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शक्ति तीर्थ डोंगरगढ़ की बमलाई माता

राजनांदगांव से 36 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित डोंगरगढ नगरी धार्मिक विश्वास एवं श्रध्दा का प्रतीक है। डोंगरगढ की पहाड़ी पर स्थित शक्तिरुपा माँ बम्लेश्वरी  देवी का विख्यात मंदिर सभी श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है। यहां मां बम्लेश्वरी देवी के दो विख्यात मंदिर है। डोंगरगढ की पहाड़ी पर 1600 फीट की ऊंचाई पर पहला मंदिर स्थित है, जो बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से जाना जाता है। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए पहाड़ी पर बनी लगभग 1000 सीढियों चढनी होती है।

बड़ी बम्लेश्वरी के समतल पर स्थित मंदिर छोटी बम्लेश्वरी के नाम से प्रसिध्द है। मां बम्लेश्वरी के मंदिर में प्रतिवर्ष नवरात्र के समय दो बार विराट मेले का आयोजन किया जाता है, जिसमें लाखों की संख्या में दर्शनार्थी भाग लेते हैं। चारों ओर हरे-भरे वनों, पहाड़ियों, छोटे-बड़े तालाबों एवं पश्र्चिम में पनियाजोब जलाशय, उत्तर में ढारा जलाशय तथा दक्षिण में मड़ियान जलाशय से घिरा प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण स्थान है-डोंगरगढ।

कामाख्या नगरी व डुंगराख्य नगर नामक प्राचीन नामों से विख्यात डोंगरगढ में उपलब्ध खंडहरों एवं स्तम्भों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ताओं ने इसे कलचुरि काल का एवं बारहवी-तेरहवीं सदी के लगभग का पाया है, किन्तु अन्य उपलब्ध सामग्री जैसे-मूर्तियों के गहनें, उनके वस्त्रों, आभूषणों, मोटे होंठ एवं मस्तक के लम्बे बालों की सूक्ष्म मीमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्तिकला पर प्राचीन कला का प्रभाव परिलक्षित होता है।

लोकमतानुसार अब से 2200 ( बाईस सौ ) वर्ष पूर्व डोंगरगढ के प्राचीन नाम कामाख्या नगरी में राजा वीरसेन का शासन था, जो कि नि:संतान था। पुत्ररत्न की कामना हेतु उसने महिषमती पुरी (म॰प्र॰ में मंडला) में स्थित शिवजी और भगवती दुर्गा की उपासना की, जिसके फलस्वरुप रानी को एक वर्ष पश्र्चात पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। ज्योतिषियों द्वारा नामकरण में पुत्र का नाम मदनसेन रखा गया।

भगवान शिव एवं दुर्गा मां की कृपा से राजा वीरसेन को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी और इसी भक्ति भाव से प्रेरित होकर कामाख्या नगरी में मां बम्लेश्वरी ( जगदम्बे महेश्वर ) का मंदिर बनवाया गया। मां बम्लेश्वरी को जगदम्बा, जिसमें भगवान शिव अर्थात महेश्वर की शक्ति विद्यामान है, के रुप में जाना जाने लगा।

राजा मदनसेन एक प्रजा सेवक शासक थे। उनके पुत्र हुए राजा कामसेन जिनके नाम पर कामाख्या नगरी का नाम कामावती पुरी रखा गया। कामकन्दला और माधवनल की प्रेमकथा भी डोंगरगढ की प्रसिध्दि का महत्वपूर्ण अंग है। कामकन्दला राजा कामसेन के राजदरबार में नर्तकी थी। वहीं माधवनल एक निपुण संगीतज्ञ था। एक बार राजा के दरबार में कामकन्दला के नृत्य का आयोजन हुआ, परन्तु ताल व सुर बिगड़ने से माधवनल ने कामकन्दला के पैर की एक पायल में नग न होना व मृदंग बजाने वाले का एक अंगूठा नकली अर्थात मोम का होना जैसी त्रुटि निकाली।

इससे राजा कामसेन अत्यन्त प्रभावित हुए और उसने अपनी मोतियों की माला माधवनल को भेंट की तथा कामकनदला को पुन: माधवनल के सम्मान में नृत्य करने को कहा। कामकन्दला के नृत्य से प्रभावित हो माधवनल ने राजा कामसेन की दी हुई मोतियों की माला कामकन्दला को भेंट कर दी। इससे राजा कामसेन क्रोधित हो गया और माधवनल को राज्य से निकाल दिया। परन्तु माधवनल राज्य से बाहर न जाकर डोंगरगढ की पहाड़ियों की एक गुफा में छुप गया। इस प्रसंगवश कामकन्दला व माधवनल के बीच प्रेम अंकुरित हो चुका था। कामकन्दला अपनी सहेली माधवी के साथ छिपकर माधवनल से मिलने जाया करती थी।

दूसरी तरफ राजा कामसेन का पुत्र मदनादित्य, पिता के स्वाभाव के विपरीत, नास्तिक व अय्याश प्रकृति का था। वह कामकन्दला को मन ही मन चाहता था और उसे पाना चाहता था। मदनादित्य के डर से कामकन्दला उससे प्रेम का नाटक करने लगी। एक दिन माधवनल रात्रि में कामकन्दला से मिलने उसके घर चला आया और उसी वक्त मदनादित्य अपने सिपाहियों के साथ कामकन्दला से मिलने चला आया। यह देख माधवनल पीछे के रास्ते से गुफा की ओर निकाल गया। घर के अंदर आवाजें आने की बात पूछने पर कामकन्दला ने दीवारों से अकेले में बात करने की बात कही। इससे मदनादित्य संतुष्ट नहीं हुआ और अपने सिपाहियों से घर पर नजर रखने को कहकर महल की ओर चला गया।

एक रात्रि पहाड़ियों से वीणा की आवाज सुन व कामकन्दला को पहाड़ी की तरफ जाते देख मदनदित्य रास्ते में बैठकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा, परंतु कामकन्दला दूसरे रास्ते से अपने घर लौट गई। मदनादित्य ने शक होने पर कामकन्दला को उसके घर में नजरबंद कर दिया। इस पर कामकन्दला और माधवनल माधवी के माध्यम से पत्र व्यवहार करने लगे। किन्तु मदनादित्य ने माधवी को एक रोज पत्र ले जाते पकड़ लिया। डर व धन के प्रलोभन पाकर माधवी ने सारा सच उगल दिया। मदनादित्य ने कामकन्दला को राजद्रोह के आरोप में बंदी बनाया और माधवनल को पकड़ने हेतु सिपाहियों को भेजा। सिपाहियों को आता देख माधवनल पहाड़ी से निकल भागा और उज्जैन जा पहुंचा।

उस समय उज्जैन में राजा विक्रमादित्य का शासन था जो बहुत प्रतापी और दयावान था। माधवनल की करुणा कथा सुन उसने माधवनल की सहायता करने की सोचकर अपनी सेना के साथ कामाख्या नगरी पर आक्रमण कर दिया। कई दिनों के घनघोर युध्द के बाद विक्रमादित्य विजयी हुए एवं मदनादित्य, माधवनल के हाथों मारा गया। घनघोर युध्द से वैभव शाली कामाख्या नगरी पूर्णता: ध्वस्त हो गई चारों ओर शेष डोंगर (पर्वत) ही बचे रहे तथा इस प्रकार डुंगराख्य नगर की पृष्ठ भूमि तैयार हुई।

युध्द के पश्र्चात विक्रमादित्य द्वारा कामकन्दला एवं माधवनल की प्रेम परीक्षा लेने हेतु जब यह मिथ्या सूचना फैलाई गई कि युध्द में माधवनल वीरगति को प्राप्त हुआ, तो कामकन्दला ने ताल में कूदकर प्राणोत्सर्ग किया। वह तालाब आज भी कामकन्दला के नाम से विख्यात है। उधर कामकन्दला के आत्मोत्सर्ग से माधवनल ने भी अपने प्राण त्याग दिये। अपना प्रयोजना सिध्द होते न देख राजा विक्रमादित्य ने मां बम्लेश्वरी देवी (बगुलामुखी) की घोर आराधना की और अन्तत: प्राणोत्सर्ग करने को तत्पर हो गए। तब देवी ने प्रकट होकर अपने भक्त को आत्मघात करने से रोका। तत्पश्र्चात विक्रमादित्य ने माधवनल- कामकन्दला के जीवन के साथ यह वरदान भी मांगा कि मां बगुलामुखी-अप्रभंश बमलाई देवी साक्षात महाकाली के रुप में डोंगरगढ में प्रतिष्ठित हैं।

सन 1964 में खैरागढ रियासत के भूतपूर्व नरेश श्री राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह द्वारा मंदिर के संचालन का भार मां बम्लेश्र्वरी ट्रस्ट कमेटी को सौंपा गया था। डोंगरगढ के पहाड़ में स्थित मां बम्लेश्र्वरी के मंदिर को छत्तीसगढ का समस्त जन समुदाय तीर्थ मानता है। यहां पहाड़ी पर स्थित मंदिर पर जाने के लिए सीढियों के अलावा रोपवे की सुविधा भी है। यहां यात्रियों की सुविधा हेतु पहाड़ों के ऊपर पेयजल की व्यवस्था, विद्युत प्रकाश, विश्रामालयों के अलावा भोजनालाय व धार्मिक सामग्री खरीदने की सुविधा है। डोंगरगढ रायपुर से 100 कि॰मी॰ की दूरी पर स्थित है तथा मुंबई-हावड़ा रेल मार्ग के अंतर्गत आता है।

आलेख

अनुप तिवारी

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