घेंटा (सुअर के बच्चें) की बलि देकर पूजा सम्पन्न की जाती है। महुवा के दारू से आचमन किया जाता है। खैर माता में चढ़े भोग व प्रसाद को महिलाएं खाती हैं, किन्तु ठाकुर देव में चढ़े प्रसाद को महिलाओं के लिए खाना वर्जित है।
ग्रामीणों ने पास ही कैथा वृक्ष में बावा जी का वास बताया गया। बावा जी में नारियल, धूप दीप, अगरबत्ती के अलावा गाँजा भी चढ़ाया जाता है। यहाँ किसी प्रकार की बलि नहीं दी जाती। कारण पूछने पर बताया की बावा जी सेत पूजा वाले हैं। यह उल्लेखनीय है कि यहाँ दो तरह की पूजा का विधान है। एक ‘सेत पूजा‘ जो पूरी तरह से सात्विक होती है। किसी तरह की बलि नहीं नहीं दी जाती। दूसरी है ‘मारन पूजा‘ जिसमें बलि की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है। मैने उनसे पूछा कि क्या यहाँ ‘जग-जँवारा‘ बोया जाता है। उन्होंने कहा कि नहीं। बगारझोला के जितने भी देवस्थल हैं, उसकी पूजा के लिए पंडरी गाँव से पुजारी (बैगा) आते हैं। उन्हीं के मार्ग दर्शन में लोक देवी देवताओं की पूजा होती है। गाँव वालों का आत्मीय सहयोग और देवलोक की विस्तृत जानकारी पाकर मन बड़ा प्रसन्न हुआ। ‘‘मैने पूछा इनके अलावा क्या आपके और भी देवी-देवता है।‘‘ तब उन्होंने खुश होकर कहा। ‘‘हाँ-हाँ और भी हमारे लोक देव है किन्तु वे दूर हैं। लगभग तीन कि.मी. दूर जंगल और पहाड़ों के बीच। एक ही नदी को दो बार पार करना पड़ेगा। बीहड़ जंगल के बीच हैं। घाट की चढ़ाई करनी होगी। ‘‘मैने कहा ‘‘जरूर चलेगे‘‘। मैं तो जंगल- पहाड़ घूमने व पैदल चलने का आदी हूँ। मेरे साथी भरत भाई तो जंगल के ही रहने वाले हैं। उन्होंने भी चलने के लिए हामी भर दी। गाँव वालों ने पंचूराम जी और परसादी जी को हमारे साथ भेजा। पंचूराम जी ने बताया कि घने जंगल के बीच जो देवता हैं, उनके नाम हैं ‘‘कोकोर्रा पाट‘‘ और टोकार सिंघा बाबा।‘‘ गाँव में गौठान के पास ‘‘साँहड़ा-मुठिया‘‘ देव भी हैं। ग्राम बगारझोला से पश्चिम दिशा में जब हम चले, तो घने जंगल और पहाड़ों को पार करते हुए मंगुरदा नदी के पास पहुँचे। बहुत ही स्वच्छ और शीतल जल। जैसे ही पानी में पाँव रखा लगा बर्फ की बीच चल रहे हैं। पंचूराम जी ने बताया कि यहाँ ‘टोकार सिंघा बाबा‘ का विशाल मेला माघ कृष्ण पक्ष पंचमी को भरता है। जिसमें आसपास के दर्शनार्थी आते हैं। टोंकार सिंघा बाबा बड़े ‘फुरमानुक देवता‘ (शीघ्र वांछित फल देने वाले) हैं। संतानहीन दंपति के द्वारा मानता(मनौती) मनाने पर संतान की प्राप्ति होती है। पशु गुम होने जाने पर मनौती मनाने से पशु घर लौट आते हैं या मिल जाते हैं। इसलिए इस क्षेत्र में इस लोक देवता की बड़ी मान्यता है। रास्ते भर पंचूराम और परसादी ने बैगा जनजाति की कला और सांस्कृतिक प्रेम की भी जानकारी दी। पंचूराम और भरत भाई ने बताया कि परसादी स्वयं एक कुशल नर्तक और गायक हैं, जो बैगा गीतों की अच्छी जानकारी रखते है।
दो बार मंगुरदा नदी को पार कर हम ‘कोकोर्रा पाट‘ पहुँचे। नदी के बाँए तट पर झाड़ियों के बीच ऊँचे पहाड़ों के नीचे लाल रंग का ध्वज लहरा रहा था। पंचूराम ने नतमस्तक होकर बताया कि ये ‘कोकोर्रा पाट‘ है। चूँकि हम नदी के दायें तट पर थे। नदी गहरी थी। इसलिए उस पार जाना संभव न था। सौ मीटर की दूरी चलने के बाद हम ‘टोकार सिंघा बाबा‘ के पास पहुँचे। ऊँचे पहाड़ के नीचे आम पेड़ से लगकर कुछ अनगढ़ पत्थर हैं। एक गोलाकार शिवलिंग नुमा आकृति भी है। यहीं हैं ‘‘टोकार सिंघा बाबा‘‘ जो सबको वाँछित फल देते हैं। यहीं पर एक छोटा मंदिर भी है, जिसे किसी जन प्रतिनिधि ने मनोकामना पूर्ण होने पर श्रद्ध वश निर्मित किया है। मंदिर के भीतर एक अनगढ़ मूर्ति भी है। पंचूराम जी ने बताया कि यहाँ हर साल माघ कृष्ण पक्ष की पंचमी को धूमधाम से इसकी पूजा होती है। जो पूर्ण रूप से सात्विक होती है। टोकार सिंघा बाबा को भोग में रोट-मलिदा (कच्चा दूध, मंदरस, घी, गंगा जल, गुड़ और आटा से बना व्यंजन) चढ़ाया जाता है। इस भोग के साथ ही धूपदीप, नारियल, अगरबत्ती व गांजा चढ़ाकर ग्रामीण जन इसकी पूजा करते है। मैने पंचूराम जी से प्रश्न किया कि ‘‘गांजा क्यों चढ़ाया जाता है? तो उन्होंने बताया की ये बाबा हैं अर्थात् महादेव। इसलिए गांजा चढ़ाया जाता है। टोकार सिंघा बाबा का भोग और प्रसाद महिलाओं के लिए वर्जित है। यह वर्जना परम्परा से चली आ रही है। यहाँ भजन भी गाएं जाते हैं।‘‘ मैने परसादी राम से निवेदन किया कि आप तो कलाकार हैं। कोई भजन या बैगा गीत सुनाईये। तब उन्होंने संकोच किया। मेरे बार-बार अनुरोध और प्रोत्साहन पर बैगा ददरिया सुनाया जो बड़ा ही कर्ण प्रिय लगा। कर्ण प्रियता लोकगीतों का स्वाभाविक गुण है-
बगरी कोदई नदी में धोई ले ओ, पर के लहरिया
तोर आगे लेवइहा गली में रोई । ले ओ।
ये दे पर के लहरिया।
गाय चराये हियाव करिले ग, पर के लहरिया
दोस्ती में मजा नई हे,
ये दे पर के लहरिया बिहाव करिले ग।
फुटहा मंदिर में कलस नई हे रे पर के लहरिया
काली के अवइया रे ये दे
पर के लहरिया ये दरस नई हे का रे।
आमा के डारा अमरि लेतेंव का ओ,
मोर परछी के सुतइया, ये दे पर के लहरिया
टमड़ लेतेंव का ओ?
गुलेल में मारे पड़की परेवा का ओ
टूरी रोई-रोई बतावे ये दे पर के लहरिया
ये अपन केवा का ओ।
लोकगीत, लोकजीवन के प्राण तत्व हैं। लोक गीतों के बिना लोक की कल्पना नहीं की जा सकती। ये हमने परसादी के गायन से समझा। परसादी के पश्चात् हमने पंचूराम जी ध्रर्वे से गीत गाने का आग्रह किया। भरत भई ने भी प्रोत्साहन दिया तो वह भी तैयार हो गए-
चल हमर संग गा ले गीत ओ
मोर कहइया न बोलइया
कोन गाँव के जहुँरिया ये।
तिलि के तेल चुपर अंग म ओ
तोला दया लागे टूरी,
कोन गाँव के जहुँरिया ये सुता ले संग म ओ।
तोला दया लागे टूरी
नदी के तीर-तीर छेके ल झांझा का ओ
भला मया वाले होबे, कोन गाँव के जहुँरिया
चल पियाबे गांजा का ओ
भल मया वाले होवे…………………….
उन्होंने यह भी बताया कि शादी-ब्याह के अवसर पर युवक-युवतियों के बीच इसी तरह ददरिया-गायन की परम्परा है। जो किसी प्रतियोगिता से कम नहीं होती। वाचिक परम्परा में प्रचलित गीतों के साथ ही युवक-युवतियाँ आशु कवि की तरह ददरिया की पंक्तियाँ रच लेते हैं। लोक सृजन का यह प्रबल आवेग गीत-नृत्य के साथ सूर्योदय की नवल किरणों के साथ ही विराम लेता है। मनोरंजन के इन पलों से निकल फिर हमने देवलोक पर पुनः बातचीत प्रारंभ की तो, उन्होंने बताया कि गाँव में गौठान के पास साँहड़ा-मुठिया लोक देवता हैं। जिसकी पूजा अर्चना अन्य देवी-देवताओं की तरह की जाती है। साँहड़ा-मुठिया गाँव के पशुधन की रक्षा करते हैं। गोवर्धन पूजा के दिन इसकी पूजा की जाती है। नारियल, धूप-दीप व अगरबत्ती से पूजन किया जाता है। छत्तीसगढ़ के मैदानी भागों में गोवर्धन पूजा के दिन साँहड़ा देव की पूजा की जाती है। बगारझोला में बैगाओं की देव भूमि को हम प्रणाम कर भरत भाई के साथ ग्राम वासियों से बिदा लेकर चलने की तैयारी में थे। तभी छेर-छेरा नाचते बैगा बच्चों की टोली मिल गई। चार-छै बच्चे कमर में घांघरा, गले में टेपरा और पाँवों में घुंघरू बांधे नाच-नाच कर गीत गा रहे थे। छेरिक छेरा छेर बरकनीन छेर छेरा माई कोठी के धान ल हेर हेरा।
मेरा मन बचपन की स्मृतियों में खो गया। हम भी ऐसा ही नाचते थे। पूष पूर्णिमा तिथि को छत्तीसगढ़ में छेर छेरा त्यौहार मनाते हैं। इस दिन सभी अमीर हों, चाहे गरीब, बच्चे-बूढ़े हों या जवान सभी छेर छेरा नाचते हैं। घर मालकिन बदले में धान का दान करती है। छेर छेरा मांगने से समता का भाव जाग्रत होता है। मन से अहंकार दूर होता है। विनम्रता का भाव आता है। हम भी गीत दोहराने लगे। बच्चों में उत्साह जगा। वे आगे गाने लगे।
अरन बरन कोदो दरन
जभे देबे तभे टरन
तारा रे तारा, लोहाटी तारा,
जल्दी जल्दी बिदा करो,
जाबो दूसर पारा।
हमने लोक परम्परा का निर्वाह करते हुए बच्चों को कुछ रूपये दिए। क्योंकि दान के लिए हमारे पास धान नहीं था। बच्चें बक्सीस पाकर खुश हो गए। बैगा जनजाति के जीवन में भी छेरछेरा पर्व का बड़ा महत्व है। जो अनायास हमें बगारझोला गाँव में देखने को मिला। हम धन्य हो गए। लोक देवी-देवताओं के दर्शन के साथ लोक परम्परा का परिपालन कर मन आह्नादित हो गया। हम भरत भाई के साथ उनकी मोटर सायकल में बैठकर रामपुर आ गए। आगे बकरकट्टा जाने का विचार था, किन्तु मौसम की प्रतिकूलता और घिरती सांझ में हमारे पाँव रोक दिए। सोचा बकरकट्टा के बैगा लोगों से मिलने कल ही संभव हो पायेगा। अतः मै गंडई वापस आ गया।
रात लगभग 09 बजे घर पहुँच कर मैने डॉ. सियाराम साहू जो छुईखदान में रहते है, और बुंदेली में हिन्दी के व्याख्याता हैं। जिनकी लोक साहित्य व लोक संस्कृति में गहरी रूचि है। उन्हें फोन किया और बकरकट्टा जाने के अपने उद्देश्य के बारे में बताया। वे बकरकट्टा जाने के लिए सहर्ष तैयार हो गए। हम दूसरे दिन मोटर सायकल से घने जंगलों और बैतालरानी घाट को पार करते, प्राकृतिक सुंदरता का आनंद लेते बकरकट्टा पहुँचे। बकरकट्टा घने जंगलों और ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों के बीच बसा हुआ है। यह नक्सल प्रभावित क्षेत्र है। यहीं रहती हैं इस क्षेत्र की सुप्रसिद्ध लोक गायिका सुकतीन बाई मरकाम। पेशे से शिक्षिका हैं। उन्हें हमारे आने की पूर्व सूचना थी। अतः उन्होंने भोजन करने का आग्रह किया। भला हम कलाकार के स्नेह और आग्रह को कैसे ठुकराते। भोजन कर हम बैठे थे कि श्री रामलाल मरकाम जो बैगा समाज के युवा कार्यकर्ता हैं। हमें अपने गाँव ले जाने के लिए आ गए। उनके उत्साह को देखकर हम भी उत्साहित हुए। सुकतीन बाई मरकाम को साथ लेकर हम सभी बकरकट्टा से 02 कि.मी. दूर नवागाँव पहुँचे। वहाँ लोगों में भी अपूर्व उत्साह था। गाँव के चौक में ग्रामीण एकत्रित थे। महिला-पुरूष बच्चे सभी। जोहार-भेंट के पश्चात् हमने आने का उद्ेश्य बताया। उनके देवलोक दर्शन की इच्छा प्रकट की। उनके देवी-देवताओं के संबंध में जानना चाहा। तब रामलाल ने तालाब के किनारे ले जाकर देव स्थान का दर्शन कराया। देवभूमि को प्रणाम कर पूछा -‘‘ये कौन-कौन से देव हैं?‘‘ तब उन्होंने बताया ये ठाकुर देव, खैर माता और शीतला माता हैं।
एक ठूँठ के नीचे कुछ अनगढ़ पत्थर हैं। जिन्हें ठाकुर देव बताया जहाँ पर ‘बाना‘ गड़ा हुआ है। जिसमें ध्वजा और उसके ऊपर ‘नीबू‘ लगा हुआ है। इससे आभास हुआ कि यहाँ कुछ दिन पहले ही पूजा हुई है। बहुत सारे मिट्टी के दीपक भी पड़े हुए हैं। रामलाल ने बताया कि दीपावली के समय इसकी पूजा हुई है। मिट्टी का खप्पर भी रखा हुआ है। जिसमें माता जी को हूम-धूप दिया जाता है। पास ही एक डेढ़ दो फीट लम्बा नुकीला पत्थर गड़ा हुआ है। यह खैर माता हैं। जहाँ पर ‘बाना‘ में ‘नीबू‘ के साथ लाल रंग का ध्वज लगा हुआ है। ये तीनों लोक देवी-देवता हैं। तीनों की शक्ति से गाँव की रक्षा होती है। गाँव में किसी प्रकार की अनहोनी या हानि होने पर यह माना जाता है कि लोक देव अप्रसन्न हैं। अतः उन्हें प्रसन्न करने के लिए उनकी पूजा-अर्चना परंपरा अनुरूप की जाती है। रामलाल ने बताया कि पास में ही एक और ठाकुर देव हैं। तालाब के पश्चिम भाग में ‘साँहड़ा-मुठिया‘ देव हैं। इनकी पूजा-पद्धति के बारे में पूछने पर उन्हांने बताया कि पूजा-पद्धति की जानकारी गाँव के बड़े बुजुर्ग देंगे। अतः हम उसी स्थान पर आ गए। जहाँ पर गाँव के लोग एकत्रित थे। चौंक में एक सरकारी शेड बना हुआ है। जहाँ पर सुंदर धरी बिछी हुई थी। लोग प्रसन्न मुद्रा में आपसी चर्चा कर रहे है। मैंने उन्हें ‘राम-राम‘ कहकर उनका नाम पूछा। रामलाल मरकाम, बोधी मरकाम, सोनार, फगनू मरकाम आदि। महिलाएं भी थी। वे सब उत्सुकता से हमारी ओर देख रही थी। श्री रामलाल मरकाम ने बताया कि- ठाकुर दईया ठाकुर देव में सफेद बकरा या मुर्गा खैर माता में खैरा बकरा य खैरा मुर्गा और साँहड़ा-मुठिया में बधिया (सुअर) व काले मुर्गे की बलि दी जाती है। हर साल मुर्गे की बलि दी जाती है। लेकिन तीन साल में बड़ी पूजा होती है। जिसमें ‘चरगोड़िया‘ की बलि दी जाती है। बलि व पूजन का कार्य पुजारी अमरसिंह मरकाम की अगुवाइ में सम्पन्न होता है। तीन साला पूजा होती है, उसमें लगभग 40-50 हजार का खर्च आता है। जिसे ग्रामवासियों से एकत्रित किया जाता है। आस-पास के गाँव वाले किसान भी जिनकी खेती-बाड़ी गाँव की सीमा से लगी हुई है। वे भी आर्थिक सहयोग करते हैं। तीन सला पूजा बहुत ही धूमधाम से की जाती है।
श्री सोनार खुशरो जो गोड़ आदिवासी हैं। उन्होंने बताया कि हमारे गाँव में अन्य लोकदेवी व देवता भी हैं। जिनमें प्रमुख है-शिव शिवरिया, डिह के डिवहार और मेड़ों के मेड़वार। परधनिया पाट और भैइसा सुर भी है। ये सभी लोक देवता हैं, जिनकी लोक परम्परा के अनुसार विधिवत पूजा कर उन्हें प्रसन्न किया जाता है। हमने गाँव वालों से यह पूछ कर अपनी जिज्ञासा प्रकट की, कि ग्राम बकरकट्टा में जो बैगिन दाई का मंदिर है। वह कौन सी देवी हैं? और उनकी क्या महिमा है? तब सोनार खुशरो ने बताया कि वे बड़ी फुरमानुक देवी हैं। उनका सही नाम ‘‘मनियारिन बैगिन दाई‘‘ है। जिसे कुकरा पाट जंगल से लाकर स्थापित किया गया है। इसकी एक कहानी है। मैंने पुनः जिज्ञासा दिखाई। तब उन्होंने बताया कि ‘‘आज से लगभग 35-40 साल पहले बकरकट्टा में एक कश्यप साहब डिप्टी रेंजर थे। तेन्दूपत्ता तोड़ाई का कार्य उनकी देखरेख में होता था। वे बड़े सज्जन थे। ठीक मार्च-अप्रेल के महिने में एक बड़ी रकम जो हजारों में थी। वे मजदूरों को वितरण के लिए लेकर आए। रात में किसी ने राशि चुरा ली। वन विभाग में कोहराम मच गया। चोरी कैसे हुई ? कौन चुराया ? पता ही नहीं चला, सब परेशान। अधिकारी से लेकर कर्मचारी और मजदूर सभी चिंचित। काफी समय बीत गया। काफी खोज-खबर ली। जाँच हुई फिर भी परिणाम शून्य। तब किसी बुजुर्ग ने कहा कि ‘‘साहब कुकुरा पाट की बैगिन दाई की बड़ी मान्यता है। उनकी मनौती मनाइए। चोर का पता चल जायेगा।‘‘ थक हार कश्यम साहब बैगिन दाई की शरण में गए। उन्होंने मनौती मनाई। जिसका परिणाम सुखद हुआ। चोरी गई राशि यथावत मिल गई। शायद चोर ने बैगिन दाई के भय से राशि को यथा स्थान रख दिया। लेकिन कृपा तो बैगिन दाई की हुई। तब बकरकट्टा के बड़े बुजुर्गों की सलाह से बैगीन दाई को कुकुरापाट से लाकर बकरकट्टा के मुख्य स्थान बाजार चौक में छोटा सा मंदिर बनाकर उनकी प्रतिस्थापना की गई है। आज बकरकट्टा की बैगिन दाई के नाम से लोकपूज्य हैं।
विषय से हटकर कुछ अन्य बातें भी हुई जो बैगा संस्कृति से ही संबंधित हैं। मैंने प्रमुख त्यौहारों के बारे में पूछा तो उन्होंने अक्ती और हरेली की चर्चा की। अक्ती के दिन गाँव के लोग अपने-अपने घरों से दोना में धान ले जाकर धरती माता की पूजा करते हैं। दोने के धान को पुजारी (बैगा) अभिमंत्रित कर धरती पर बिखरा देता है। फिर वहाँ प्रतीक रूप में हल चलाया जाता है। कृत्रिम रूप से वर्षा की जाती है। यह सब गाँव वालों के सहयोग से सम्पन्न होता है। फिर दोने के धान को किसान अपने खेतों में छिड़ककर बीज बोनी का कार्य प्रारंभ करते हैं। इस तरह कृषि कार्य की शुरूआत होती है। ऐसा ही इनका हरेली त्यौहार है। जिसे ये भाजी त्यौहार कहते हैं। इस दिन ये चेंच भाजी पकाकार नवा खानी की शुरूआत करते हैं। इसके पहले ये भाजी ककड़ी, कांदा आदि का उपयोग भोजन के रूप में नहीं करते। गोवर्धन पूजन के पहले ये कुम्हड़ा और कोचई (धुईया) की भी सब्जी नहीं खाते हैं। हमने विवाह के संबंध में चर्चा की तो बताया कि इनमें ‘‘चड़‘‘ विवाह का प्रचलन है, जो वर-वधु दोनों पक्ष की बातचीत और सहमति से होता है। दूसरा ‘‘पैठू‘‘ विवाह है जिसमें विवाहित लड़की अपने पति को छोड़कर अन्य मनपसंद युवक के घर आ जाती है। तीसरा विवाह है जिसमें युवक-युवती आपसी रजामंदी से भाग कर शादी करते हैं। जिसे ‘‘धुसरिया विवाह‘‘ कहते है। विवाह की बात चली तब हमने महिलाओं से विवाह गीत गाने के लिए कहा। तो जेठिया बाई ने विवाह गीत गाकर सुनाया। आँख से कुछ कमजोर लेकिन गीत गाने में बड़ी माहिर। रामलाल मरकाम की माँ ने भी गीत में अपना स्वर दिया। विवाह के सिलसिले में बात को आगे बढ़ाते हुए हमने पूछा कि ‘‘जो ठोकुरटोला के पास बैगा रहते हैं। उनसे क्या आप लोगों का रोटी-बेटी का संबंध होता है ? तब उन्होंने कहा कि ‘‘नहीं वे भरोठी बैगा हैं और हम नाहर बैगा। इसलिए दोनों में रोटी-बेटी का संबंध नहीं होता। मेरी जिज्ञासा सहज थी। क्योकि इसी तरह के प्रश्न करने पर ठाकुरटोला नवागाँव के श्री झुमुक राम ध्रुर्वे ने बकरकट्टा के बैगों को नाहर बैगा बताया था और रोटी-बेटी के संबंध होने से इंकार किया था। मेरे मन में एक और प्रश्न था जो ‘‘दसलखिया‘‘ को लेकर था। ठाकुरटोला के आपपास और भी आदिवासियों का निवास है। जिन्हें सोनार खुशरो ने बताया ‘‘दसलखिया‘‘ गोंड आदिवासी हैं। जब कान्हा किसली राष्ट्रीय उद्यान का निर्माण हुआ तो वहाँ से विस्थापित आदिवासियों को प्रति व्यक्ति को दस-दस लाख रूपए दिए गए। जिससे वे अपनी मन पसंद जगह जाकर जीवन निर्वाह के लिए बस जाएं। ऐसे ही गोंड आदिवासी यहाँ ‘‘दसलखिया‘‘ कहलाते है।‘‘ ठाकुरटोला के पास रहने वाले बैगा और बकरकट्टा क्षेत्र में रहने वाले बैगाओं में थोड़ी भिन्नता है। दोनों की वेशभूषा में अंतर है। ठाकुरटोला के रहने वाले बैगा लंबे बाल रखते हैं। बैगीन महिलाएं साड़ी घुटने के ऊपर तक पहनती हैं। जबकि बकरकट्टा क्षेत्र की बैगीन महिलाएं घुटने के नीचे तक साड़ी पहनती है। आभूषणों में भी फर्क दिखाई दिया। तीन दिनों के शोध सर्वेक्षण में यह बात सामने आई कि चाहे भरौठी बैगा हां या नाहर बैगा ये प्रकृति के पुजारी हैं। ठाकुर देव, खैर माता, शीतला माता है इनके लोक देवता है। दोनों ही अपनी देवी-देवताओं में बलि देते हैं। इनके देवी-देवता मिट्टी‘- पत्थर से निर्मित मंदिर में नहीं, खुले आसमान के नीचे जंगलों के बीच रहते हैं। प्रकृति का हर उपादान वृक्ष, नदी, पहाड़, सूरज, चंदा-तारे सब इनके देवता हैं। समूची प्रकृति ही देव स्वरूप है। इसलिए ये पेड़ पौधों की पूजा करते हैं। नदी-पहाड़ों की पूजा करते हैं। पड़े हुए अनगढ़ पत्थर में भी ये सुगढ़ देव की कल्पना कर समूची सृष्टि को देव लोक मानकर युगों-युगों से प्रकृति के सम्मुख नतमस्तक हैं। प्रकृति की पूजा ही देवत्व की पूजा है। बैगा जनजाति का देवलोक, इनकी निश्छलता, प्रकृति-प्रेम और प्रकृति का ज्ञान इन्हें इस जगत में देवत्व की श्रेणी में ला खड़ा करता है। प्रकृति प्रेमी बैगा जनजाति और इनके देवलोक को प्रणाम। शोध-सर्वेक्षण-दिनांक, स्थान व सहयोगियों के नाम
1. दिनांक 15.01.2022 ग्राम नवागाँव (तुमड़ा दाह), ठाकुरटोला, तहसील-गंडई, जिला- राजनांदगाँव (छ.ग.)
सहयोगी-श्री राजकुमार मसखरे शिक्षक व साहित्यकार, ग्राम-भदेरा व श्री देवचरन धुरी शिक्षक व साहित्यकार, ग्राम-पांडातराई, जिला-कबीरधाम (छ.ग.)
2. दिनांक 16.01.2022 स्थान ग्राम-बगारझोला (रामपुर) तहसील-छुईखदान, जिला-राजनांदगाँव (छ.ग.)
सहयोगी श्री भरतलाल हरिन्द्र, लोक कलाकार ग्राम-रामपुर, साल्हेवारा, जिला-राजनांदगाँव (छ.ग.)
3. दिनांक 17.01.2022 स्थान-बकरकट्टा नवागाँव, तहसील-छुईखदान, जिला-राजनांदगाँव (छ.ग.)
बहुत सुंदर सार गर्भित लेख बधाई भईया
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