छोटा नागपुर के अधिकतर वनवासी सन 1890-92 के कालखंड में चर्च के पादरियों के बहकावे में आकर ईसाई हो गये थे। बिरसा का परिवार में इसमें शामिल था परंतु शीघ्र ही ईसाई पादरियों की असलियत भांप कर बिरसा न केवल ईसाई मत त्यागकर हिंदू धर्म में लौट आये वरन उन्होंने उस क्षेत्र के वनवासियों की भी हिन्दू धर्म में वापसी करवाई। यही बिरसा मुंडा आगे चलकर एक महान क्रांतिकारी तथा धरती आबा अर्थात जगत पिता के नाम से विख्यात हुए।
बिरसा मुंडा ने अपने समाज के लोगों को पवित्र जीवन जीने की शिक्षा दी। देश को स्वतंत्र कराने के प्रयास में अत्याचारी अंग्रेजों के विरुद्ध अपने समाज के लोगां में ऐसी क्रांति की ज्वाला धधकाई कि रांची के अंग्रेज कप्तान मेयर्स ने 24 अगस्त, 1895 को बिरसा मुंडा को सोते समय रात को गिरप्तार कर लिया। उनके मुंह में रुमाल ठूंसकर एक हाथी पर बैठाकर रातों रात रांची लाया गया और वहां जेल में डाल दिया गया। बाद में उनके पंद्रह अनुयायियों को भी गिरप्तार कर लिया गया। खूंटी, झारखंड में उन पर मुकदमा चला। सभी को दो वर्ष की सजा हुई।
30 नवम्बर 1897 को जेल से छूटने के बाद बिरसा ने सशस्त्र कांत्रि का रास्ता अपनाया। उनका उद्धेश्य देश को स्वतंत्र कराना तथा अपने समाज के लोगां को जमींदारों व अंग्रेजों के चंगुल से बचाना था। बिरसा जीवन पर्यन्त संघर्ष करते रहे। अंतिम उपाय के रुप में सरकार ने घबराकर छल कपट का सहारा लिया। आखिरकार विश्वासघातियों की मुखबिरी से रात में सोते समय बिरसा का गिरप्तार कर लिया गया। बिरसा पर एक आम आदमी की तरह ही मुकदमा चलाया गया। लूटपाट, आगजनी और हत्या जैसे लगभग 15 आरोपों के साथ बिरसा को मुख्य अभियुक्त के रुप में चिन्हित किया गया।
30 मई 1900 का दिन प्रातःकाल से ही बिरसा कुछ अस्वस्थ लग रहे थे परंतु इस पर किसी का कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। अदालत में अचानक उनकी तबीयत बिगडने लगी। उन्हें पुनः जेल लाया गया। जेल चिकित्सक ने जांच आदि कर दवाई दी। 08 जून को दस्त के कारण पुनः उनकी हालत खराब हो गई। 09 जून को प्रातः 08 बजे के आसपास वे खून की उल्टियां करते करते बेहोश हो गये और अंत में 09 बजे आदिवासियों के भगवान बिरसा मुंडा ने संसार से सदा के लिये विदा ले ली।
जीवित रहते हुए बिरसा मुंडा ने अपने शौर्यपूर्ण कार्यों से अंग्रेज सरकार व खासकर ईसाई मिशनरियों की नींद उडा रखी थी। मृत्यु के बाद भी वह उनके लिये भय का कारण बने रहे। इसीलिये सुवर्ण रेखा नदी के घाट पर बिरसा जी का शव जेल कर्मचारियों द्वारा कंडों की आग में गुपचुप तरीके से जला दिया गया।
यही डर आज भी देश में कार्यरत ईसाई मिशनरियों के जेहन होना चाहिये, यदि सारा आदिवासी समाज उनके द्वारा पैदा किये गये विद्रोह की चिनगारी को भलीभांति समझ कर उनकी पोल खोलते हुए उनकी करतूतों का पर्दाफाश करे व अपनी मूल पहचान में वापस लौटे। तभी भगवान बिरसा मुंडा को सच्ची श्रद्धांजली होगी।
क्योंकि बिरसा द्वारा प्रारंभ किया गया आंदोलन सर्वप्रथम धार्मिक रंग लिये था। उसका प्रमुख उद्धेष्य ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध लोगों को एकजुट करना था और हिंदू धर्म की रक्षा करना था। स्वार्थ, लोभ, और हिंसा आदि के लिये कोई स्थान नहीं था। यही कारण था कि आंदोलन प्रारंभ होते ही बिरसा की भगवान के रुप में पूजा होने लगी।
बिरसा आंदोलन आदिवासियों की उन्नति और अधिकारों को लेकर था। चूंकि आंदोलन का उद्देश्य आदिवासियों की आर्थिक व सामाजिक स्थिति को सुधारना था इसलिये इसके अंतर्गत की जाने वाली मांगों के प्रारुप तैयार करने में बिरसा ने सूझबूझ के आदिवासियों के पक्ष मे महत्वपूर्ण मागों को उठाया। जिसमें से मुख्य रही –
- जल, जंगल, जमीन, खेती, पहाड, खनिज संपदा वन संपदा पर उच्च वर्ग समुदाय के जैसे आदिवासी का भी सबका समान अधिकार हो।
- आदिवासियों का आर्थिक शोषण बंद हो परिश्रम के अनुसार पारिश्रमिक मिले।
- आदिवासी महिलाओं के सम्मान और सुरक्षा हेतु सुदृढ कानून बने।
- आदिवासियों को भी शिक्षा ग्रहण करने का समान अधिकार प्राप्त हो ।
- समाज में आदिवासियों कों समान अधिकार प्राप्त हो मंदिर आदि धार्मिक स्थल पर जाने की स्वतंत्रता हो।
- आदिवासियों के साथ छुआछुत का व्यवहार बंद हो ऐसा कानून बने।
- आदिवासियों को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्राप्त हो। ईसाई मिशनरियों पर प्रतिबंध लगाया जाये जिससे आदिवासियों के धर्म परिपर्वन पर रोक लगे।
उपर्युक्त मांगों के द्वारा बिरसा मुंडा ने जो समाज सूधार की नींव रखी वह इतनी गहरी थी कि स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय संविधान में निम्न वर्ग के कल्याण के लिये विशेष कानून बनाये गये।
स्वधर्म प्रेरणा –
अपने अस्तित्व और अधिकारों के लिये आदिवासी के लिये आदिवासी सदियों से संघर्षरत थे। बिरसा बचपन से ही आदिवासियों के नारकीय जीवन को निकट से देखते आये थे। उन्होने आदिवासी बच्चों को एक एक दाने के लिये तरसते और उनकी स्त्रियों को अपनी इज्जत बचाने के लिये प्राण त्यागते देखा था। आंखो के सामने जमींदारों द्वारा अनेक आदिवासियों को यादनायें दे – देकर मारा गया। साथ ही ईसाई मिशनरियां को आर्थिक मदद देकर अंग्रेज सरकार इन आदिवासियों का धर्म परिवर्तन करवा रही थी।
अंग्रेजी हूकूमत, ईसाई मिशनरी और जमींदारों तीनों की मिलीभगत ने बिरसा का विचलित कर दिया। इस प्रकार की असंतोषजनक नीतियों के कारण ही बिरसा ने आदिवासियों समुदाय की सहायता करने का प्रण कर लिया। इसकी नींव उन्होंने मिशनरी स्कूल में रख दी थी ।
एक ओर जमींदार आदिवासियों का आर्थिक शोषण कर रहे थे वहीं दूसरी ओर ईसाई मिशनरी उनके मानसिक व धार्मिक शोषण में लिप्त थे। किसी तरह से भारत के निर्धन व असहाय वर्ग को ईसाई बनाना उनका लक्ष्य उस समय भी था और आज भी है । इसके लिये वे उनसे बडे से बडा झूठ बोल सकते थे कई प्रलोभन दे सकते थे, वही छल -प्रपंच, मायाजाल, हसीन सब्जबाग आज भी गरीब व शहरी निम्न आय वर्गों के बीच अनवरत जारी है।
उनका मायाजाल उस समय अधिक दिनों तक नहीं टिक सका और उनका षडयंत्र लोगों को समझ आने लगा। जिससे मुंडा सरदार ईसाई मिशनरियों की उपेक्षा करने लगे। प्रलोभनों का मोह त्यागकर उन्होने ईसाई धर्म मानने से इन्कार कर दिया। जिससे ईसाई मिशनरी विचलित हो गये और वे खूलकर सामने आ गये। वे आदिवासियों को बेईमान और असभ्य कहकर अपमानित करने लगे। इसके अतिरिक्त मिशनरी स्कूलों में सभायें करके अब वे बाकी बचे ईसाईयों को उनके विरुद्ध खडे होने का आह्वान करने करते।
चाईबासा के मिशनरी स्कूल में भी इसी प्रकार का सभा का आयोजन कर एक पादरी द्वारा भडकाउ भाषण दिया जा रहा था। इस सभा में बिरसा भी एक ओर बैठे हुए पादरी के भाषण को सुन रहे थे। उस पादरी के मुख से निकले एक एक शब्द से सोलह वर्षीय बिरसा का रोम रोम जल उठा। जब पादरी ने मुंडाओं को बेइमान और असभ्य करकर अपमानित करना आरंभ किया। तो उनके लिये असहनीय हो उठा।
बिरसा अपने स्थान उठ खडे हुए व गरज पडें कहा कि तुम केवल हमारा धर्म परिवर्तन करने आयें हो हमारी समस्याओं व आवश्यकताओं से तुम्हें कोई सरोकर नहीं है। तुम सरकार के साथ मिलकर हमारी सभ्यता व संस्कृति को समाप्त कर देना चाहते हो। तुमने मुंडाओं के स्वाभिमान को ललकारा है। अब देखना, मुंडा कैसे तुम्हारा सर्वनाश करते हैं।
भरी सभा में हडकंप मच गया। इस घटना की सूचना मिशन अध्यक्ष तक पहुंची। अध्यक्ष लूथरन सोच मे पड गये। बिरसा की योग्यता और प्रतिभा से वे भलीभांति परिचित थे।उसके इस तरह के व्यवहार वे अनभिज्ञ भी नहीं थे। इसलिये वे कोई भी कदम उठाने से पहले बिरसा को एक अवसर देना चाहते थे। उन्होने बिरसा को पादरी से क्षमा मांगने को कहा इस पर बिरसा ने कहा कि मैंने कोई गलत काम नहीं किया है। जिन लोगों ने मेरी जाति मेरा धर्म और मेरे लोगों का अपमान किया है उसे कदापि सहन नहीं करुंगा। इस पर लूथरन क्रोधित होकर बोले बिरसा तुम मुंडा नहीं हो ईसाई हो, तुमने ईसाई धर्म स्वीकार किया है। और इसी कारण तुम्हें इस स्कूल में प्रवेश मिला है। तथा छात्रावास में पढने की व्यवस्था की गई है। इसलिय उचित यही है कि तुम क्षमा मांग लो।
मान्यवर जो अन्य धर्मों का अनादर करे, अपमान करें, उनके रिति रिवाजों एवं मान्यताओं का मजाक उडाये, अन्य धर्म के लोगों को प्रताडित करे, धर्म का ऐसा स्वरुप मुझे अस्वीकार है। बिरसा ने संयमित स्वर में कहा। और अंत में निष्कासन का आदेष सुनकर बिरसा मुस्कुराते हुए कक्ष से बाहर निकल गये।
जिस तरह बिरसा ने अपने स्वधर्म की गरिमा को न भूलते हुए दिये गये सभी प्रकार के प्रलोभनो का ठुकरा कर देश व धर्म की अस्मिता पर खतरा बने ईसाई मिशनरियों का विरोध का झण्डा उन्हीं गढ में रहकर बुलंद किया। उसी प्रकार आज के वर्तमान परिदृष्य में सभी आदिवासी समुदाय के सभी नवयुवकों को अपनी मूल अस्मिता की रक्षा के लिये बिरसा का अवतार लेना होगा। क्योकि ईसाई मिशनरियां दीमक की तरह पहले उरांव समाज, मुंडा समाज, कोल समाज को फंसा कर 90 प्रतिशत ईसाई बना कर उनकी मूल अस्मिता को नष्ट कर चर्च और क्रास के इर्द गिर्द समेट दिया है। अब उनका अगला लक्ष्य खासकर छत्तीसगढ में बहुसंख्यक गोंड समाज व कंवर समाज है जिसे धर्म परिवर्तन न कर पाने की स्थिति में अब उन्हें अहिंदू बनाकर मूल समाज से काटने की साजिश में शामिल है। मूल निवासी का नया पत्ता खेला जा रहा है।
जिस तरह किसी संयुक्त परिवार के चार भाइयों में कोई तीन भाई अपनी अपनी आजिविका संपन्न तरीके व्यतीत करते है। उसी परिवार में चौथा भाई किसी कारण से अपनी व्यक्तिगत उन्नति नहीं कर पाने की स्थिति में आसपास के पडोसियों अथवा परिवार के बाहरी लोगों द्वारा ही चौथे भाई को बरगलाया जाकर उस परिवार में फूट डालने की प्रक्रिया सदियों से चली आ रही है। उस संयक्त परिवार की प्रगति नष्ट करने हेतु हरसंभव कुत्सित प्रयास किये जाते है। येन केन प्रकारेण वह परिवार बिखर जाये।
चौथे भाई जो कमजोर कडी के रुप में है उसे तोडने का प्रयास किया जाता है। उसे उसके हक की बात मंगवाई जाती है। परिवार में बंटवारे की बात आ जाती है। और यदि ठीक से ध्यान नहीं दिया गया तो बंटवारा होकर ही रहता है। और जो तीन भाई जो पहले से संपन्न थे वे तो अपना मार्ग ढंढ ही लेते है। लेकिन जो चौथा भाई जिसके कारण वह बंटवारा हुआ, कुछ दिनों बाद दर-दर की ठोकरे खाता फिरता है। उसे बाहरी लोंगों द्वारा ही नोच कर खा लिया जाता है। ऐसी ही कुछ परिस्थिति अपने इस वृहत हिंन्दू समाज की है। जहां गरीब, दलित, आदिवासी, पिछडे लोगों का बरगलाने का काम बदस्तूर जारी है।
ऐसे समय मे भगवान बिरसा ही हमारे रक्त में अपनी अस्मिता की रक्षा का ज्ञान दिलाने के लिये प्रेरणास्रोत के रुप में विद्यमान हैं। जिसे आत्मसात कर प्रत्येक आदिवासी नवयुवक को भगवान बिरसा की तरह उलगुलान की जरुरत है। आज जरुरत है बिरसा के हूलजोहार की ।
आलेख
श्री किशोर कुमार सिंग, जशपुर