दक्षिण कोसल में स्थापत्य कला का उद्भव शैलोत्खनित गुहा के रूप में सरगुजा जिले के रामगढ़ पर्वत माला में स्थित सीताबेंगरा से प्रारंभ होता है। पांचवीं-छठवीं सदी ईस्वीं से दक्षिण कोसल में स्थापत्य कला के अभिनव उदाहरण प्राप्त होने लगते हैं जिसके अन्तर्गत मल्हार तथा ताला में मंदिर वास्तु की विलक्षण योजना सहित प्रतिमा विज्ञान में अभिकल्पों की मौलिकता के साथ धर्म-दर्शन तथा आध्यात्म का आलोक परितार्जित और व्यापक होने लगता है।
भारतीय स्थापत्य कला के अन्तर्गत अलंकरणात्मक विविधताओं तथा प्रयोजनात्मक अभिकल्पों का दर्शन मंदिरों के प्रवेशद्वार में विशेष रूप से प्रकट होता है। शिल्पग्रंथों में मंदिरों में मिथुन आकृतियों के निर्माण के विधान है। इसके अतिरिक्त अन्य आनुषांगिक अलंकरणों के अन्तर्गत घट-पल्लव, लता-वल्लरियां, पुष्पाकृतियां, मुक्ता चुगते हंस, ग्रासमुख, कीर्तिमुख, नृत्यांगनाएं, नायिकाएं, दम्पिति युगल, ज्यामितिय आकृतियां, शार्दूल, हस्ति, अश्व, मिथुन आकृतियां आदि देवालय के वेदिबंध, स्तंभ, रथिकाएं तथा प्रवेशद्वार पर भी निर्मित की जाती रही है।
शिल्पियों की मौलिक कल्पना से आकारित अलंकरणों की विविधता संरचना की भव्यता में वृद्धि करने के साथ-साथ समयुगीन कला शैली के प्रवृत्तियों का परिचय भी रेखांकित करते हैं।
मंदिर के आंतरिक अंगों में प्रवेशद्वार सर्वोत्तम अभिकल्पों का संघाट होता है। प्रवेशद्वार के ऊपरी चौखट (सिरदल) के मध्य में मंदिर के मुख्य उपास्य देवता की प्रतिमा तथा उभय पार्श्व के द्वार शाखाओं पर मुख्य रूप में नदी देवियों के अंकन की परंपरा रही है।
दक्षिण कोसल के प्राचीन मंदिरों में नदी देवियों की प्रतिमायें द्वारशाखा ऊपर की ओर, द्वारशाखा के सम्मुख भाग पर तथा अर्धस्तंभों पर भी रूपायित मिलती है। कलचुरि तथा नाग कला शैली के स्मारकों में नदी देवियों के आकार में ह्रास होने लगता है तथा द्वारशाखा के नीचे भाग पर प्रदर्शित होने लगती हैं।
ताला (देवरानी मंदिर), खरोद (लक्ष्मणेश्वर मंदिर), इंदल देउल तथा सबरी मंदिर, शिव मंदिर अड़भार, राजिम (राजीव लोचन), मल्हार (देउर तथा पातालेश्वर मंदिर), सिद्धेश्वर मंदिर, पलारी, विष्णु मंदिर जांजगीर, डीपाडीह आदि स्थलों में नदी देवियों की प्रतिमाएं कला दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
शिल्पग्रंथों में नदी देवियों के अभिज्ञान के लिये निर्धारित प्रतिमा लक्षणों में उनके दायें हाथ में घट (कलश) तथा बांया हाथ सनाल पद्म धारित, द्विभुजी, सर्वांग भूषित, सौंदर्य शालिनी, लालित्यपूर्ण, तन्वंगी प्रतिमा के निर्माण का विधान है। इस क्रम में गंगा के साथ मकर तथा यमुना के साथ कच्छप वाहन के रूप में रूपायित किया जाता है।
मूर्तिकला में मुख्य नदी देवियों के साथ रूपायित तत्सम द्वितीय क्रम के नदी देवियों के साथ वाहन के रूप में मत्स्य का अंकन प्राप्त होता है। नदी देवियों के सरिता स्वरूप के मानवीकरण के साथ उनके मातृत्व स्वरूप का दिग्दर्शन भारतीय कला में विशेष रूप से लोकप्रिय रहा है।
गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, गोदावरी, कृष्णा, कावेरी, सरयू, क्षिप्रा आदि हमारे देश की पवित्र नदियां है। विष्णु के चरण से उद्धृत होने एवं ब्रम्हा के द्वारा कमंडलु में धारित होने के कारण गंगा भारत की परम पवित्र नदी है। इसे त्रिपथगा (अंतरिक्ष द्युलोक तथा मर्त्यलोक में प्रवाहित) के नाम से भी संबोधित करते है।
पुराणों के अनुसार भागीरथ ने तपस्या कर गंगा को पृथ्वी में अवतरित कराया था। गंगा के देवी तथा पतितपावनी स्वरूप के कारण यह ऋषि मुनियों तपस्यों तथा साधकों के लिये अराध्या रही है। ध्यान के मंत्र में गंगा के चतुर्भुजी स्वरूप का दिग्दर्शन मिलता है-
चतुर्भुजां त्रिनेत्रांच सर्वावयभूषिताम्,
रत्नकुंभा सिताम्भोजां वरदाभय प्रदाम्।
श्वेतवस्त्रंपरीधानां मुक्तामणिविम्
सदाध्यायेत् सुरूपां तां चन्द्रायुतसमप्रभाम्।।
(भविष्य पुराण)
उत्फुल्लामल पुण्डरीकरूचिरा कृष्णेशविध्यात्मिका,
कुम्भेष्टाभयतोयजानि दधति श्वेताम्बरालंकृता।
कृष्टास्या शशिशेखराखिल नदी शोणादिभिः
सेविता,
ध्येयापापविनाशिनी मकरगा भागीरथी साधकैः।
(मंत्र महोदधि)
जिनकी देह कांति खिले हुए कमल के समान मनोहारिणी है, जो ब्रह्म, विष्णु तथा रूद्रस्वरूपिणी है, जिन्होंने दाहिने भुज युगल में वर मुद्रा तथा कमल और वाम भुज युगल में सुधाकलश तथा अभयमुद्रा को धारण किया है, जो श्वेत वस्त्रों से अलंकृत है, जिनके मस्तक पर चंद्रमा शोभायमान है, समस्त नदियां और शोण महानद जिनकी सेवा कर रहे हैं, ऐसी प्रसन्नमुखवाली तथा मकर पर आरूढ़ पापविनाशिनी भगवती भागीरथी का ध्यान करना चाहिये।
स्थापत्य विधा के अंतर्गत निर्मित प्राचीन देवालयों में नदी गंगा तथा यमुना की प्रतिमा प्रवेशद्वार पर उभय पार्श्वों में की जाती है। शिल्पग्रंथों में प्रतिपादित प्रतिमा लक्षणों में नदी देवियों के हाथों में कलश तथा कमल पुष्प के निर्देश मिलते हैं। गंगा और यमुना में विभिन्नता प्रदर्शित करने के लिए गंगा के साथ मकर तथा यमुना के साथ कच्छप वाहन के रूप में पीठासन में संलग्न रहते हैं।
छत्तीसगढ़ की सोमवंशी कला शैली के विद्यमान मंदिरों में नदी देवियों का सौम्य, सुंदर, अलंकृत तथा कमनीय भंगिमा युक्त प्रतिमाएं अत्यंत आकर्षक हैं। कलचुरि, फणिनाग तथा छिन्दकयुगीन मंदिरों में नदी देवियों का आकार घट जाता है तथा द्वारशाखा के आधार भाग पर शोभित मिलती हैं। इस काल में नदी देवियों के साथ छत्रधारिणी परिचारिका सहित अन्य लघुकाय अनुचर अंकित मिलते हैं और द्वारशाखा के उर्ध्वभाग पर रूपशाखा में मिथुन तथा अन्य अलंकरणात्मक प्रयोजनों की बाहुल्यता देखने मिलती है।
सोमवंशी कला शैली की गंगा के प्रतिमा के सिरोभाग पर कमलपत्र छत्र तथा यमुना के सिरोभाग पर मयूरपिच्छ छत्र का अंकन मिलता है। नदी देवियों के साथ जलीय पक्षी भी अंकित मिलते हैं। स्थापत्य कला के अन्तर्गत द्विभुजी नदी देवियों मंदिरों के द्वार शाखा पर अथवा पार्श्व में द्विभुजी तथा द्विभंग स्थानक मुद्रा में रूपायित की जाती है। अपवाद स्वरूप महेशपुर के कलचुरि कालीन विष्णु मंदिर के द्वारशाखा पर नदी देवी की एक चतुर्भुजी स्थानक प्रतिमा प्रदर्शित है।
गंगा की उत्पति की लक्षणार्थ अवतार त्रिविक्रम (विष्णु के बलि-वामन अवतार से संबंधित) से संबंधित सर्वोंत्तम प्रतिमा राजीव लोचन मंदिर राजिम के परिसर में प्रदर्शित है। प्राचीन चित्रकला में मकरारूढ़ चतुर्भुजी गंगा की परंपरा मिलती है। पतित पावनी गंगा का लोक जीवन के साथ घनिष्ठ संबंध रहा है।
भक्तिकाव्य रीतिकालीन काव्य तथा लोकगीतों में गंगा का उत्पत्ति, भक्ति, आराधना और उनके दैवीय स्वरुप से संबंधित सुंदर पद प्राप्त होते है। छत्तीसगढ़ में प्रचलित पारंपरिक भोजली गीत में आत्मभाव से ओतप्रोत एक लोकगीत में नारियां गंगा से उनके आगमन आशीर्वाद और कृपा की याचना करती है-
अहो देवी गंगा,
लहर तुरंगा हो लहर तुरंगा,
हमर भोजली दाई के भीजे आइो अंगा। अहो…
छत्तीसगढ़ अंचल में प्रचलित गंगा से संबंधित इस पारंपरिक गीत में नादात्मक, आध्यात्मिक सौंदर्य, आत्मीय संबंध और भक्ति रस का असीम सौंदर्य है।
छत्तीसगढ़ अंचल में प्रवाहित महानदी का पौराणिक महत्व है। पुराणों में ‘‘चित्रोत्पला’’ के रूप में महानदी का उल्लेख मिलता है –
गंगा सिंधु सरस्वती च यमुना गोदावरी नर्मदा,
कावेरी सरयूर्महेन्द्र तनयाश्चर्मण्वती वेदिका।
क्षिप्रा भोगवती तथा सुरनदी चित्रोत्पला गण्डकी,
पुण्याः पुण्यजलाः समुद्र सहिताः कुर्वन्तु मंगलम्।।
छत्तीसगढ़ अंचल में प्रवाहित नदियों के तट पर प्राचीनकाल में नगर-राजधानी स्थापित हुये तथा भव्य मंदिरों का निर्माण हुआ। ऐसे स्थलों में राजिम, खरोद-शिवरीनारायण, ताला, डीपाडीह, महेशपुर आदि स्थल उल्लेखनीय हैं। नदियाँ, पर्वत तथा वन प्रकृति का सर्वोत्तम वरदान है। जलस्रोतों, सरोवरों-तालाब, कूप-बावड़ी आदि भारतीय संस्कृति के आधारभूत स्तंभ है। छत्तीसगढ़ में सरोवरों की अत्याधिक संख्या तत्कालीन सन्निवेश, व्यापार पथ तथा लोकजीवन से जुड़े मांगलिक विधान तथा प्रकृति उपासना से संबंधित तथ्यों को उजागर करते हैं।
आदिकवि वाल्मिकी परम पुरूषार्थदायिका गंगा की स्तुति करते हुए ‘मोक्ष लक्ष्मी’ के रूप में सर्वोच्च पद पर प्रतिष्ठित किया है।
छत्तीसगढ़ की जीवनदायिनी सरिताएं तथा सरोवर लोक कथाओं तथा किवंदतियों में लोकमंगल की भावना से जुड़े हुए हैं। कन्हर, रेंड, मनियारी, पैरी, शंखिनी-डंकिनी, अरपा, शिवनाथ आदि नदियां आंचलिक-पौराणिक कथानकों से संयुक्त है। लोक जीवन में समस्त आंचलिक नदियां गंगा-यमुना के सदृश्य पावन हैं तथा उनके साथ लोक जीवन के अक्षय संस्कार जुड़े हुए हैं।
नदियों की निर्मलता तथा संरक्षण आधुनिक युग की सबसे बड़ी चुनौती है। इस दिशा में पर्यावरणीय संवंर्धन से आशाजनक परिणाम संभव है। भारतीय कला में नदी देवियों का अंकन दैहिक पवित्रता के साथ-साथ आध्यात्मिक तथा दार्शनिक पक्षों को मर्यादित और आदर्श परिवेश में मुखरित करता है। दक्षिण कोसल की कला परंपरा में यह अक्षय कीर्ति और निधि के रूप में जीवंत है।
आलेख
श्री जी एल रायकवार
पुरातत्वविद
श्यामनगर, संतोषी माता मंदिर के पास, रायपुर