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प्रेम का प्रतीक अनूठा मंदिर

छत्तीसगढ़ में प्रेम को समर्पित एक प्राचीन मंदिर है, दक्षिण कोसल के शासक राजा हर्षगुप्त की स्मृति संजोए हुए महारानी वासटा देवी ने बनवाया था लक्ष्मण मंदिर। लगभग सोलह सौ साल पहले प्राचीन नगरी श्रीपुर में निर्मित मंदिर आज भी अपने अनुपम वैभव को समेटे हुए है।

महारानी वासटा देवी और राजा हर्षगुप्त के प्रेम का जीवन्त प्रतीक है लक्ष्मण मंदिर। जैसा उत्कट प्रेम, वैसी अदभुत संरचना में प्रेम को साकार करता हुआ है यह मंदिर। प्रेम का मंदिर हरि विष्णु का है जो संगमरमर या पत्थरों से गढ़ा नहीं है बल्कि मिट्टी को गूंथ पका कर ईटों से बनाया गया है जिसमें महारानी का अप्रतिम प्रेम और देव के प्रति उनका समर्पण रचा बसा हुआ है। संगमरमर का ताज पांच सौ बरस में ही धुंधलाने लगा है लेकिन वासटा देवी का मिट्टी से बना स्मारक सोलह सौ बरस बाद भी अविचल, प्रेम का मुखर साक्षी बना गर्वोन्नत खड़ा है।

सिरपुर की महारानी के प्रेम स्मारक का उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग ने अपने यात्रा वृतांत में किया है। महारानी के प्रेम की निशानी का खुलासा लक्ष्मण मंदिर में मिले तथ्यों से उजागर हुआ और लोगों ने जाना। 635 से 640 ईस्वी के दौरान महारानी वासटा देवी ने अपने पति हर्षगुप्त के दिवंगत होने के बाद अपने पुत्र महाशिव गुप्त बालार्जुन के कार्यकाल में मंदिर का निर्माण करवाया। महारानी वासटा मगध नरेश सूर्य वर्मन की बेटी वैष्णव धर्मावलंबी थीं जिन्होंने पति की स्मृति में हरि विष्णु का अनूठा मंदिर बनवाया।

लक्ष्मण मंदिर ईंटों से निर्मित भारत के सर्वोत्तम मंदिरों में से एक है। अलंकरण सौंदर्य से परिपूर्ण इसका निर्माण कौशल मनोहारी एवं कलात्मक है। ईटों से निर्मित मंदिर की अनुपम कलाकृति एवं स्थापत्य कला बेजोड़ है। यही कारण है कि इतिहासकार कनिंघम ने बनारस की गुप्त शैली व एरन के तोरण द्वार जैसी अनूठी शिल्पकला से लक्ष्मण मंदिर की तुलना की है।

मंदिर सात फुट ऊंचे पाषाण निर्मित जगती पर अपनी भव्यता लिए हुए स्थापित हैं। पंचरथ प्रकार का मंदिर गर्भगृह, अंतराल और मंडप से युक्त है। मंदिर की वास्तुकला अत्यंत कलात्मक है। कुंभ, कलश व अर्धस्तंभ द्वारा निर्मित आले वहीं स्तंभ शीर्षो पर घट पल्लव उकेरे गये है। शीर्षस्थ में पुष्प वल्लरी, चित्र वल्लरी अलंकरण तथा चैत्य मेहराबों पर अलंकृत कपोत शिल्प है।

लक्ष्मण मंदिर के निर्माण में ईंटों की वास्तुकला विशेष उल्लेखनीय है। ईंटों को तराश कर मंदिर को आकार दिया गया है। मिट्टी से बने ईंटों पर ही सूक्ष्म शिल्पकारी का सुन्दर नमूना लक्ष्मण मंदिर में देखा जा सकता है। मंदिर की स्थापत्य कला काल निर्धारण के लिए महत्वपूर्ण इसलिए है कि मंदिर के तोरण द्वार पर विष्णु के अवतार कृष्ण को उकेरा गया है। प्रतिमा विज्ञान की दृष्टि से गुप्त काल की अपेक्षाकृत अधिक विकसित शैली है।

द्वार पट पर गंगा, जमुना देवी की अनुपस्थिति और वहां कृष्ण लीला व पौराणिक कथाओं को उत्कीर्ण किया गया है। गुप्त काल की शैली से हटकर निर्माण परंपरा का यह प्रथम सोपान है। गुप्तकालीन के मंदिरों में अंतिम देवगढ़ स्थित दशावतार मंदिर में परिलक्षित होता है कि वह लक्ष्मण मंदिर के बाद के काल में बना है। कारण यह कि लक्ष्मण मंदिर के तोरण द्वार पर उत्कीर्ण वराह मूर्ति उदयगिरि के वराह के समान हैं परंतु इन दोनों में कुछ विभिन्नता भी है। लक्ष्मण मंदिर की वराह मूर्ति अष्टभुजी है और उदयगिरी की मूर्ति दिभुजी, इस से स्पष्ट होता है कि लक्ष्मण मंदिर की वराहकृति उदयगिरि की वराहकृति से दो शताब्दी बाद की है। मंदिर के तोरण द्वार पर कृष्ण लीला के दृश्य प्राचीन गुफाओं की कलाकृति से भी मिलते हैं।

प्रवेश द्वार अत्यंत आकर्षक है। द्वार शीर्ष पर शेषषायी विष्णु प्रदर्शित हैं। उभय द्वार शाखा पर विष्णु के प्रमुख अवतार, कृष्ण लीला के दृश्य, अलंकरणात्मक प्रतीक, मिथुन दृश्य तथा वैष्णव द्वारपालों का अंकन है। मंदिर की स्थापत्य कला अनूठी है जो और कहीं नहीं मिलती, जैसे शिखर के विभिन्न तलों को प्रदर्शित करने वाले भूमि आमलक, अलंकृत गज शिल्प, अल्प शिखर, कुंभ, कलश, कपोत के साथ अधिष्ठान की ढलाईयां जो उत्तर भारत के मंदिरों में प्राप्त होती है।

गर्भगृह में शेष नाग की शैय्या पर बैकुंठनारायण की दिभुजी मूर्ति है। यह हरि याने विष्णु का मंदिर है। लक्ष्मण शेषनाग का अवतार है इस लिए हरि की दिभुजी मूर्ति को लक्ष्मण मानकर इसे लक्ष्मण का मंदिर बताया। विष्णु की प्रतिमा जहां जहां भी है सभी में विष्णु चतुर्भुजी है इसलिए यह भ्रान्ति हुई और हरि का मंदिर लक्ष्मण मंदिर के नाम से जाना गया।

प्रेम कहानी का अद्वितीय मंदिर के संदर्भ में पुरासंस्कृति के जानकारों के परस्पर विरोधी मान्यताओं के साथ सिरपुर उत्खनन के निर्देशक अरुण कुमार शर्मा के अनुसार “सिरपुर का विनाश 12 वीं सदी में भूकंप तथा उसके बाद महानदी की विनाशकारी बाढ़ से हुआ।” प्रकृति की विनाशकारी लीला के बावजूद महारानी वासटा के प्रेम का प्रतीक मंदिर आज भी अपनी पूरी शान से खड़ा है।

आलेख

श्री रविन्द्र गिन्नौरे
भाटापारा, छतीसगढ़

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