अक्षय का अर्थ है, कभी न मिटने वाला, कभी न खत्म होने वाला। इसलिए इस दिन जो भी कार्य किया जाता है वह फ़लदाई होता है। इस दिन को इतना पवित्र माना जाता है कि अक्षय तृतीया के दिन कोई भी मांगलिक कार्य किया जा सकता है। ग्रामीण अंचल में इस दिन विवाहों की धूम रहती है। गांव-गांव में मुहरी एवं दफ़ड़ा बाजा की जुगलबंधी सुनाई दे जाती है, इसके साथ गुड्डे-गुड़िया के विवाह की धूम रहती है।
अक्ति तिहार छत्तीसगढ़ का प्रमुख कृषक त्यौहार है। अंचल में अक्ति तिहार से खेती-किसानी का प्रारंभ हो जाता है। अक्ति माने अक्षय तृतीया, यह बैशाख मास शुक्ल पक्ष की तृतीया को मनाया जाने वाला त्यौहार है। वैसे तो यह त्यौहार पूरे भारत में मनाया जाता है। इसके मनाने के पीछे कई प्राचीन मान्यताएं हैं।
मान्यता है कि इस दिन भगवान ब्रह्मा के पुत्र अक्षय कुमार का जन्म हुआ था, भगवान विष्णु के दशावतारों में से एक भगवान परशुराम का जन्म दिवस माना जाता है। अक्षय तृतीया के दिन ही सतयुग का प्रारंभ माना जाता है। इसी दिन वेद व्यास जी ने भगवान गणेश के साथ महाभारत की रचना प्रारंभ की थी तथा सुग्रीव का जन्म भी इसी दिन माना जाता है।
छत्तीसगढ़ के ग्रामीण अंचल में प्रमुख देवता ठाकुर देवता को माना जाता है। वैसे तो अन्य त्यौहारों में भी ठाकुर देवता की पूजा की जाती है, परन्तु अक्ति के दिन विशेष पूजा की जाती है। इस दिन सभी किसान पलाश के पत्ते के दोने में धान लेकर गांव के बैगा के साथ ठाकुर देवता में पहुंचते हैं। परसाद के लिए महुआ, गेहूं, लाखड़ी, या अन्य धान्य के साथ चीला रोटी भी बना कर ले जाते हैं। यहाँ पहुंच कर सभी के दोने के धान को मिला दिया जाता है।
ठाकुर देवता को होम धूप देकर प्रसाद अर्पण किया जाता है उसके पश्चात बैगा बच्चों को बुलाकर उनकी पूजा करते हैं, उसके बाद वे बच्चे खेत जोतने, फ़सल बोने, उसमें पानी छिड़कने, काटने एवं मींजने, उड़ाने एवं कोठार में रखने का नाटक करते हैं। इसके पीछे आगामी वर्ष की अच्छी फ़सल की कामना होती है।
इसके पश्चात बैगा किसानों को उसी पलाश के दोने में धान रखकर लौटा देता है, जिसे लेकर किसान घर पहुंचता है। घर की गृहलक्ष्मी लोटा में जल लेकर दोने के धान में छिड़कती है उसके पश्चात पूजा करके उस दोने को घर में ले जाया जाता है। शाम को किसान खेत में होम धूम देकर दोने में लाया हुआ धान बोते हैं।
शहरों में तो मिट्टी का घड़ा कभी भी खरीद कर लोग पानी पीना शुरु कर देते हैं, परन्तु ग्रामीण अंचल में यह परम्परा आज भी जीवित है कि इस दिन से नये घड़े का जल पीना प्रारंभ किया जाता है। इससे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में गर्मी का मौसम अक्ति के दिन से प्रारंभ होता होगा तभी किसान आज भी अक्ति के दिन नये घड़े के जल को पीने की परम्परा का निर्वहन करते हैं।
अक्ति का त्यौहार इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन पितरों का पिंड दान किया जाता है, जिनकी मृत्यु हो चुकी है उन्हें पितर कुल में मिलाने का कार्य भी इसी दिन होता है। इस दिन पितर कुल में मिले हुए को फ़िर आगामी पितृपक्ष में पिंड दान दिया जाता है, अन्य पितरों के साथ उसका भी तर्पण किया जाता है।
अक्षय तृतीया के दिन गुड्डे-गुड़ियों का विवाह जग प्रसिद्ध है, इस दिन छत्तीसगढ़ सहित भारत के अन्य प्रदेशों में गुड्डे-गुड़िया का विवाह किया जाता है। इसके पीछे लोकमंगल की कामना ही कार्य करती है। पहले गुड्डे-गुड़ियों का निर्माण घर पर ही किया जाता है, वर्तमान में बाजार में सुंदर-सुंदर गुड्डे गुडिया एवं उनके परिधान के साथ विवाह की सामग्री भी मिल जाती है।
भले विवाह गुड्डे गुड़िया का हो परन्तु घर में उत्साह विवाह जैसा ही होता है। गुड्डा-गुड़िया के विवाह से बच्चों को गृहस्थी की सीख मिलती है। आने वाले समय में वे कुशल माता-पिता बनकर अपनी संतति, परिवार एवं समाज के प्रति अपने दायित्यों का निर्वहन सफ़लता के करें, इसकी शिक्षा गुड्डे-गुड़िया के विवाह से प्राप्त होती है। समझा जाए तो यह समाज के लिए उत्तम नागरिक बनाने की प्रक्रिया है।
इस तरह समस्त अंचल में अक्ति तिहार (अक्ष्य तृतीया) धूम धाम से मनाया जाता है। भले ही हम आधुनिक युग के भौतिक प्रपंचों में उलझकर परम्पराओं को छोड़ रहे हैं, परन्तु इस तरह परम्परा का निर्वहन भी हमें अपनी माटी से जोड़ता है। अपनी संस्कृति से जोड़ता है, अपने पुरखों से जोड़ता है, अपने इतिहास एवं समाज से जोड़ता है, इसलिए परम्परागत त्यौहारों को हमें नहीं भूलना चाहिए।
आलेख
ये त्यौहार और परंपराएं हमारे जीवन में ताजग़ी और उल्लास का संचार करते हैं, सचमुच! हमें अपनी माटी से जोड़ते हैं। शानदार आलेख….