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छत्तीसगढ़ की भुंजीया जनजाति और उनका रामायणकालीन संबंध

प्राचीन काल से ही भारत में जनजातियों का अस्तित्व रहा है। प्रागैतिहासिक काल से लेकर ऐतिहासिक काल और आधुनिक काल में वर्तमान समय तक जनजातीय संस्कृति की निरंतरता दिखाई देती है। आरण्यक जीवन, फिर ग्रामीण संस्कृति और कालांतर में नगरीय सभ्यता का उद्भव इन सबका एक क्रमिक विकासक्रम दिखाई देता है। यह कहने में अतिशयोक्ति नहीं होगी की प्राचीन काल में हम सब इन्ही जनजातीय जीवन शैली के अभिन्न अंग थे, जो शनै: शनै: सभ्यता के विकास के साथ ही परिवर्तित होते चले गए। जनजातियों की अद्भुत संस्कृति और नैसर्गिक जीवन शैली ने हमें सदैव अपनी ओर आकर्षित किया है। प्रत्येक समाज की भाँति जनजातीय समाज भी स्थिर नहीं वरन् गतिशील रहा है लेकिन उनमें परिवर्तन की गति धीमी दिखाई देती है।

रसोई घर जिसे वे “लाल बंगला” कहते हैं वह बेहद साफ सुथरा होता है इसे लाल गेरू से पोता जाता है। ये अपने रसोई घर के छाजन के लिए जंगली घांस का उपयोग करते हैं। भुजियां अपने देवताओं की मूर्तियां नहीं बनाते, इनका यह विश्वास है कि लाल बंगले के अन्दर बने मिट्टी के चबूतरे में ही उनके देवताओं की आत्माएं निवास करती हैं।
उनकी रसोई सीता जी की ‘पर्ण कुटी’ है। वे कहते हैं कि जब श्रीराम चन्द्र जी सीता जी के कहने पर स्वर्ण मृग के पीछे चले जाते हैं और थोड़ी देर के बाद जंगल में उनका आहत् स्वर सुनकर व्याकुल सीता माता लक्ष्मण जी को राम जी की सहायता के लिए जंगल में भेज देती है तो लक्ष्मणजी जाते – जाते कुटीर के बाहर तीन रेखाएं खिंच कर जाते हैं। लेकिन जब दोनों भाई लौट कर आते है तो वहां सीताजी के अपहरण के पश्चात् दो
जनजाति महिलाएं मिलती हैं, जो सीताजी की खोज में रामजी की सहायता करती हैं। श्रीराम जी जब जंगल से जाने लगते हैं तो उनमें से एक जनजाति महिला को अपनी कुटियां सौंप जाते हैं। वह महिला भुंजिया
जनजातिकी ही रहती है .

डी.एन. मजूमदार के अनुसार “जनजातीय परिवारों या परिवार समूह का एक सामान्य नाम होता है, ये एक ही भू-भाग में निवास करते हैं, एक ही भाषा बोलते हैं तथा विवाह एवं उद्योग धंधों में एक ही प्रकार के नातों को निसिद्ध मानते हैं। एक दूसरे के साथ व्यवहार के संबंध में भी ये लोग अपने पुराने अनुभव के आधार पर ही कुछ निश्चित नियम बना लिए है। 

इसी परिप्रेक्ष्य में जब हम छत्तीसगढ़ की बात करते है तो ज्ञात होता है कि छत्तीसगढ़ भी जनजातीय बहुल प्रदेश  है। छत्तीसगढ़ में अनेक जनजातियां एवं उप – समूह विभिन्न भागों में निवास करती है। प्रदेश में इनका वितरण असमान है। छत्तीसगढ़ के उक्त प्रतिवर्णी समाज के आटविक गणराज्य की अवधि में दो स्तर थे 1. आरण्यक जो सामान्य प्रजाजन थे तथा 2. आटविक जो जूझारू आरण्यक थे। प्रत्येक जनजाति की अपनी प्रजाति, भाषा, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक तथा आर्थिक विशेषताएं हैं। इनकी जीवन पद्धति एवं सामाजिक मर्यादाएं विशिष्ठ है। इसके विशिष्ठ रीति – रिवाज, आचार – विचार, रहन – सहन सदैव हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करते हैं।

इस प्रकार जनजातियों के परिप्रेक्ष्य में छत्तीसगढ़ की भुंजिया जनजाति का अपना विशिष्ट स्थान है। माना जाता है कि इनकी उत्पत्ति गोंड़ों से हुई है। छत्तीसगढ़ में पायी जाने वाली इस जनजाति की संख्या कम है, गरियाबंद जिले में इनकी प्रधानता है। भुंजिया जनजाति तीन प्रकार के होते हैं – खुलरीहा, चिण्डा एवं चौखुड़िया।

 गोंड़ों की तरह भुंजिया के गोत्र भी मरकाम, नेताम इत्यादि होते हैं। इनकी भाषा सीधी –  साधी है। ये सीधे एवं ईमानदार होते हैं। भुंज कर खाने के कारण इस जनजाति का नाम भुंजिया पड़ा। ये पहाड़ों पर घिरे वनों में निवास करते हैं। इस जनजाति के पहनावे में पुरूष धोती, बनियान, कुर्ता, गमछा आदि पहनते हैं, स्त्रियां केवल लुगड़ा पहनती हैं। वक्ष प्रायः खुले रहते हैं। इनमें पाती, दीवान एवं पुजेरी प्रमुख होते हैं। इनका मुख्य भोजन चावल है। ये शराब पीते हैं, भुजियां कृषि पर निर्भर रहते हैं। इनमें सगोत्री विवाह नहीं होते तथा बाण विवाह लोकप्रिय माना जाता है। इनमें नेताम तथा मरकाम गोत्रों में विवाह होते हैं।

इनमें शव को दफनाने की प्रथा है। ये जादू-टोना, झाड़ फूक में अधिक विश्वास करते हैं। कछुऐं को विशेष महत्व देते है तथा इसे पूज्य मानते हैं। इनका मानना है कि पृथ्वी कछुवे की पीठ पर टीकी है। संभवतः भुंजिया जनजातीय समूह, देश का एक मात्र ऐसा जनजातीय समूह होगा जो कि अपनी कन्या का दो बार विवाह कराता है। जैसे कि आम धारणा है कि लड़की पराया धन होती है और अगर मासिक धर्म होने के पूर्व कन्यादान हो जाए तो पिता को पूण्य मिलता है। इस विचार को ध्यान में रखकर भुंजिया जनजाति के लोगों में एक अद्भुत रिवाज विद्यमान है जिसको ये लोग कांड़ाबाड़ा’ कहते हैं। कांड़ाबाड़ा यानि लड़की का पहला विवाह और वह भी तीर के साथ। जिसमें बकायदा कन्या का कन्यादान होता है, फेरे पड़ते हैं, नाच गाना होता है, शराब पी जाती है, रातभर विवाह का माहोल रहता है।

पूरे समूह के भोजन की व्यवस्था होती है। जनजतीय विवाह में जितने रस्मो – रिवाज होते हैं वे सारे रिवाज कांड़ाबाड़ा में भी निभाए जाते हैं। तीर के साथ विवाह करने में इनकी मान्यता है कि तीर उनके सम्मान का रक्षक है, देवता का प्रतीक है, वह हमारी कन्या की हर तरह से रक्षा करेगा। उस तीर को भुंजियां जनजाति के लोग दूसरा विवाह होने तक सम्भाल कर रखते हैं तथा उसका किसी प्रकार से उपयोग नहीं करते। दूसरे विवाह के बाद उस तीर को नष्ट कर देते हैं या शिकार के लिए उपयोग करने लगते हैं। दूसरा विवाह कभी भी हो सकता है। भुंजिया जनजाति के लोग अपनी लड़की का विवाह 15 – 18 साल की आयु में कर देते हैं। कहीं – कहीं बाल विवाह भी होते हैं।

इस जनजाति के लोग अतिथि का सत्कार बड़े ही आदर भाव से करते हैं। ये अतिथि को अपने घर पर सभी स्थानों में घूमने की अनुमति तो देते हैं परन्तु इनके घर के आंगन के बीच में बनी छोटी सी कुटिया अपने ‘ रसोई घर ‘ के पास फटकने भी नहीं देते, जिसे उनकी जाति में ‘लाल बंगला’ या ‘रांधा खोली कहते हैं। कुटिया से दूरी बनाए रखने हेतु एक व्यक्ति लगातार उसके पास नही जाने की चेतावनी देते रहता है। भूलवश कोई बाहरी व्यक्ति उस कुटिया को छू भी ले तो उसे तत्काल तोड़कर उनके द्वारा नया रसोई घर बनाया जाता है। यह कुटिया उनका रसोई घर होता है जहाँ ये अपना भोजन बनाते हैं। लेकिन इसका महत्व केवल इस बात से नहीं है कि वहाँ भोजन बनता है बल्कि इस बात से है कि वहाँ भुंजिया लोगो के सारे देवता निवास करते हैं। रसोई घर के अन्दर चूल्हे के बाजू में एक छोटा सा चबूतरा बना होता है जिसमें उनके सारे देवता रहते हैं।

भुंजिया जनजाति का रसोई घर ‘ ‘लाल बंगला’

यदि इनकी अपनी सगी बहिन – बिटिया भी विवाह के पश्चात् अपने मायके आये तो उन्हें भी उस कुटिया को छूना वर्जित होता है। उन्हें अपना भोजन स्वयं बना कर खाना पड़ता है, उस घर के लोग उन्हें केवल कच्चे अनाज उपलब्ध कराते हैं। उनका रसोई घर जिसे वे “लाल बंगला” कहते हैं वह बेहद साफ सुथरा होता है इसे लाल गेरू से पोता जाता है। ये अपने रसोई घर के छाजन के लिए जंगली घांस का उपयोग करते हैं। भुजियां अपने देवताओं की मूर्तियां नहीं बनाते, इनका यह विश्वास है कि लाल बंगले के अन्दर बने मिट्टी के चबूतरे में ही उनके देवताओं की आत्माएं निवास करती हैं।

शायद यही वजह है कि वे रसोई घर में भोजन ग्रहण नहीं करते बल्कि बाहर बरोढे या छप्पर के नीचे बैठ कर भोजन ग्रहण करते है। महिलाएं पुरूषों के साथ भोजन नहीं करती बल्कि ‘रांधा खोली’ के बाहर सायवान के नीचे बैठकर अपना भोजन ग्रहण करती हैं। इसके अतिरिक्त एक और महत्वपूर्ण बात है कि रसोई घर में आग माचिस से नहीं जलाई जाती, न ही जलती हुई लकड़ी या अंगार ले जाए जाते हैं। ये लोग ‘कोपले’ को जला कर घांस पर रखते हैं और जब अच्छा ‘लुक्का’ बन जाए तब भीतर ले जाते हैं। भुजियां समाज में कुछ बुजुर्गों से यह जानकारी मिलती है कि ‘रांधाखोली’ में बाहरी व्यक्ति के प्रवेश को लेकर जो प्रतिबंध है उसके पीछे यह अवधारणा है कि उनकी रसोई सीता जी की ‘पर्ण कुटी’ है। वे कहते हैं कि जब श्रीराम चन्द्र जी सीता जी के कहने पर स्वर्ण मृग के पीछे चले जाते हैं और थोड़ी देर के बाद जंगल में उनका आहत् स्वर सुनकर व्याकुल सीता माता लक्ष्मण जी को राम जी की सहायता के लिए जंगल में भेज देती है तो लक्ष्मणजी जाते – जाते कुटीर के बाहर तीन रेखाएं खिंच कर जाते हैं।

लेकिन जब दोनों भाई लौट कर आते है तो वहां सीताजी के अपहरण के पश्चात् दो जनजाति महिलाएं मिलती हैं, जो सीताजी की खोज में रामजी की सहायता करती हैं। श्रीराम जी जब जंगल से जाने लगते हैं तो उनमें से एक महिला को अपनी कुटियां सौंप जाते हैं। वह महिला भुंजिया जनजाति की ही रहती है और तब से उनकी यह मान्यता है कि हमारी ‘रांधाखोली’ ही वह ‘पर्ण कुटीर’ है जो हमारे लिए पवित्र है और हम इसे कभी भी किसी दूसरे के हाथों अपवित्र नहीं होने देंगे। पूर्व में पूरी जनजाति जंगली, कंदमूल तथा फल – फूल पर आधारित थी। अक्षर ज्ञान के बावजूद भुंजिया जनजाति के लोग आज भी खाट पर नहीं सोते, महिलाएं नंगे पांव रहती हैं तथा बाजार जाते या जंगलों में वनोपज इकट्ठा करते हुए कुछ खाने की इच्छा होने पर भी ये महिलाएं घर से बाहर कुछ भी नहीं खा सकती हैं।

यदि कोई महिला इस नियम को तोड़ती हैं तो उन्हें सामाजिक दण्ड भोगना पड़ता है। यदि ध्यान से देखा जाए तो भुंजिया जनजाति में पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं के ऊपर बंदिशें अधिक होती है। पुरूष पांव में जूते पहन सकते हैं, बाहर खा, पी सकते है और रंगीन कपड़े भी पहन सकते हैं जबकि महिलाएं रंगीन कपड़े नहीं पहन सकती। वे लाल रंग से पूरी तरह से प्रतिबंधित होती है। महिलाएं केवल सफेद साड़ी ही पहनती हैं। रंगीन कपड़े न पहनने के पीछे ऐसी मान्यता है कि ‘ बूढ़ी दाई’ जो  इनकी कुल देवी है उनका रुष्ट होना बताया गया है।

भुंजिया जनजाति की महिला

जनजातियों की हर बंदिशों के पीछे उनके देवी – देवताओं के नाराजगी का डर बुरी तरह होता है। भुंजिया जनजाति शिकार के शौकीन होते हैं। तीर कमान उनके कंधे की शोभा होती है। प्रत्येक घर में तीर कमान और कुल्हाड़ी विशेष रूप से पाया जाता है। इनका मुख्य त्यौहार दशहरा है। प्रति वर्ष दशहरे के अवसर पर बड़ी पंचायत होती है, जिसमें केवल पुरूष ही हिस्सा लेते हैं। ये अपने साथ अपना भोजन बांधकर ले जाते हैं। पंचायत आपसी झगड़ों का निपटारा करने के साथ – साथ नए पुराने फैसले भी करती है। समाज के हित में दो दिन अच्छा मेला होता है। भुंजिया बोली में मराठी, हल्बी और उड़िया भाषा के शब्दों का मिश्रण पाया जाता है। इस प्रकार भुंजिया जनजाति के रहन – सहन तथा सामाजिक, धार्मिक मान्यताओं के आधार पर हम कह सकते हैं कि छत्तीसगढ़ अंचल की जनजातीय संस्कृति में इनका अपना विशिष्ट स्थान है।

संदर्भ :-

1. उपाध्याय, जया शंकर पाण्डेय, गया, जनजातीय विकास की अवधारणा म.प्र.हिन्दी ग्रन्थ अकादमी 2002.
2. श्रीवास्तव, प्रदीप, मुखर्जी, भवानी, एम., भारत का जनजातीय जीवन (मानव शास्त्र भाग -1), 1999.
3. शुक्ल, हीरालाल, छत्तीसगढ़ का जनजातीय इतिहास म.प्र. हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, 2003.
4. तिवारी, विजय कुमार, छत्तीसगढ़ की जनजातियां, हिमालय पब्लिशिंग हाऊस दिल्ली, 2001.
5. यादव, कुमारी शोभा, हमारा छत्तीसगढ़, शारदा प्रिंटर्स, रायपुर, 2000.

डॉ. शुभ्रा रजक तिवारी
संपादक – दक्षिण कोसल टुडे

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