गंडई की सुरही नदी सदानीरा है। बड़ी-बड़ी नदियाँ भीषण गर्मी में सूख जाती हैं, परन्तु सुरही नदी में जल प्रवाह बारहों महीने बना रहता है। सुरही नदी अपने उद्गम बंजारी से लेकर संगम कौहागुड़ी (शिवनाथ नदी) तक अनेकों पुरातातविक स्थलों को अपने आँचल में सेमेटी हुई है। गंडई अंचल अपनी पुरातात्विक संपदा के लिए पूरे छत्तीसगढ़ में पहचाना जाता है।
भंवरदाह, भड़भडी, दुरपता मंदिर, घटियारी, बिरखा, कटंगी, कृतबाँस, पंडरिया, गंडई, टिकरीपारा, बागुर, तुमड़ीपार, देऊर भाना, सहसपुर, देवकर, देवरबीजा, जैसे प्रमुख पुरातात्विक स्थान सुरही नदी के किनारे या करीब बसे हुए हैं। कल्चुरी काल में निर्मित यहाँ के मंदिर गंडई, सहसपुर, देवरबीजा में पुरी तरह सुरक्षित और संरक्षित हैं। शेष स्थानों पर केवल मंदिर के शिला खंड व पुरातात्विक अवशेष ही मिलते है। बड़ी संख्या में उपलब्ध ये पुरावशेष इन स्थानों की गौरव गरिमा को प्रमाणित करते है।
सुरही नदी के किनारे स्थित टिकरीपारा गाँव मेरी जन्म भूमि है। यही मेरी कर्म भूमि भी है। बचपन से लेकर अब तक का जीवन सुरही नदी के नीर से ही अभिसिंचित रहा है। सुरही नदी मेरे रचना कर्म की प्रेरणा भूमि रही है। भँवरदाह का जंगल हो या घटियारी, भड़भड़ी, टिकरीपारा के प्राचीन मंदिर हों, या सुरही नदी के रपटा घाट का गुलाम बगीचा या फिर छोटे घाट का आम बगीचा। ये सब लोक और लेखन से जुड़ने के लिए मुझे प्रेरित करते रहे। सभी स्थलों के बारे में लिखा लेकिन ‘‘देऊर भाना‘‘ छूट गया था। ऐसा कोई संयोग नहीं बना, वहाँ तक जाने का। एक दिन मन में ठाना, कि आज मुझे है जाना ‘‘देऊर भाना‘‘। आया तो मन की साध पूरी हो गई।
देऊर भाना का शिव मंदिर बेमेतरा जिले के परपोड़ी नगर से दक्षिण दिशा में लगभग सात किलो मीटर की दूरी पर उत्तर-पूर्व दिशा में है। परपोड़ी पहुंच कर मैंने अपने परिचित सुदामा वर्मा कुरलू वाले को फोन किया और देऊर भाना जाने की इच्छा व्यक्त की। वे सहर्ष तैयार हो गए।
सुदामा वर्मा देऊर भाना से परिचित थे। इसलिए जाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। परपोड़ी से बोरतरा मार्ग पर दो किलो मीटर पक्की सड़क से होकर हम दाँई ओर बगडाँवर गाँव के लिए मुड़े। मुरूम की सड़क है। गर्मी के दिनों में तो कोई असुविधा नहीं होगी। लेकिन बरसात के दिनों में तकलीफ होगी। ऐसी सड़क की स्थिति बता रही थी।
घर परिवार की बातें करते हम वर्मा जी के साथ बगडाँवर पहुँचे तो सुरही नदी को देख कर मन अति आनंदित हुआ। एनीकट बंधान के कारण दूर तक जल का भराव, दक्षिणी किनारे पर विशाल अमराई, कूकती कोयल, दोनों किनारों के ऊँचे-ऊँचे पेड़ जैसे अपनी बाँहे फैलाकर हमारा स्वागत कर रहे थे। सुरही नदी के उत्तरी किनारे से चलते चलते हमने अनुभव किया कि खेतों में मुरझाए चना और गेहूँ की फसलें बेमौसम बारिस और ओला वृष्टि के कारण किसानों की करूण स्थिति को व्यक्त कर रही थी। दूर से ही मंदिर का लहराता हुआ ध्वज और चूने से पूता मंदिर दिखाई देने लगा।
मंदिर पहुँचे तो सेवादार सीताराम आदिवासी से भेंट हुई, जिनकी उम्र लगभग 85 वर्ष है और विगत 50 वर्षो से मंदिर की सेवा में लगे हैं। पूछने पर उन्होने बताया की 50साल पहले यहाँ सीताफल की घनी झाड़ी थी। उसी झाड़ी में नंदी बैल, जलहरी और कुछ खंड़ित प्रतिमाएं मौजूद थीं। उसे देखकर प्रभुराम आदिवासी जो निसंतान थे, उन्होंने उस स्थान पर मंदिर बनाने की इच्छा व्यक्त की। लेकिन जमीन पर नंदेल आदिवासी का मालिकाना हक था।
गाँव वालों की प्रेरणा से प्रभुराम के मंदिर निर्माण की इच्छा का सम्मान करते हुए नंदेल ने अपनी जमीन पर मंदिर निर्माण की स्वीकृति दे दी। इस तरह मंदिर का निर्माण हुआ। नींव खुदाई के समय अनेक प्राचीन मूर्तियाँ निकलीं, जिसे कारीगर ने अपनी सूझबूझ से मंदिर की दीवारों पर चारों ओर लगा दिया है। मंदिर से लगा हुआ छोटा सा मैदान है, जहाँ पर महाशिवरात्री के दिन मेला लगता है। दूर-दूर से लोग शिवजी के दर्शन के लिए आते हैं।
मैंने सीताराम जी से पूछा कि इसे ‘देऊर भाना‘ क्यों कहते है ? उन्होने इस संबंध में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की। पर मेरा मन बार-बार ‘देऊर भाना‘ पर ही जोर दे रहा था। गंडई के प्राचीन शिव मंदिर को ‘देऊर भाँड़‘ कहते हैं। आरंग के जैन मंदिर को ‘देवल भाँड़‘ कहते हैं। देवरबीजा जहाँ सीता मंदिर है। ये तीनों मंदिर पहले भग्न थे, जिन्हे संरक्षित किया गया है।
देऊर का अर्थ है देवालय, मंदिर और भाँड़ का अर्थ है भग्न। हो सकता है देऊर भाना में भाना शब्द भी भाँड़ अर्थात भग्नता की ओर इंगित करता हो। क्योंकि देऊर भाना का शिव मंदिर भी भग्न अवस्था में ही मिला। जिसका नव निर्माण कराया गया है। देऊर भाना के पुरावशेष और खंड़ि़त प्रतिमाएं इसकी प्राचीनता को प्रमाणित करती हैं।
एक छोटे से मंदिर में मूल जलहरी जो काले पत्थर से निर्मित है स्थापित है। उस पर संगमरमर का शिवलिंग ग्रामीणों द्वारा स्थापित किया गया है। मूल नंदी की प्रतिमा जो खंड़ित स्थिति में है, जलहरी के समानांतर विराजित है। जबकि शास्त्रानुसार नंदी को शिवलिंग के सम्मुख पश्चिमाभिमुख होना चाहिए था। चूंकि मंदिर पूर्वाभिमुखी है। इसी परिसर में अनेक खंड़ित मूर्तियाँ हैं, जो स्थानीय स्तर पर प्राप्त पत्थरों से बनी हुई हैं। लगा हुआ नंदेश्वर की आधुनिक प्रतिमा है।
जिस मंदिर में प्राचीन मूर्तियाँ दीवरों पर लगी हैं, वहाँ गर्भ गृह में संगमरमर का शिवलिंग स्थापित है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर मिथुन मूर्तियों के अलावा, योद्धा गजसमूह, नवयौवना, व अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं लगी हुई हैं। चूंकि इन मूतियों पर चूने की कई परतें चढ़ी हुई हैं। इसलिए इनकी कलात्मकता की प्रमाणिक पहचान नहीं हो पाती।
अच्छा होगा कि चूने की परतों को साफ कर दिया जाय, तो इसका पुरातात्विक महत्व सिद्ध होगा। निसंदेह देऊर भाना एक महत्व पूर्ण पुरातात्विक स्थल है। देऊर भाना जाकर वर्षो की साध पूरी हुई। सुरही नदी के तीरे-तीरे, चल रे मन धीरे-धीरे।
आलेख
बहुत ही सुंदर तरीके से पुरातात्विक महत्व के देउर भाना के बारे में आपने बताया।
बहुत आभार!!
सुन्दर प्रस्तुति।