15 फरवरी 1882 को जन्मे बद्रीदत्त पांडेय का पूरा जीवन राष्ट्र और संस्कृति रक्षा को समर्पित
जिस प्रकार प्रातःकालीन सूर्योदय के लिये करोड़ो पलों की उत्सर्ग होता है उसी प्रकार भारत राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिये भी करोड़ो जीवन के बलिदान हुये हैं । कुछ नाम सामने आ रहे हैं पर असंख्य नाम अज्ञात के अंधकार में कहीं खो गए । कुमाऊँ केशरी बद्रीदत्त पांडेय भी ऐसे ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पत्रकार हैं जिन्हें कम लोग जानते हैं । पर उनका पूरा जीवन भारत राष्ट्र और उसकी संस्कृति रक्षा के लिये समर्पित रहा । स्वतंत्रता के पूर्व भी और स्वतंत्रता के बाद भी।
वे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के साथ एक आदर्श पत्रकार भी रहे । उनके द्वारा पत्रकारिता और सार्वजनिक जीवन में चलाये गये सभी अभियान राष्ट्र, संस्कृति और समाज के प्रति समर्पित रहे ।
पंडित बद्री दत्त पाण्डेय जी का जन्म 15 फरवरी 1882 को उत्तराखंड के कनखल में हुआ था । परिवार मूलतः अल्मोड़ा के अंतर्गत पाटिया गाँव का निवासी था । लेकिन उनका परिवार गाँव के साथ साथ अल्मोड़ा और कनखल में भी फैला हुआ था। पिता विनायक दत्त पांडे वैद्य थे और कनखल में रहते थे । बद्रीदत्त जी का जन्म यहीं हुआ।
जब वे मात्र सात वर्ष के थे कि किसी अज्ञात बीमारी में माता पिता दोनों की मृत्यु हो गयी । अपने माता पिता की मृत्यु के बाद बद्रीदत्त जी अपने ताऊ जी के पास अल्मोड़ा आ गये । अल्मोड़ा में उनके ताऊ जी ने पढ़ाई रुकने न दी और स्कूल में भर्ती करा दिया । बद्रीदत्त जी अल्मोड़ा से स्कूली पढ़ाई करने के बाद सरकारी नौकरी में नैतीताल आ गये । यहाँ उन्होने अपनी नौकरी के साथ पढ़ाई भी जारी रखी । लेकिन उनकी नौकरी अधिक न चली सकी ।
शासकीय सेवा में भारतीयों के साथ अंग्रेजी अधिकारियों का व्यवहार दासों से भी गया गुजरा था । उन्होंने नौकरी छोड़ी और देहरादून से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र में सहायक संपादक हो गये । यहाँ भी उन्होंने अपनी महाविद्यालयीन शिक्षा जारी रखी । वे अपनी नौकरी और पढ़ाई के दौरान अल्मोड़ा, इलाहाबाद, देहरादून और नैनीताल आदि स्थानों पर रहे ।
यह सभी क्षेत्र अंग्रेजों के ऐशगाह हुआ करते थे । किसी से कुछ भी काम लेना उनके स्वभाव में था । ऐसी घटनाएं भी होतीं थीं कि किसी असहाय किशोरी बालिका को सिपाहियों द्वारा पकड़ कर बुलवा लेना । यह सब इतना सामान्य था कि इसकी शिकायत करने का साहस भी न होता था । और फिर यदि रिपोर्ट की जाय तो किससे ?
सिपाही तो स्वयं अंग्रेजों की सेवा चाकरी में हाथ बाँधे खड़े रहते थे । बद्रीदत्त जी ने अंग्रेजों का यह सब दमन अपनी आँखो से देखा था । इस अमानवीय व्यवहार से उनके मन में अंग्रेजों के प्रति एक विशेष प्रकार का गुस्सा भर गया था । पर वे समझते थे कि व्यक्तिगत तौर पर गुस्सा दिखाने से कुछ न होगा । इससे दमन बढ़ेगा । वे मानते थे कि इसके सामाजिक जागरण और संगठन दोनों आवश्यक हैं ।
उन्होंने अपने महाविद्यालयीन छात्र जीवन में भी युवकों की ऐसी टोली बना ली थी जो भले बाहरी तौर पर अंग्रेजी भाषा बोले, अंग्रेजी वस्त्र विन्यास कोट पतलून पहनें, पर निजी जीवन में संगठित रहे और भारतीय परंपराओं से जुड़े । भारतीय विदेशी उत्सव नहीं अपितु अपने ही तीज त्यौहार मनायें । उनका यह प्रयास महाविद्यालयीन जीवन ऐसा रहा कि वे सार्वजनिक रूप भारतीय उत्सव का आयोजन करते थे । इसे विरोध न समझा जाय इसलिए अपने अंग्रेज सहपाठियों को भी आमंत्रित कर लिया करते थे । समाज को परंपराओं से जोड़ने का यह भाव उनके जीवन में सदैव रहा ।
अंग्रेज अधिकारियों की एक और रणनीति होती थी । वह यह कि जब कभी समाज पर अत्याचार करना हो, बल पूर्वक राजस्व बसूली करना हो, किसी भारतीय को अपमानित या दंडित करना हो तो इस कार्य के लिये भारतीय सेवकों को ही लगाया करते थे । छोटी छोटी बातों पर भारतीयों की जूतों से पिटाई करवाना इतनी सामान्य घटना होती थी कि यह अत्याचार सहकर भी लोग चुपचाप चले जाते थे । बद्रीदत्त जी को यह बात बुरी लगी ।
पहले उन्होंने भारतीय सेवकों में यह वातावरण बनाने का प्रयास किया कि आदेश का पालन करना हो तो भारतीयों के साथ सहानुभूति रखी जाय । फिर उन्होंने असहमति पूर्वक सुधार का आग्रह भी किया । उन्होंने अपने आलेखों में निरपराध लोगों को अपमानित करने की मानसिकता को बदलने का आग्रह किया । जो अंग्रेजी अधिकारियों को अच्छा न लगा । उन दिनों भले सामाजिक वातावरण में भले अंग्रेजों के अमानवीय व्यवहार के प्रति खुलकर प्रतिरोध करने का साहस न हो पर मन ही मन बहुत आक्रोश हुआ करता था ।
यह बात बद्री दत्त जी भलि प्रकार से जानते थे इसलिये उन्होंने अपने समाचार पत्र लीडर दो प्रकार की नीति अपनाई । एक तो सामयिक प्रसंगों और समाचारों को स्थान देना और दूसरी ओर ऐसे ओजपूर्ण आलैख लिखना जो भारतीय परंपराओं की महत्ता पर प्रकाश डालने वाले होते थे । इसका प्रभाव यह रहा कि बद्री दत्त के सहायक संपादक बनने से पहले जिस समाचार पत्र लीडर की केवल साठ प्रतियाँ ही प्रकाशित होतीं थीं बढ़कर यह प्रसार संख्या डेढ़ हजार हो गयी । और बद्री दत्त जी इसके संपादक हो गये ।
तभी एक घटना घटी । उन दिनों एक डिप्टी कमिश्नर लोमस हुआ करता था । वह छोटी छोटी बातों पर भारतीय सेवकों पर अत्याचार करने के लिये कुख्यात था । उसने अपने एक चपरासी को इसलिये बंदूक के छर्रे से घायल कर दिया था कि उसे पानी लाने में कुछ देरी हो गयी थी । यह अधिकारी इतना सनकी था कि मुर्गी खाने के लिये भी बंदूक के छर्रे का उपयोग करता था । बद्रीदत्त जी ने इस अधिकारी के संबंध में यह विवरण लीडर में प्रकाशित कर दिया । फिर क्या था ।
अधिकारी नाराज हुआ और लीडर को बंद करने का आदेश हो गया । वे 1910 तक इस समाचार पत्र में रहे । इसके बाद वे देहरादून से प्रकाशित होने वाले समाचार पत्र “काॅस्मोपोलिटन” के संवाददाता बन गये । इस समाचार पत्र में वे तीन साल रहे । उनके कार्यकाल में लीडर के दीपावली, होली रक्षाबंधन अंक इतने प्रसिद्ध थे कि लोग उनका संग्रह करके रखते थे । 1913 में बद्रीदत्त जी ने अपना नया समाचारपत्र “शक्ति” का प्रकाशन आरंभ किया । उसकी शैली भी वही । राष्ट्र, संस्कृति और समाज के प्रति समर्पण ।
बद्रीदत्त जी इससे पहले और अब शक्ति की पत्रकारिता में एक अंतर आया । लीडर और कास्मोपोलिटन में बद्रीदत्त जी का लेखन या उनका पूरा पत्रकारिकता जीवन सामाजिक जागरण और सांस्कृतिक चेतना तक ही सीमित रहा किंतु अब “शक्ति” में उनकी पत्रकारिता सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण अभियान के सीधे स्वाधीनता आंदोलन में भी जुड़ गयी थी । कुमाऊँ में जन जागरण के लिये 1928 में उन्होंने एक संस्था कुमाऊँ परिषद की स्थापना की । और इसके साथ वे काँग्रेस से भी जुड़ गये । उन्होंने 1921 में असहयोग आन्दोलन में भाग लिया और जेल गये ।
असहयोग आन्दोलन से पूर्व उन्होंने कुमाऊँ में कुली बेगार प्रथा रोकने का एक बड़ा आँदोलन चलाया था जिसके कारण वे अंग्रेजों की आँख की किरकिरी बन गये थे । इसके लिये वे अपने आलेखों के अतिरिक्त व्यक्तिगत सभाओं का भी आयोजन करते थे । अपने आलेखों के कारण वे इतने लोकप्रिय हो गये थे कि वे जहाँ जाते वहाँ उनसे मिलने बड़ी संख्या में लोग आते । जिस प्रकार लीडर के होली अंक ने पूरे अल्मोड़ा में तहलका मचाया था । उसी प्रकार कुमाऊँ क्षेत्र में किसानों के शोषण, किसानी की दुर्दशा और कुलियों पर हो रहे अत्याचार पर भी उनके आलेख भी बहुत लोकप्रिय हुये ।
उनकी लोकप्रियता के कारण ही कुली बेगार प्रथा आँदोलन सफल हो सका । उन दिनों पूरे उत्तराखंड में यह कुली बेगार प्रथा थी । जिसमें कोई भी अंग्रेज अफसर सामने आये किसी भी भारतीय से अपना समान उठवा सकता था, जूते उतारने को कहता या हाथ पांव दबाने को कह सकता था । इसके लिये कोई पारिश्रमिक भी नहीं दिया जाता था । इंकार करने का साहस किसी में नहीं था । बद्रीदत्त जी ने इस प्रथा के विरुद्ध बड़ा आँदोलन चलाया । यह कहना सच्चाई के समीप होगा कि उत्तराखंड में यह कुली आँदोलन ही स्वतंत्रता संग्राम के रूप में व्यापक बना ।
कुली प्रथा से बद्री दत्त जी कितने आहत थे इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि अपनी पत्रकारिता के जीवन में वे तब तक लेख लिखते रहे जब तक यह कुली प्रथा समाप्त न हो गयी। असहयोग आन्दोलन से पहले इसी आँदोलन के चलते वे अंग्रेजी अधिकारियों की आँख में खटक गये थे । इसके लिये “कुमाऊं परिषद” अधिवेशन में अन्य विषयों के अतिरिक्त कुली दास प्रथा के विरुद्ध प्रस्ताव पारित हुआ । इसके प्रस्तावक बद्रीदत्त जी ही थे । प्रस्ताव सर्व सम्मत पारित हुआ।
बद्रीदत्त की इस परिषद के मुख्यतः तीन ही कार्य थे । एक तो स्थानीय समाज को अपनी परंपराओं और संस्कृति से जोड़े रखना, दूसरा अंग्रेजों के दमन के विरुद्ध सामाजिक जागरण और तीसरा कुली प्रथा का अंत । वस्तुतः कुली प्रथा केवल अंग्रेजी अधिकारियों तक ही सीमित न रह गयी थी । अन्य शासकीय व्यक्तियों को भी ऐसी बेगार कराने का शौक लग गया था । देशी सिपाही और चपरासी भी किसी भी राह चलते व्यक्ति को धौंस दिखाकर बेगार कराने लगे थे ।
इस कुप्रथा के विरुद्ध एक बड़ा आंदोलन असहयोग आँदोलन से कुछ पहले 12 जनवरी 1921 हुआ । आँदोलन का स्थल बागेश्वर था । यह सरयू नदी का किनारा है और वहाँ मकर सक्रांति मेला लगा था । सरयू के दोंनो पाट श्रृद्धालुओं से भरे थे । अनुमान है कि चालीस हजार से अधिक की उपस्थिति रही होगी । बद्रीदत्त जी अपनी टोली के साथ मेले में पहुंचे । उन्होंने अपना डेरा जमाया और हर कौने में सभाएं लीं । लोगों को समझाया जाग्रत किया ।
जितने दिन मेला चला उतने दिन बद्रीदत्त जी वहीं रहे उनके इस अभियान को अपार जन समर्थन मिला । ऐसा लगा कि पूरा मेला क्षेत्र उठ खड़ा हुआ । मेले में प्रशासन ने उन्हें धमकाने का प्रयास किया । मेले में सभा चल रही थी । तत्कालीन डिप्टी कमिश्नर डायबिल ने पुलिस बल के साथ उनकी सभा को घेर लिया । और गोली चालन की चेतावनी देकर भीड़ से चले को कहा । इसके साथ डिप्टी कमिश्नर मंच पर चढ़ा और बद्री दत्त को धमकाया ।
बद्रीदत्त जी ने सभा समापन करने का तो आश्वासन दिया पर आँदोलन समाप्त करने से इंकार कर दिया । उन्होंने वहाँ उपस्थित जन समूह से संकल्प शपथ लेने तक रुकने को कहा और लोग रुक गये । यहाँ दो बातें रहीं । एक दो पौने दो वर्ष पहले हुये जलियाँ बाला बाग काँड से अंग्रेजों की पूरी दुनियाँ में बदनामी हुई थी दूसरे पुलिस बल बहुत कम था । इसलिये कोई बड़ी अनहोनी होने से टल गयी ।
बद्रीदत्त जी ने सभा समापन करने से पूर्व कुली बेगार प्रथा समाप्त करने का संकल्प पारित किया । वे संकल्प पारित करने के बाद ही वे मंच से उतरे । ऐसे ओजस्वी और निर्भीक थे बद्रीदत्त जी । उनके आँदोलन के चलते ही यह कुप्रथा समाप्त हो सकी । इसकी प्रशंसा गांधीजी ने भी की । कुली बेगार की प्रथा समाप्त होने के बाद बद्री दत्त जी को “कुमाऊँ अंचल केसरी” की उपाधि से सम्मानित किया गया ।
गांधी ने इस अभियान को रक्तहीन क्रांति का नाम दिया और उन्होंने “यंग इंडिया” में लेख लिखा । गाँधी जी ने लिखा कि- यह रक्तपात शून्य क्रांति है जो सफल हुई विश्व में ऐसे उदाहरण कम है” । इस अभियान की सफलता से गाँधी जी इतने प्रभावित हुये थे कि 1929 में जब गाँधी जी कुमाऊँ आये तो आने से पहले उन्होंने बद्रीदत्त जी मिलने की इच्छा जताई थी । गाँधी जी के अल्मोड़ा आगमन पर उनकी सभा के सभी प्रबंध बद्रीदत्त जी ने ही किये थे । गाँधी जी कुछ अस्वस्थ थे वे धीरे बोल रहे थे । उनके वाक्यों को अपनी ओजस्वी आवाज में बद्रीदत्त जी ने लोगों तक पहुँचाया । इसीलिए जब वे असहयोग आंदोलन में पुलिस के हत्थे चढ़े तो उन्हें डेढ़ वर्ष का कारावास मिला।
जेल से छूटने के बाद बद्री दत्त जी ने दोनों दिशाओं में आंदोलन चलाये । एक सामाजिक जागरण, बुराइयों का निवारण और दूसरा देश की स्वाधीनता के लिये जन जागरण । जिन सामाजिक बुराइयों के प्रति उन्होंने अभियान चलाये उनमें वेश्यावृत्ति समाप्त करने का आँदोलन भी रहा । बद्री दत्त पांडे ने कुल चार बार जेल यात्रा की, 1921 के असहयोग आंदोलन के अतिरिक्त जून 1929 से मार्च 1931 तक, जनवरी 1932 से अगस्त 1932 तक और भारत छोड़ो आंदोलन के अंतर्गत जनवरी 1942 से 9 अगस्त 1943 तक जेल में रहे ।
उन्होंने जेल में ही कुमाऊं का इतिहास लिखा जो कुमाऊँ के इतिहास की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक मानी जाती है । स्वतंत्रता के पश्चात भी वे शाँत न बैठे । पत्रकारिता में उनके आलेख समस्याओ के निवारण पर आलेख ही नहीं शासन की ऋटियो पर भी टिप्पणी करते थे । इसी बीच 1957 और 1962 में वे दो बार लोकसभा के लिये निर्वाचित हुए । और 83 वर्ष की आयु में 13 फरवरी 1965 को इस महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का निधन हो गया । राष्ट्र के प्रति उनका समर्पण कितना गहरा था इसके उदाहरण उनके जीवन में अनेक हैं फिर भी वे एकमात्र ऐसे महादानी थे जिन्होंने 1962 के चीन युद्ध के दौरान उन्हें मिले स्वर्ण पदक भी राष्ट्रीय रक्षा कोष में दान कर दिये थे।
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