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दक्षिण कोसल के वनों की पहचान : साल वृक्ष

दक्षिण कोसल के वनों की पहचान साल यानी सरई, सखुआ और न जाने स्थानीय लोग इसे क्या-क्या नाम से जानते-पहचानते हैं। साल जिसका वैज्ञानिक नाम सोरिया रोबस्टा है। अपनी सैकड़ों खूबियों की वजह से आज यह वृक्ष न सिर्फ पवित्र माना जाता है, यह पूजनीय भी है। आदिकाल से यह मानव जाति के विकास की गाथा को आगे बढ़ाने के साथ आर्थिक मजबूती में भी अपनी सहभागिता देता चला आ रहा है। आज भले ही शहरों में रहने वाले युवा पीढ़ी पीपल, बरगद आंवला जैसे पेड़ों को पूजनीय समझते होंगे, लेकिन जो कभी जंगलों के आसपास रहे। जंगलो में गए। वे साल या सरई को भलीभांति जानते समझते हैं।

साल का वृक्ष छत्तीसगढ़ राज्य की पहचान है। इसलिए इसे छत्तीसगढ़ का राजकीय वृक्ष भी घोषित किया गया है। सरगुजा से लेकर बस्तर तक साल वृक्षों की न सिर्फ मौजूदगी है, अपितु पहाड़ियों के सुरक्षा घेरा के रूप में यह पवित्र वृक्ष जैव विविधता को संतुलित रखने में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहा है। छत्तीसगढ़ ही नहीं अन्य राज्यों में भी साल वृक्ष की संख्या वहा की एक जीवन रेखा की तरह है। मानसून को राह दिखाने से लेकर उसे गतिशील बनाने में साल वृक्ष की भूमिका को महत्वपूर्ण माना जाता है। सर्वाधिक औसत उम्र वाले साल वृक्ष को पवित्र मानने की वजहें भी बहुत होंगी। हमें भी समझना होगा कि हम उन्हीं वृक्षों की सेवा करते हैं, पूजा करते हैं जो हमारे लिए लाभदायक है।  

जनजाति समाज के लोगों की माने तो यह वृक्ष अकाल के समय अपने बीजों की संख्या बढ़ाकर अधिक पौधे उगाने में भी मदद करता है। यह अकाल को प्रभावित करता है। मौसम की मार सहने और विपरीत परिस्थितियों में भी खड़े रहने की क्षमताएं इन्हें और भी खास बना देता हैं। साल की अपनी विशिष्टता की वजह से जनजाति समाज इन्हें पूजता आया है।

सरई का फूल खिलते ही मध्य भारत में आदिवासी समाज द्वारा सरहुल का उत्सव उत्साह के साथ मनाया जाता है। अपनी विशिष्टता की वजह से भले ही साल वृ़क्ष की पूजा होती है, यह भी सच है कि इनकी अहमियत और उपयोगिता की वजह से साल के जंगल सिमटते जा रहे हैं। साल की लकड़ियों की मांग होने और उपयोगी होने की वजह से रेल पटरी के स्लीपर, फर्नीचर में इसका बहुतायत इस्तेमाल होने लगा था। जिस तरह देश की आजादी के लिए असंख्य लोग बलिदान हो गए उसी तरह अंधाधुंध विकास और साज सज्जा से लेकर मकान और लकड़ियों के सामान बनाने में सरई वृक्षों को अपनी बलिदानी देनी पड़ी। इस दौरान भी यह वृक्ष बहुतों के रोजगार से लेकर देश के विकास में काम आता रहा।

धरती को हरियाली और ठण्डक प्रदान करने वाले यह साल के वृक्ष प्राकृतिक रूप से अपने पौधों को उगाते आये हैं। जंगलों को घने जंगलों में बदल देने वाले साल वृक्षों के आसपास धरती के नीचे भारी मात्रा में लौह सहित अन्य अयस्क, खनिज भण्डार की मौजूदगी के प्रमाण है। असंख्य पशु-पक्षियों, कीडे़-मकोड़े को वास देने वाले साल वृ़क्षों के पत्तों में विशेष प्रकार की लाल चींटियों का भी वास होता है। बोड़ा व फुटू भी इन्हीं साल वृक्षों के नीचे प्राकृतिक रूप से पैदा होने वाले उपयोगी और कीमती खाद्य सामग्री है। बस्तर के इलाकों में अध्ययन कर क्षेत्र को नजदीक से समझने वाले डॉ. नरेश साहू का कहना है कि जनजाति समाज की अपनी संस्कृति और परम्परा है।

आदिकाल से वे जिन स्थानों पर निवास करते आए हैं, वहां पर उन्होंने पर्यावरण के साथ अपना सहजीवन स्थापित किया है। अपने आसपास बहने वाली नदियों, पर्वतों, पेड़-पौधों और जीव-जंतु को अपने जीवन का आधार मानते हुए प्रकृति की पूजा भी करते रहे हैं। साल जैसे वृक्ष वनाचंल की पहचान है। वैसे में स्वाभाविक है कि इनके आसपास रहने वाले जनजाति समाज साल की उपयोगिता की वजह से इन्हें देवतुल्य मानते हैं। बलरामपुर जिले के श्री बंसत कुजूर ने बताया कि बारिश के मौसम से पूर्व सरहुल का महोत्सव मनाकर प्रकृति व साल वृक्ष की पूजा करते हैं। साल बीज का उपयोग भी अलग-अलग कार्यों में होता है। जंगल में मिलने वाले फलों को खाने से पहले भी पूजा की जाती है।

वनवासियों की आमदनी का भी है बेहतर माध्यम
प्रदेश के 40 प्रतिशत से अधिक वन क्षेत्र साल के हैं। बस्तर में वनों का द्वीप साल को आदिवासी समाज कल्प वृक्ष और पूजनीय मानते हैं। यह जंगल में रहने वाले आदिवासियों के जनजीवन से जुड़ा है और इनसे उन्हें आधा दर्जन से अधिक उत्पाद इमारती और जलाऊ लकड़ी, दातून, दोना, पत्तल,साल बीज भी मिलते है जो इनकी आर्थिक आय का जरिया है। जनजातीय समाज आदिकाल से साल वृक्ष से जीवंत जुड़कर उनसे लाभ अर्जित करने के साथ अपनी संस्कृति और विकास गाथा में समाहित किए हुए हैं। सरहुल, गौर, करमा, सैला सहित अन्य नृत्य कर वे अपनी संस्कृति और परम्परा को भी आगे बढ़ाते चले आ रहे हैं।

गाँव के लोग करते है पूजा ऐतिहासिक साल वृक्ष की
छत्तीसगढ़ में साल वृक्षों की पूजा आदिकाल से होती आ रही है। कोरबा जिले में जल,जंगल और विपुल मात्रा में खनिज संसाधन मौजूद है। यहाँ राज्य के सबसे प्राचीन साल वृक्ष की पहचान भी की गई है। डुबान क्षेत्र सतरेंगा के पास लगभग 1400 से 1500 साल के बीच आयु वाले साल वृक्ष की पहचान वन विभाग द्वारा विशेषज्ञों के माध्यम से की गई है। इस महावृक्ष की लंबाई 28 मीटर से अधिक है। आसपास के ग्रामीण किसी प्रकार के शुभ कार्यों में भी इस वृक्ष की पूजा करते हैं। कोरबा के ग्राम मातमार में भी लगभग 1 हजार साल पुराने साल वृ़क्ष का पता लगाया गया है। धमतरी जिले के दुगली में भी लगभग 418 साल पुराना वृक्ष है। जिसे मदर ट्री और सरई बाबा के रूप में पहचाना जाता है। वन विभाग द्वारा इन वृ़क्षों को संरक्षित करने सुरक्षा का आवश्यक प्रबंध भी किया गया है। छत्तीसगढ़ ही नहीं देश के कई हिस्सों में जनजातीय समाज सहित अन्य समुदाय के लोग भी आदिकाल से साल जैसे वृ़क्षों की पूजा करने के साथ अपनी खुशियों को इन वृक्षों के आसपास नृत्य के माध्यम से व्यक्त करते हैं।

साल के वृक्षों से बने जैतखाम की होती है पूजा
साल अथवा सरई के वृक्ष की लकड़ियों से तैयार जैतखाम की पूजा भी सैकड़ों वर्षों से होती आ रही है। बाबा संत गुरूघासी दास के संदेश को जीवंत करते हुए सतनाम का संदेश देने वाले जैतखाम की स्थापना छत्तीसगढ़ के सभी जिलों में की गई है। समाज के जानकारों का कहना है कि सरई के वृक्ष की लकड़ी से तैयार जैतखाम की स्थापना कर वे अपने गुरू बाबा की पूजा अर्चना करते आ रहे हैं। हालांकि कुछ वर्षों से पर्यावरण संरक्षण का ध्यान रखते हुए लकड़ी की जगह सीमेंट से जैतखाम तैयार किया जा रहा है। प्रदेश में अनेक जैतखाम आज भी मौजूद है जो सरई की लकड़ियों से तैयार हुए है। सरई वृक्ष की महत्ता और आस्था समाज के लोगों में बनी हुई है।
 
पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं साल के घने जंगल
सरगुजा से लेकर बस्तर तक फैले साल के घने जंगलों से प्रदेश की जलवायु शांत और शीतल बनी रहती है। साल के हरे-भरे जंगलों से दूर तक हरियाली नजर आती है। बाहर से आने वाले पर्यटक जब रास्तों से गुजरते हुए साल के घने जंगलों को देखते हैं तो उन्हें एक अलग सुखद अनुभूति होती है

क्षेत्र के अनुसार साल का है अलग-अलग नाम
साल का वानस्पतिक नाम शोरिया रोबस्टा है। भारत के विभिन्न राज्यों में इस वृक्ष को अलग-अलग नाम से जाना जाता है। संस्कृत में साल को अर्श्वकर्ण, साल, कार्श्य, धूपवृक्ष, सर्ज, हिन्दी में शालसार, साल, साखू, सखुआ, उर्दू में राल, अंग्रेजी में कॉमन शाल, इण्डियन डैमर ओड़िया में सगुआ, सलवा, कन्नड में असीन, गुग्गुला, काब्बा, गुजराती में राल, राला, तेलगु में जलरि चेट्ट, सरजमू, गुगल, तमिल में शालम, कुंगिलियम, अट्टम, बंगाली में साखू, साल, सलवा, शालगाछ, तलूरा, पंजाबी में साल, सेराल, मराठी में गुग्गीलू, सजारा, राला, रालचा वृ़क्ष, मलयालम में मारामारम, मूलापूमारूत के नाम से जाना जाता है।

मैं साल हूँ, साल दर साल जंगलों में खड़ा बेमिसाल हूँ। मैंने देखा है वक़्त के साथ बहुत कुछ बदला। मैंने भी अपनी शाखाएँ बदली, पत्ते बदले, लेकिन टिका रहा एक ही जगह पर, तब तक जब तक कोई मुझे अपनी जरूरतों के मनमुताबिक ले नहीं गया। मैं साल हूँ। लू के थपेड़ों को सह लेने की शक्ति भी है मुझमें और जड़ से लेकर आकाश की ओर निहारतीं पत्तों की शाखाओं में चींटियों से लेकर पंछियों तक का मुझ पर बसेरा है। मैं जहाँ भी हूँ, जैसा भी हूँ… लिए हुए मुस्कान हूँ। न जानें कितनी पीढियां गुजर गई है। बहुत से लोग आए और चले गए। मैं उनके जीवन का जैसे हिस्सा बन गया। सबके काम आया। मैं किताब के पन्नों की तरह खुला हुआ था। जिन्होंने भी इन पन्नों को पढ़ा, वे मुझे समझते गए। मैं उनकी संस्कृति का भी हिस्सा बन गया। मुझे उन्होंने अपने सुख-दुख में शामिल कर रहन-सहन, तीज-त्यौहार से भी जोड़ दिया। मैं ही विकसित संस्कृति तो कहीं परम्परा की पहचान हूँ। मैं विकास की गाथा में शामिल अनगिनत कहानियों की दास्तान और मिसाल हूं। मैं साल हूँ। बेमिसाल हूँ…

आलेख

जन सम्पर्क विभाग छत्तीसगढ़
 

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