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गंगा दशहरा में पूजा करते हुए वनवासी

सरगुजा अंचल में गंगा दशहरा

भारत धार्मिक आस्था वाला देश है। यहां के रहवासी पेड़-पौधों, पत्थरों और धातुओें में ही नहीं बल्कि नदियों में भी देवी देवताओं के दर्शन करते हैं। भारत में गंगा, गोदावरी, यमुना, सरस्वती, कावेरी, ब्रम्हपुत्र आदि महत्वपूर्ण नदियाँ हैं, जिन्हें प्राणदायनी माना जाता है। भारतीय जीवन और संस्कृति में नदियों का विशेष महत्व है। इनमें नदी गंगा भारतीयों के जीवन में धार्मिक आस्था से जुड़ी हुई है और इसी से जुड़ा है गंगा दशहरा का पावन पर्व दशहरा मेला। सरगुजा अंचल में गंगा दशहरा पर्व बिल्कुल ही अनुठे ढंग से मनाया जाता है। इस अवसर पर यहाँ पांच दिनों तक मेला लगता है।

नदी गंगा की उत्पति और गंगा दशहरा

नदी गंगा की उत्पति के संबंध में मान्यता है कि “राजा दशरथ के पूर्वजों में अयोध्या के राजा सगर थे। इनके पुत्र का नाम असमंजस, असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान, अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप और दिलीप के पुत्र का नाम भगीरथ था। पुराणों के अनुसार राजा भगीरथ ने अपने पुर्वजों की अस्थियों को विसर्जित करने के लिए कठोर तपरस्या कर माँ गंगा को पृथ्वी पर अवतरित किया था। ऐसी मान्यता है कि पृथ्वी लोक में आने से पहले गंगा ब्रम्हाजी के कमण्डल में थी। राजा भगीरथ के कठोर तपस्या के फलस्वरूप गंगा ब्रम्हा के कमण्डल से शिव की जटा में प्रवाहित होती हुई पृथ्वी लोक में अवतरित हुईं। इस तरह राजा भगीरथ ने अपने पुरखों की अस्थियों को विसर्जित कर मुक्ति दिलायी।

शुक्ल पक्ष दशमी तिथि को गंगा मईया पृथ्वी लोक में अपने साथ सम्पन्नता, हरियाली और शुद्धता लेकर अवतरित हुई थी। इसलिए गंगा दशहरा का पर्व देवी गंगा को समर्पित त्योहार है। मान्यता अनुसार गंगा का अवतरण भगवान शिव की जटा से हुआ है, इसलिए इस दिन शिव उपासना का भी पर्व मनाया जाता है। गंगा दशहरे के दिन से वर्षा का आगमन होने लगता है और दशों दिशाओं में हरियाली छाने लगती है। इसलिए इस दिन वर्षा के आगमन का भी स्वागत करते हुए खुशियाँ जाहिर कीजाती है। ऐसी मान्यता है कि गंगा दशहरा के दिन गंगा नदी का जल स्तर दस हाथ बढ़ जाता है।

सरगुजा अंचल में गंगा दशहरा

छत्तीसगढ़ के सरगुजा अंचल में गंगा दशहरा का पर्व काफी धूमधाम से मनाया जाता है। सरगुजावासियों की मान्यता है कि गंगा दशहरे के दिन पुरइन (कमल) की पत्ते से युक्त जलाशय में मां गंगा विराजती है। इसलिए जलाशय को गंगा तुल्य मानकर विधि-विधान से पूजा अर्चना की जाती है। गंगा दशहरे के दिन स्थानीय जलाशय को गंगा तुल्य मानकर साल भर आयोजित शुभ कार्यो के समान जैसे विवाह का मौर, कक्कन, कलश, बच्चे के जन्म के समय का नाल व छटठी का बाल आदि का विधि पूर्वक पूजा कर विसर्जित किया जाता है।

गंगा दशहरे के दिन बैगा (पुरोहित) विधि विधान से पूजा अर्चना करवाता है। प्रायः देखा जाता है कि आदिवासियों के सभी पर्वों में मुर्गा बकरा और शराब देव को चढ़ाते हैं। किन्तु गंगा दशहरा पर्व में ये सब वर्जित रहता है। गंगा पूजा नारियल, सुपारी, फल-फूल और अगरबत्ती से किया जाता है। गंगा दशहरे के दिन दान का विशेष महत्व है इसलिए विसर्जित करने जाने के पूर्व गांव में संगे संबधियों को निमंत्रित कर उन्हें तेल, कपड़ा, रोटी और यथा -शक्ति रूपये दान देकर दशहरा मेला देखने जाने के लिए कहा जाता है।

इसी दिन जलाशय में पुरइन (कमल) के जड़ के नीचे बच्चे के जन्म के समय के नाल को गाड़ा जाता है। यह कार्य गांव का बैगा विधि-विधान से पूजा करवाकर करता है। घर का जो व्यक्ति विसर्जित करने जाता है, वह उपवास रखता है। विसर्जित कर घर लौटने पर संगे-सबंधियों को भोज पर आमंत्रित किया जाता है। ग्रामीणों का कहना है कि “हम लोग अपने धार्मिक अनुष्ठानों की चीजों को गंगा में सेराना (विसर्जित) पुण्य मानते हैं किन्तु गंगा मईया हमसे काफी दूर हैं। गंगा दशहरे के दिन देवी गंगा पृथ्वी लोक में आयी थीं। इसलिए इस दिन किसी भी जलाशय को गंगा तुल्य मानकर पूजा अर्चना कर शुभ कार्यों के समान को विसर्जित कर पुण्य लाभ लेते हैं।

गंगा दशहरा और कठपुतली विवाह

सरगुजा अंचल में गंगा दशहरे के अवसर पर कठपुतली विवाह करने की पंरपरा प्रचलित है। लकड़ी (काठ) से गुडडे-गुड़िया बनाये जाने के कारण इसे कठपुतली कहा जाता है। विश्व के प्राचीन रंगमंच पर खेले जाने वाले मनोरंजक कार्यक्रमों में से एक है कठपुतली का मंचन। 2013 से 21 मार्च को विश्व कठपुतली दिवस मनाया जाता है। सरगुजा अंचल में भी गंगादशहरे के अवसर पर कठपुतली विवाह करने की प्रथा प्राचीन समय से है।

सरगुजा अंचल में प्रति वर्श जेठ मास शुक्ल पक्ष दशमी को गंगा दशहरा के अवसर पर गांव की कुंवारी लड़कियां घर वालों के सहयोग से कठपुतली का विवाह करती हैं। लकड़ी के गुड्डा गुड्डी बनाकर तीन दिनों तक विवाह के सभी रस्मों का पालन करते हुए कठपुतली विवाह का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन में घर के बड़े बुजूर्ग विवाह के सभी रस्मों (मण्डप गाड़ने से विदाई तक) को बताने मे सहयोग करते है। गांव की कुवांरी लडकियां गुड्डे-गुड्डी की मां और लड़के के पिता की भूमिका निभाती हैं।

ग्रामीणों का कहना है कि “इस आयोजन का उद्देश्य घर के बच्चों का विवाह संस्कार की जानकारी देना और मनोरंजन कराना है।” कठपुतली विवाह के उपरांत गंगा दशहरे के दिन इसे गंगातुल्य जलाशय में विसर्जित कर दिया जाता है। आधुनिकता की आड़ में जहां एक ओर परम्पराओं के विलुप्त होने का खतरा बना हुआ है। वही सरगुजा अंचल में बच्चों को विवाह संस्कारों से अवगत कराने का यह उत्तम माध्यम है कठपुतली विवाह।

गंगा दशहरा मेला और दसराहा गीत

सरगुजा अंचल में गंगा दशहरा को “गंगा दसराहा” के नाम से जाना जाता है। इस अवसर पर पांच दिनों तक दशहरा मेले का भी आयोजन किया जाता है। सरगुजा अंचल में गंगा दशहरा के अवसर पर 5 दिनों तक मेले का आयोजन किया जाता है। मेले में झूला, खिलौने, दैनिक उपयोग की वस्तुयें, फल और मिठाईयों की दुकाने सजी हुई रहती हैं। दसराहा मेला मे पान की दुकानों का विशेष आकर्षण रहता है। क्योंकि इस दिन पान खाने विशेष महत्व माना जाता है।

युवक-युवतियां पान खा कर छाता ओढ़ कर “दसराहा गीतों” का गायन करते हैं। दसराहा गीतों में सवाल-जवाब किया जाता है। दसराहा गीत को धंधा गीता और उधुवा गीत भी कहा जाता है। यह सरगुजा अंचल के गंगा दशहारा मेले का विशेष आकर्षण होता है। दसराहा गीतों में पान का उल्लेख सुनने को मिलता है जो इस प्रकार हैं-

लड़का –
“पान ला मुँह ला करे लाल,
बेसी माया ला झिन करबे,
एक दिन हो जाही जीव कर काल
चला चली दसराहा मेला देखे ला।”

लड़की –
“जरइया ला तय जरे-मरे दे,
तोर मोर प्रीत ला आगू बढ़े दे
चल चली दसराहा मेला देखे ला।”

भावार्थ -लड़का कहता है कि पान खा कर मुंह लाल किये हो अधिक प्रेम मत करना नही तो एक दिन जीव का काल हो जायेगा। चलो दसहारा मेला देखने। लड़की जबाब देती है -जलने वालों को जलकर मरने दो । तेरे मेरे प्रेम को आगे बढ़ने दो। चलो दशहरा मेला देखने के लिए।

गंगा दशहरा मेले में युवक-युवती एक दूसरे को पान खिलाते हैं और प्रेम पूर्वक दशराहा गीतों का गायन कर मनोरंजन करते हैं। इसका वर्णन दशराहा गीतों में मिलता है-

‘‘पान खाये सोपारी खाये छोटे छैला चले आवा रे।
मय छैला सही हो रे, तोर पान सोपारी सही आहा रे।
मोर दांत नइया तो तोर पान सोपारी ला खाओ कइसे।
तोर जग मय कइसे जाओं रे। छोटे छैला चले आवा रे।

भावार्थ – इस गीत में युवक कहता है कि दशराहा मेले में पान सुपारी खाने मेरे पास आओ। इस युवती कहती है कि मय सही हूं तुम्हारा पान और सुपारी भी सही है। किन्तु मेरे दांत ही नहीं है तो मैं तुम्हारे पास पान सुपारी खाने कैसे आऊं ?

सरगुजा अंचल का दसराहा मेला अपरिचित से परिचय बनाने का एक माध्यम भी होता है। लड़के-लड़कियां दसराहा गीत गाकर एक दूसरे के करीब आते हैं। और उनका परिचय हो जाता है। इसका उल्लेख दसराहा गीतों में सुनते ही बनता है-

“पाकल आमा हिलाओं कइसे,
अनगइहां ला मिलाओं कइसे।
पांव परे लेहे रे पान मिठाई।
तांय धराये पान मिठाई सब मिल जाही रे।”

भावार्थ – इस गीत में लड़का कहता है कि पके हुए आम को कैसे हिलाऊं? और ठीक उसी तरह अनगइहॉं (अपरिचित) को अपने से कैसे मिलाऊं। लड़की कहती है कि एक दूसरे का अभिवादन (पांव परे) कर मेले से पान और मिठाई खिलाने से अपरिचित व्यक्ति भी परिचित हो जाता है।
दसराहा गीतों में भक्ति भावना के गीत भी सुनने को मिलते हैं-

“कहाँ आहा राम, कहाँ आहाँ लक्षिमन कहाँ आहाँ भरत भगवान।
राम बने राम आहाँ अयोध्या में लक्षिमन, भरतपुर में भरत भगवान।”
भावार्थ -कहॉ राम, कहॉ लक्ष्मण और कहां भारत भगवान हैं। राम वन में राम, अयोध्या में लक्ष्मण और भरतपुर में भरत भगवान हैं।

सरगुजिहा दसराहा लोक गीतों में मनचले युवक-युवतियों द्वारा प्रेम प्रसंग के भी गीत गाये जाते हैं, जो सुनते ही बनते हैं। एक दशराहा गीत में युवक-युवती से कहता है-

“नागर ला जोते निकले टुकू, तयां समाचेती रह।
तेला मय हर ले जाहूँ -ढ़ुँकू तय समाचेती रह।”
भावार्थ – नागर (हल) चलाते समय टुकू (ढ़ेला) निकलता है तुम सचेत रहो नही तो मैं तुमको भगा कर शादी कर लूंगा।

गंगा दशहरे के अवसर पर गांव के युवक-युवतियां झुण्ड बनाकर दसराहा मेला देखने जाते हैं और दसराहा गीत के माध्यम से सवाल-जबाब करते हैं। इस तरह के गीतों को धंधा गीत (पहेली गीत) कहते हैं। दसराहा गीतों में मनचले युवक-युवतियों द्वारा बुझउल (धंधा) पूछा जाता है । कुछ सरगुजिहा दसराहा धंधा लोक गीत इस प्रकार हैं-

सरगुजिहा दसराहा धंधा लोक गीत क्रं. 01

कोन हर दिया, कोन हर तेल,
कोन हर मागत है नींदरी,
कोन हर मांगेल खेल।
दिया मागेल बाती,
बाते रे मागेल तेल।
दोनों नयना मागत है निदरी,
जवानी मांगेल खेल।
भावार्थ -लड़का सवाल करता है कि कौन दिया, कौन तेल, कौन नींद और कौन खेल मांगता है। लड़की जबाब देती है कि दिया बाती (बत्ती), बाती तेल, दोनों नयन नींद और जवानी खेल मांगती है।

सरगुजिहा दसराहा धंधा लोक गीत क्रं. 02

दस परिसा कुइंया, बीस परीसा जोजन,
मोर धंधा ला छोरे बिन झिन करिहा भोजन।
“धरे लोटा मुखारी पानी लोटा,
दस परिसा कुइया बीस परिसा जोजन।
मोर धंधा ला छोरे बिन झिन करिहा भोजन।
भावार्थ –लड़का पूछता है कि दस परिसा (गहराई मापने का मानक) कुआँ है और बीस परिसा जोजन (गहरा) है। यह क्या है? मेरे धंधा (पहेली) को बिना बताये भोजन नहीं करना है। लड़की जबाब देती है कि यह मुखारी (दातून) पानी और लोटा है। जिसे दस परिसा कुआँ और बीस परिसा जोजन कहा गया है।

सरगुजिहा दसराहा धंधा लोक गीत क्रं. 03

“जाम पके जमटी, पहारे पाके लिम।
कातो जीनिस कर उठारह कोरी सींग रहेल रे।
“काटे जी घाही, तोर धंधा हर होय जंगल कर साही।
भावार्थ – लड़का पूछता है कि किस जीनिस (जानवर) का अट्ठारह कोरी (20 का 1 कोरी) सींग रहता है। लड़की जबाब में कहती है यह जंगल का साही नामक जानवर है।

सरगुजिहा दसराहा धंधा लोक गीत क्रं. 04

“खूंटा उपर कोठार, तिहाँ निम्हें दुनिया संसार रे।
बनाये गये लेहे चाक एहर होय रे कुम्हारा कर चाक।
भावार्थ – लड़का पूछता है कि वह क्या है जिसमें खूंटा (लकड़ी का खम्भा) के उपर कोठार (खलिहान) रहता है। जिसकी आवश्यकता सभी को होती है। इसके उत्तर में लड़की कहती है कि यह कुम्हरा का चाक है।

सरगुजिहा दसराहा धंधा लोक गीत क्रं. 05

“चांदनीपुर में चोरी करे, चिमटपुर में धराये रे,
हांथपुर में ओकर जान जाही रे।
काटे जो घाही तोर धंधा हर हवे मुड़कर डीला।
भावार्थ – इस गीत में युवक पूछता है कि वह क्या है जो चाँदनीपुर (सिर) में चोरी करता है। वह चुटकी (चिमटपुर) में पकड़ाता है और हांथ (हांथपुर) में उसकी जान जाती है। इसके उत्तर में लड़की कहती है कि यह सिर का -ढीला (जूँ ) है।

सरगुजिहा दसराहा धंधा लोक गीत क्रं. 06

“टिटही अस गोड़ बदरी अस पेट,
मोर धंधा ला छोरे बिन झिन गाबे गीत।
कहे बाजार गये लेहे आंछी,
तोर धंधा हवे रे कपड़ा कर छाता।”
भावार्थ -इस गीत में लड़का पूछता है कि टिटही चिड़िया के समान पैर और बादल की तरह पेट है उसे क्या कहते हैं? इसके उत्तर में लड़की कहती है कि इस धंधा गीत का उत्तर कपड़ा का छाता है। बाजार जाकर अच्छी तरह से आंछा (पूछा) जाता है फिर छाता खरीदा जाता है।

गंगा दशहरा हिन्दू धर्म का एक शीतलता प्रदान करने वाला पवित्र पर्व है। जो भारत वर्ष के सभी लोगों को गंगा के महान पुण्य कर्मों के द्वारा शीतलता प्रदान करने की प्रेरणा देता है। सरगुजा ही नहीं वरन भारत वर्ष में मेल-जोल भाई-चारा खुशी और मनोरंजन का त्योहार हैं गंगा दशहरा। सरगुजा अंचल में विवाह संस्कारों से बच्चों को अवगत कराने और मेल-जोल का अच्छा माध्यमहै गंगा दशहरा पर्व और दसराहा मेला। हम सभी को इस पवित्र त्योहार के दिन गंगा की पवित्रता और शुद्धता को बनाये रखने के लिए प्रदूषण से बचाने के लिए संकल्प लेना चाहिए तभी सार्थक होगा गंगा दशहरा का पर्व।

आलेख एवं छायाचित्र

अजय कुमार चतुर्वेदी (राज्यपाल पुरस्कृत शिक्षक) ग्राम-बैकोना प्रतापपुर, सरगुजा

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