मानव सभ्यता के एक सोपान के रुप में “लौह युग” महत्वपूर्ण स्थान रखता है। लोहे की उत्पत्ति मानव सभ्यता के लिए क्रांतिकारी अविष्कार माना गया है। इस युग में मनुष्य ने मिट्टी में लोहे की पहचान की और उसे मिट्टी से पृथक करने एवं परिष्कृति करने विधि विकसित की। फ़िर इस लोहे से आवश्यकता के अनुरुप उपकरण एवं औजार बनाए जाने लगे। यह लोहा खेती किसानी, अस्त्र शस्त्रों लेकर साधारण मनुष्य की उपयोग की वस्तुओं के निर्माण में प्रयुक्त होने लगा। इसके साथ ही आर्यूवैदिक चिकित्सा विज्ञान में भी लोहे का उपयोग भस्म के रुप में किया जाने लगा।
लोहे के अविष्कार के प्रारंभिक काल से लेकर वर्तमान तक लोहा मानव सभ्यता को विकसित करने के उपयोग में आ रहा है। वर्तमान में हालात यह हैं कि भूगोल में शायद ही ऐसा कोई घर मिलेगा जहाँ लोहे का उपयोग नहीं हुआ होगा। मिट्टी से लोहे को निकालने के लिए आज भी उसी प्रक्रिया (वात्या भट्टी) का प्रयोग हो रहा है जो हजारों वर्ष पूर्व होता था। प्राचीन काल से ही छत्तीसगढ़ (दक्षिण कोसल) में लौह अयस्क प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है तथा लौह अयस्क की पहचान कर लोहे का निर्माण करने वाली जातियाँ भी उपस्थित है। इससे ज्ञात होता है कि यहाँ लोहा प्रचूर मात्रा में निकाला जाता था, लोहे से बनी वस्तुयों का निर्यात करने की जानकारी भी मिलती है।
रामगढ़ में प्राचीन सभ्यता के अवशेष
रामगढ़ पर्वत एवं उसकी तलहटी में सर्वेक्षण के दौरान मुझे प्राचीन सभ्यता के चिन्ह दिखाई दिए। यहाँ आदिमानवों की बसाहट के संकेत के रुप में हमें उनके प्रस्तर औजार प्राप्त होते हैं। पहाड़ी एवं तलहटी दोनो स्थानों पर उनके औजारों की फ़ैक्टरी भी दिखाई देती है। आदिमानव के निवास हेतु कई गुफ़ाएँ होने के साथ सघन वन के बीच जल एवं भोजन की उपलब्धता भी आदिमानव के निवास की पुष्टि करती है। इसके साथ ही यहाँ लौह युग के प्रमाण भी दिखाई देते हैं।
रामगढ़ में लौह निर्माण
रामगढ़ में लौह मल (आयरन स्लैग) के ढेर दिखाई दिए। लौह अयस्क के लोहा निकालने के लिए कच्चे माल के साथ, पानी, लकड़ी-पत्थर के कोयलों के साथ भट्टी बनाने के लिए उपयुक्त मिट्टी की आवश्यकता होती है। ये सभी चीजें रामगढ़ के आस-पास उपलब्ध हैं। इसके अतिरिक्त लोहा निर्माण करने वाली अगरिया जाति का निवास भी समीपस्थ ग्रामों में दिखाई देता है। इसकी पुष्टि समीपस्थ ग्रामों में निवासरत अगरिया जाति से होती है। प्राचीन काल की ग्राम निवास व्यवस्था में लौह अयस्क खनन करने वाले, अयस्क के लौह निकालने वाले एवं लौह से औजारों का निर्माण करने वाली जातियों के घर आस-पास ही होते थे।
हम जानते हैं कि अगरिया प्राचीन काल से ही लौह अयस्क को साफ़ करके लौह धातु का निर्माण कर रहे हैं। लौह निकालने की प्रक्रिया में लोहे को गलाने के लिए अयस्क में 49 से 56 प्रतिशत धातु होना अपेक्षित माना जाता है, किंतु अगरिया इससे कम प्रतिशत वाले लौह अयस्क का प्रयोग करते रहे हैं। लगभग 8 कि.ग्रा. अयस्क को 7.5 कि.ग्रा. चारकोल में मिश्रित कर भट्टी में डालते हैं तथा पैरों द्वारा चलित धौंकनी की सहायता से तीव्र आंच पैदा करते हैं। यह चार घंटे तक चलाई जाती है। इसके बाद आंवा की मिट्टी के स्तर को तोड़ दिया जाता है और पिघले हुए धातु पिंड को निकालकर हथौड़ों से पीटा जाता है।
लोहे के इतिहास पर एक दृष्टि
लोहे के इतिहास पर यदि नजर डालें तो युद्धों में मारक अश्त्रों का उपयोग ई.पू.2000 से 1000 के बीच से आरंभ है। प्राचीन इतिहासकार हेरोडोट्स लिखता है कि जेरेक्सेस की सेना के भारतीय योद्धा लोहे के बडे फलों वाले भाले से सुसज्जित थे। यानी भारतीय लोहे का सफर विदेशों तक तब भी हो रहा था. भारतीय लोहे की गुणग्राह्यता के संबंध में डब्लू.एच.शैफ नें द इस्टन आयरन ट्रेड आफ रोमन एम्परर में लिखते हैं कि प्राचीन रोम में तद्समय ज्ञात सर्वोत्तम किस्म के स्टील का आयात भारत से होता था। अयस्क को प्राचीन विधि से पिघलाकर बनाया गया लोहा तद्समय के बहुप्रतिष्ठित समाज के लिए सर्वोत्तम इस्पात रहा है और संपूर्ण विश्व में इस सर्वोत्तम इस्पात को बनाने वाले भारत के अगरिया रहे हैं। प्राचीन काल से भारत के लोहे का लोहा सारा विश्व मानता आया है।
अरबी इतिहासकार हदरीशीनें भी लोहे के उत्पादन में हिन्दुओं की प्रवीणता को स्वीकारते हुए इनकी गुणवत्ता के विषय में कहते हैं कि हिन्दुओं के द्वारा बनाई गई टेढी तलवारों को किसी अन्य तलवारों से मात देना असंभव था। उन्होंनें आगे यह भी लिखा कि हिन्दुस्तान में अयस्कों से लौह निर्माण व हथियार निर्माण करने के निजी कार्यशालाओं में विश्व प्रसिद्ध तलवारें ढाली जाती थी। एक और इतिहासकार चार्डिन कहते है कि पर्शिया के लडाकों के लिए बनने वाले तलवारों को ढालने के लिए भारतीय लोहे को मिलाया जाता था क्योंकि भारतीय लोहा पर्शियन के लिए पवित्र था और उसे श्रद्धा से देखा जाता था जिसे इतिहासकार डूपरे नें भी स्वीकार किया था।
भारत के लोहे तथा इस्पात की कई विशेषतायें थी। वह पू्र्णतया ज़ंग मुक्त थे। इस का प्रत्यक्ष प्रमाण पच्चीस फुट ऊंचा कुतुब मीनार के समीप दिल्ली स्थित लोह स्तम्भ है जो लग भग 1600 वर्ष पूर्व गुप्त वंश के सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के काल का है और धातु ज्ञान का आश्चर्यजनक कीर्तिमान है। इस लोह स्तम्भ का व्यास 16.4 इन्च है तथा वज़न साढे छः टन है। 16 शताब्दियों तक मौसम के उतार चढाव झेलने के पश्चात भी इसे आज तक ज़ंग नहीं लगा। भारत में लोहे का प्रयोग प्रचीन युग की ओर ले जाता है। वेदिक साहित्यिक स्रोत जैसा कि ऋगवेद, अथर्ववेद, पुराण, महाकाब्य में शान्ति और युद्ध में लोहे के गारे में उल्लेख किया गया है। ब्रिटेन की एक संस्था के अध्ययन के अनुसार भारत में 3000 वर्षों से भी अधिक समय से लोहे का प्रयोग हो रहा है।
सतगढ़ा के मातिनगढ़ में लौह उद्योग
प्राचीन अभिलेखों से ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ में अन्य स्थानों पर भी लौह अयस्क से लोहा निकालने का कार्य होता था। सतगढ़ा कही जाने वाली पेंड्रा, मातिन, उपरोड़ा, केन्दा, लाफ़ा, छूरी, कोरबा आदि जमीदारियों में लौह अयस्क एवं भूमिगत कोयले की प्रचूर मात्रा है। पेंड्रारोड़ से 75 किमी की दूरी पर मातिनगढ़ जमींदारी में वन एवं पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण खेती योग्य जमीन कम थी। अगरिया यहाँ से लौह अयस्क निकाल कर उससे लोहा निकालते और लोहारों को निर्माण कार्य के लिए उसे विक्रय कर देते थे। इस तरह मातिनगढ़ जमीदारी के संचालन के राजस्व की पूर्ती लौह उद्योग से होती थी।
उपसंहार
रामगढ़ का इतिहास हमें प्राचीन काल तक ले जाता है, जहां आदिमानव के निवास चिन्हों से लेकर वर्तमान तक की हमें झलक दिखाई देती है। लौह युग की पुष्टि के लिए यहाँ प्राप्त अवशेषों की जांच होने पर अन्य तथ्य भी निकल सामने आएंगे एवं इस स्थान की ऐतिहासिकता में वृद्धि होगी। उपलब्ध साक्ष्यों से इसमें कोई संदेह नहीं है कि यहाँ लौह निर्माण का कार्य होता था। रामगढ़ के शीर्ष पर निर्मित किले के अवशेषों द्वारा जानकारी मिलती है कि किसी समय यह सत्ता संचालन का केन्द्र हुआ करता था तथा राज्य की सुरक्षा के लिए आयूधों की आवश्यकता होती थी। अत: यहां परवर्ती काल में भी लौह का प्रसंस्करण उससे हथियार बनाए जाते रहे होगें। जिसके अवशेष हमें वर्तमान में भी प्राप्त हो रहे हैं। आज भी हमारे प्रदेश में भिलाई में एशिया का सबसे बड़ा लोहा कारखाना स्थापित है। इसके बाद प्रदेश अन्य हिस्सों में भी लोहे के कारखाने संचालित हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि यहाँ लोहा निकालने का कार्य प्राचीन काल से ही हो रहा है। इनमें एक स्थान रामगढ़ भी रहा है।
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1- अगरिया – लेखक – एल्विन वैरियर
2- सरगुजा का रामगढ़ – लेखक- ललित शर्मा
3 – छत्तीसगढ़ का इतिहास- लेखक – डॉ रामकुमार बेहार
4- छत्तीसगढ़ समग्र – लेखक – विभाष कुमार झा एवं सौम्या नैयर
5- स्मारिका – विष्णु महायज्ञ रतनपुर – 1943
6- विकिपीडिया (हिन्दी)
7- आरंभ (ब्लॉग) – संजीव तिवारी
8- ललित डॉट कॉम (ब्लॉग) – ललित शर्मा
9- परिचय के दर्पण में सरगुजा – डॉ लालचंद ज्योति
10- छत्तीसगढ़ की रियासतें – छत्तीसगढ़ राज्य हिन्दी ग्रंथ अकादमी
शोध आलेख
बहुत ही सुंदर लेखन, जितनी तारीफ करूँ कम ही है…