बैगा जनजाति भारत के मध्य प्रांतर क्षेत्र की प्रमुख जनजाति है, ये अपने पहनावे, खान-पान, तीज-त्यौहार, आवास-व्यवहार अपनी विशिष्ट पहचान रखते हैं। छत्तीसगढ़ अंचल में ये कवर्धा जिले एवं उसके अगल-बगल के जिलों में निवास करते हैं तथा इनका विस्तार छत्तीसगढ़ की सीमा से लगे हुए मध्यप्रदेश के कुछ जिलों तक हो जाता है। बैगा अपनी प्राचीन संस्कृति को अभी तक जी रहे हैं।
बैगा जनजाति के लोग वृक्ष की पूजा करते हैं तथा बूढ़ा देव एवं दूल्हा देव को अपना देवता मानते हैं। बैगा झाड़ फ़ूंक एवं जादू टोना में विश्वास करते हैं। इनका पहनावा अल्प ही होता है। बैगापुरुष मुख्य रुप से लंगोटी और सिर पर गमछा बांध लेते हैं तो स्त्रियां एक साड़ी एवं पोलखा का प्रयोग करती हैं। वर्तमान में बदलाव भी आया है और नवयुवक शर्ट-पेंट तथा नवयुवतियाँ सलवार-कुर्ता आदि पहनते हैं।
बैगाओं के आभुषण एवं गोदना इनकी मुख्य पहचान हैं। गोदना का इनकी संस्कृति में महत्वपूर्ण स्थान है। बैगा महिलाएं शरीर विभिन्न हिस्सों में गोदना गुदवाती हैं। बैगाओं प्रमुख व्यवसाय वनोपज संग्रहण, पशुपालन, खेती तथा ओझा-गुनिया कार्य है। पहले ये सघन वन कंदराओं में निवास करते थे, परन्तु अब मैदानी इलाके में घर बनाकर खेती करते हैं।
बैगा जनजाति त्यौहार भी धूम-धाम से मनाती है। हम होली के पर्व का जिक्र करते हैं, होली का त्यौहार बैगा समुदाय होली जलाने के बाद तेरह दिन तक मनाता है। जिसमें फ़ाग गायन एवं नृत्य प्रमुख रुप से सम्मिलित होता है। होली के त्यौहार के बाद बैगा समुदाय फ़ाग नृत्य करता है और विभिन्न गांवों में जाकर ये फ़ाग गीत गाते हुए नृत्य करते हैं।
इनके नृत्य के दो प्रमुख पात्र होते हैं, जिन्हें गिजजी और खेखड़ा कहा जाता है। पुरुष के पहने जाने वाले मुखौटे को खेखड़ा तथा स्त्री के पहने जाने वाले मुखौटे को गिजजी कहा जाता है। इन नृत्य में स्त्री एवं पुरुषों के दो दल होते हैं। स्त्री दल की मुखिया गिजजी होती है तथा पुरुष दल का मुखिया खेखड़ा। वर्तमान में ये बाजार में मिलने वाले मुखौटे धारण करने लगे हैं। जबकि पूर्व में सेमर की लकड़ी के मुखौटे बनाए जाते थे। जो अब यदा-कदा दिखाई दे जाते हैं।
इस नृत्य को गिज्जी-बिज्जी नृत्य कहा जाता है। यह नृत्य हर गांव में होता है, जिसकी सूचना बैगा लोगों को ही रहती है। शहरी लोगों को इसकी सूचना नृत्य होने के बाद या विलंब से होती है क्योंकि इनका नर्तक दल एक गांव से दूसरे गांव में अचानक पहुंच जाता है।
इनके नृत्य बिना शृंगार के नहीं होते, शृंगार करके ही बैगा युवक-युवतियाँ नृत्य करते हैं। जिसने शृंगार नहीं किया है उसे नृत्य में सम्मिलित नहीं किया जाता है। स्त्री एवं पुरुष अपना-अपना शृंगार पृथक रुप से करते हैं। पुरुष घेरदार घाघरा पहनते हैं, इसके साथ कमीज सलूखा तथा काली जाकेट धारण करते हैं। सिर पर पगड़ी तथा उसमें मोर पंख की कलगी, गले में विभिन्न रंगों की मालाएं धारण करते हैं।
इसके साथ ही गिलट या पीतल के सिक्कों की हमेल, कानों में मुंगे की बालियाँ पहनते हैं। कमर में रंगबिरंगा सुरवार और पैरों में लोहे तथा पीतल के पैजन, पीठ पर लाल, नीला छींट का पिछोरा बांधना बैगा नवयुवक नहीं भुलता। उनके हाथों में ठिसकी रहती है। पूर्ण रुप से शृंगार किया हुआ बैगा नवयुवक किसी दुल्हे से कम दिखाई नहीं देता।
बैगा स्त्रियाँ शृंगार प्रिय होती है तथा नृत्य के लिए अधिक सजती संवरती हैं। शरीर पर मुंगी धोती धारण करती हैं। बालों को सजाने के लिए सिर के जुड़े में मोर पंख की कलगी धारण करती हैं। बगई घास या बीरन घास के छोटे-छोटे छल्लों को मिलाकर बनाया गया सांकल नुमा लादा का गुच्छा जुड़ा में बांधती हैं, जो कमर तक लटकता रहता है।
ये छोटी-छोटी गुरियों की माला स्वयं तैयार करती है, कानों में तरकुल एवं मुंगे की माला पहनती है तथा हाथों में गिलट के चुड़े, पतेले, अंगुलियों में मुंदरी, पैरों में कुसकुट की बनी तीन धारनुमा पैरी या पायजेब, पैरों की अंगलियों में दो-दो चुटकी पहनकर नृत्य में सम्मिलित होती हैं।
नृत्य के दौरान निम्नलिखित गीत गाती हैं, जो उत्साह एवं उमंग का गीत होता है।
तरी नानार नानी, तरी नानार नानी,
तर नार नानी, खेल रे गजबेल खेलन हम रे।
केखर आँगन झलरी,
केखर आँगन झलरी,
केखर छीतल छाय… खेल रे…
राजा के आँगन झलरी
राजा के आँगन झलरी ,
रानी क छीतल छाय …खेल रे…
दे हो सास कुदरी,
दे हो सास कुदरी,
हम हड्द खनन जान..खेल रे
दे हो सास मुसरी,
दे हो सास मुसरी,
हम हड्द कटन जान…खेल रे
दे हो सास मुसरी,
दे हो सास सुपरी,
हम हड्द पछनन जान..खेल रे
दे हो सास खोरली ,
दे हो सास खोरली,
हम हड्द खेलन जान…खेल रे।
तरी नानार,तर नार नारी,
खेल रे गजबेल खेलन हम रे।।
इस तरह बैगा जनजाति नृत्य गान के साथ होली का उत्सव मनाती है। इनके नृत्य में कदम ताल सधे हुए होते हैं तथा एक दूसरे से जुड़कर सामुहिक नृत्य करते हैं, जो मांदर की ताल के अनुसार धीमा एवं तेज होता है। कुल मिलाकर बैगा जनजाति त्यौहारों के आनंद लेने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखती।
शब्दार्थ – बन्दानी-गाने प्रारंभिक धुन, बनोरा-जुड़े में लगी माला, डाँग-झाल जो मोर पंख से बनाई जाती है जिसे बाँस में बाधा जाता है, हेलर-हिलना डुलना, केखर-किसके, झलरी-झिल मिल, छीतल-शीतल, कुदरी-कुदाली, हड्द-हल्दी, मुसरी-मूसल, सुपली-सुपा, खोरली-कटोरा, गजबेल-पिचकारी,
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