अंचल में किसान धान की फ़सल कटाई, मिंजाई और कोठी में धरने के बाद एक सत्र की किसानी करके फ़ुरसत पा जाता है और दीवाली मनाकर देवउठनी एकादशी से अंचल में मड़ई मेलों का दौर शुरु हो जाता है। ये मड़ई मेले आस्था का प्रतीक हैं और सामाजिक संस्था को सुदृढ़ करने के साथ जनचेतना जागृति करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
लगभग सभी छोटे बड़े गाँवों में इनका आयोजन होता है और यह उत्सव शिवरात्रि तक निर्बाध चलते रहता है। जनपदों में आज इस गांव में और कल उस गाँव में, मतलब पृथक पृथक दिन मड़ई का आयोजन होता है, जिसमें ग्राम देवताओं की पूजा पाठ के साथ मनोरंजन के नाच गाने का भी प्रबंध होता है। यह पर्व ग्राम समिति के माध्यम से संचालित होते हैं।
वर्तमान में अंचल में मड़ई मेलों का दौर चल रहा है। बड़े मेले तो विशेष पर्व या माह की पूर्णिमा तिथि को नदी तट पर आयोजित होते हैं, पर मड़ई का आयोजन लगभग प्रत्येक ग्राम में हो जाता है। गतवर्ष मुझे महासमुंद जिले पिथौरा तहसील के करिया धुरवा में मड़ई उत्सव देखने का सुअवसर प्राप्त हुआ।
इस स्थान पर कौड़िया राजा करिया धुरवा एंव धुरवीन का स्थान है और पूष माह की पूर्णिमा को यहां प्रतिवर्ष मड़ई का आयोजन होता है। यहाँ करिया धुरवा एवं धुरवीन का कांक्रीट का मंदिर बने हुए हैं और दोनो पृथक स्थानों पर विराजमान हैं।
करिया धुरवा के मंदिर प्रस्तर निर्मित बहुत सारी खंडित प्रतिमाएं सहेज कर रखी हुई हैं तथा इनमें घुड़सवार करिया धुरवा की प्रतिमा स्थापित है। वहीं सड़क के दूसरी तरफ़ धुरवीन भी घोड़े पर सवार होकर मंदिर में विराजमान है और यहां भी अनेक प्रस्तर निर्मित खंडित प्रतिमाएं रखी हुई हैं।
ग्रामीण पुरुष एवं महिलाएं इन स्थानों पर नारियल पुष्प अर्पित कर धूप दीप प्रज्जवलित कर सकाम पूजा पाठ करते हैं तथा मनोकामना पूर्ण होने के लिए देवों से प्रार्थना करते हैं। इस दिन यहाँ भक्तों की काफ़ी संख्या देखी जा सकती है।
करिया धुरवा के विषय में जितने मुंह उतनी कहानियां एवं किंवदन्तियाँ सुनने मिलती हैं। मड़ई भ्रमण करते हुए हमारी भेंट मंदिर समिति के सचिव जी से होती है। उनका कहना है कि करिया धुरवा कौड़िया राजा थे, उनका विवाह सिंगा धुरवा की राजकुमारी से होना तय हुआ। विवाह से पूर्व उभय पक्षों में तय होता है कि विवाह के पश्चात दिन में विदाई हो जानी चाहिए और वर पक्ष दुल्हन लेकर सूर्यास्त के पूर्व अपने ग्राम पहुंच जाए।
करिया धुरवा बारात लेकर सिंगा धुरवा जाते हैं, परन्तु विवादि विदाई प्रक्रिया में विलंब हो जाता है। गाँव पहुंचने के पूर्व ही सूर्यास्त हो जाता है। बारातियों एवं दुल्हन के साथ गांव के बाहर ही रात बिताने के लिए डेरा डाल देते हैं। वर पक्ष एवं वधु पक्ष दोनों का डेरा अलग-अलग लगता है, परन्तु दैवीय आपदा के कारण दोनों पक्ष रात को पत्थर में बदल जाते हैं। यही पत्थर में बदले हुए धुरवा और धुरविन कालांतर में लोक देवता के रुप में पुजित होने लगे और लोक मान्य हो गए।
छत्तीसगढ़ अंचल में मैने कचना धुरवा (गरियाबंद मार्ग पर) , सिंगा धुरवा (सिरपुर के 15 किमी दूरी पर पहाड़ी पर स्थित) और करिया धुरवा (अर्जुनी पिथौरा के समीप) तीनों को देखा है। किवदन्ति में तो इन्हें भाई बताया जाता है। परन्तु और भी कोई लोकगाथा प्रचलन में हो सकती है।
करिया धुरवा में रखी हुई प्रस्तर प्रतिमाएं किसी मंदिर के भग्नावशेष भी हो सकते हैं, जो खेतों में यत्र-तत्र बिखरे पड़े थे और बाद में किसी ने एकत्रित कर दिए होगें। कुल मिलाकर बात यह है कि ये प्रस्तर प्रतिमाएं हमें इतिहास से जोड़ती हैं और गौरव प्रदान करती है।
मड़ई मेलों में ग्रामीण उपयोग की वस्तुओं की दुकाने सजती हैं। सभी दुकानदार मड़ई के हाकां के अनुसार एक गांव से दूसरे गांव में भ्रमण करते रहते हैं। मिठाई की दुकाने, फ़ोटो स्टूडियों, टिकली फ़ुंदरी वाले, गोलगप्पे चाट वाले, गिलट के जेवर की दुकानें, गोदना वाले और भी तरह-तरह की सामग्रियों के विक्रेता अपनी दुकान सजाए रहते हैं।
इसके साथ गांव के दुकानदार भी कुछ कमाई करने की दृष्टि से अपनी दुकाने लगाते हैं। सब्जियों इत्यादि की दुकाने भी सजती हैं। गोदना गोदवाने का प्रचलन आज भी आदिवासी समाज में बहुलता से दिखाई देता है।
मेला मड़ई ग्रामीणों की आवश्यक्ताओं की वस्तुओं की कमी तो पूरा करते ही हैं, इसके साथ ही मेल-मिलाप का महत्वपूर्ण साधन भी हैं। आस-पास के सभी रिश्तेदार संबंधी इत्यादि इन मेले में मिल भेंटकर एक दूसरे का हाल चाल जानते हैं। बेटी माँ-बाप, भाई-बहनों से मिल लेती है, सुख-दुख का हाल जान लेती है और रिश्तेदार भी आपस में जोहार लेते हैं जो सांस्कृतिक एवं सामाजिक एकता को सुदृढ़ रखता है।
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