भारत में पितृ पूजन एवं तर्पण की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है, विभिन्न ग्रथों में इस पर विस्तार से लिखा भी गया है और पितृ (पितरों) के तर्पण की जानकारी मिलती है। सनातन समाज में अश्विनी मास के कृष्ण पक्ष प्रतिपदा तिथि से अमावस्या तक पितृपक्ष मनाया जाता है। वनवासी एवं नगरवासी दोनों समुदाय पितरों का तर्पण समान रुप से करते हैं। इसी तरह सरगुजा अंचल के कई वनवासियों समुदायों में पितृ पक्ष मनाने के चलन है
वनवासियों का रहन-सहन, वेशभूषा, खान-पान भले ही भिन्न हों परन्तु धार्मिक परम्पराएं सनातन से जुड़ी हुई हैं। पहाड़ की वादियों में बसने वाले इन वनवासियों में मूलतः कोरवा, पंडो, उरांव, कंवर, गोंड, मझवार बिझवार, धनुहार, खैरवार, इत्यादि वनवासियों के जन्म से लेकर मृत्यु तक के संस्कार भले ही पृथक दिखाई देते हों परन्तु इन परम्पराओं में सनातन परम्परा समाई हुई है। ये अपने पूर्वजों से मिली विरासत को आज भी अपने कुनबे में अक्षुण्ण रखे हुए हैं ।
इन वनवासियों में गोंड, मझवार, कंवर, बिंझवार जनजाति परिवार के लोग अपने पूर्वजों के आत्म शांति के लिए श्राद्ध तर्पण कर पितृपक्ष मनाते हैं। लेकिन पहाड़ी कोरवा, पंड़ो जनजाति के लोग पितृपक्ष में श्राद्ध तर्पण नहीं करते अपितु उनके द्वारा किसी खास त्योहार व्रत में अपने पूर्वजों की आत्म शांति के लिए पूजा अनुष्ठान किया जाता है उन मृतात्माओं के लिए बकरा, मुर्गा महुआ की शराब का तर्पण किया जाता है ताकि उनके पितृजन तृप्त हो।
पंडो जनजाति में भी तीज तिहार मनाने की रवायत रही है ,परन्तु कोरवा जनजाति से अलग। पंड़ो जनजाति के लोग भी अपने पूर्वजों के लिए श्राद्ध तर्पण नहीं करते लेकिन पहाड़ी कोरवा जनजाति की तरह ही वे भी खास तिहार पर्व में पितरों की अनुष्ठान महुआ शराब एवं बकरा मुर्गा के बलि के साथ करते हैं तथा इन चढ़े हुए शराब बकरा मुर्गा का सामुहिक रूप से सेवन भी करते हैं। एक दूसरे के घरों में जाकर तिहार मनाते है। किसी भी तीज तिहार में मदिरापान जरूरी है। पितृपक्ष मनाने का तरीका अलग है।
मझवार वनवासी समाज के सरपंच बालम साय निवासी ग्राम लिपगी लखनपुर सरगुजा ने मझवार समुदाय द्वारा मनाया जाने वाला पितृपक्ष के विधि – विधान के बारे में बताया कि पहले क्वांर महिने के (अंधारी पक्ष) अर्थात प्रतिपदा तिथि से लेकर अमावस्या तक दूसरे समाज के लोग अपने पितरों के श्राद्ध तर्पण करते हैं परन्तु मझवार समुदाय के लोग पंचमी षष्ठी तिथि से लेकर अमावस्या तक पितृपक्ष मनाते हैं
पहले घर बाहरी मुख्य द्वार के दोनों ओर के देहरी (भिटका) को मिट्टी ढोकर छाबते है गोबर से लिपते है, फिर चावल छिड़क कर फूल चढ़ाते हैं। यह फूल प्रत्येक दिन बढते क्रम में चढ़ाया जाता है पहले दिन दोनों ओर एक-एक फूल भिटका के दोनों ओर दूसरे दिन दो-दो फूल इसी तरह से बढते क्रम में अमावस्या तक क्रिया किया जाता है। लोटे में पानी भर कर रखते हैं, उसी लोटे के पानी में साल (सरई) पेड़ के पतली डगाल का मुखारी (दातुन) डाल देते हैं इसे मुखारी पानी देना कहां जाता है।
फिर परिवार का कोई एक बड़ा भाई या सबसे छोटा भाई अपने पुरखों को पानी देने, जल सरोवरों में जाता है, चावल, फूल, उड़द दाल अथवा तिल मिश्रित जल मृत स्वजनों के नाम से पूरब की ओर मुख करके अंजूली से अर्पित करता है। इसी तरह नित्य प्रति जलांजलि दी जाती है।
जल सरोवर से लौटने के बाद अपने पूर्वजों के नाम पर बना भोजन एक निश्चित स्थान पर दोने में निकाल देते हैं ताकि पुरखों के भेष में कोई पशु-पक्षी उस भोजन को ग्रहण कर सके। उस भोजन में मुर्गा, बकरा, मछली भी शामिल होता है। महुआ, चावल से बनी शराब तरपनी दी जाती है।
पुरखों के पुनर्जन्म के विश्वास को लेकर बच्चों के जन्म के उपरांत पितर छंटनी की जाती है इसका भी अजीब विधान है। मझवार समाज के किसी वृद्ध आदमी को बुलाकर पितर छंटनी की रस्म पूरी की जाती है। नियमानुसार वृद्ध व्यक्ति मुर्गे के सामने पुरखों का नाम लेकर चावल छिड़क देता है।
मुर्गा जिस पुरखे के नाम पर चावल चुगता है समझ लिया जाता है कि वही दिवंगत आत्मा पितर के रूप में पुनः अपने परिवार के बीच वापस आ गई है। जिनके नाम का चावल मुर्गा नहीं चुगता उस पितर की मुक्ति मान ली जाती है। इस तरह मझवार वनवासी समुदाय में पितृपक्ष, पितरों की तृप्ति के लिए मनाया जाता है।
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