बस्तर के वनवासी अपने पारंपरिक रीति-रिवाजों को संजोए हुए होली मनाते हैं, दंतेवाड़ा के माई मंदिर में। छत्तीसगढ़ के बस्तर का दंतेवाड़ा जहां विराजी हैं वनवासियों की आराध्य मां दंतेश्वरी देवी। डंकिनी- शंखिनी नदी संगम के तट पर बसा है दंतेवाड़ा। हर बरस माता के दरबार में होली मनाने आ जुटता है वनवासी समुदाय अपनी मस्ती और उमंग के साथ। यहां फागुन मास की होली नाच गाने के साथ मनाई जाती है जिसे ‘फागुन मड़ई’ कहा जाता है।
दस दिन की होली-
दंतेवाड़ा में दस दिन तक की मड़ई होती है दंतेश्वरी माई की छत्रछाया में। दंतेवाड़ा में फागुन मड़़ई शुरू होती है फागुन शुक्ल पक्ष की छठवीं तिथि से। मड़ई में शामिल होने गांव-गांव से वनवासी पहुंचते हैं, सज -धज कर अपनी पूरी तैयारी के साथ। वनवासियों के साथ उनके गांव के देवी देवताओं का छत्र, बैरक भी आ पहुंचता है दंतेवाड़ा में।
देवी दंतेश्वरी का छत्र –
फागुन छठ के दिन दंतेवाड़ा का’ मेचका डबरा मैदान’ दूरदराज से पहुंचे आमंत्रित देवी-देवताओं के छत्र, बैरक से सज उठता है। सबसे आखरी में आता है मां दंतेश्वरी का छत्र और कलश। माई का छत्र आते ही परंपरा अनुसार देवताओं को साक्षी मानकर होती है सबसे पहले होती है कलश स्थापना। इसी के साथ दंतेश्वरी माता अनुमति देती है फागुन मंडई मनाने के लिए।
दूसरा दिन होता है फागुन सप्तमी का। सप्तमी को ‘ताड़ फलंगा’ विधान संपन्न होता है। पूजा अर्चना के साथ ताड़ पेड़ के 15 पत्ते लाए जाते हैं। ताड़ के पत्तों को धोया जाता है ‘माता तरई तालाब’ में, फिर ताड़ पत्तों को सहेज लिया जाता है, होलिका दहन के लिए।
अष्टमी के दिन होता है, ‘खोरखुंदनी का विधान’। खोरखुंदनी का मतलब नाच से होता है। ढोल, मांदर की थाप, टिंमकी झांझर की झंकार, तान-तान धिन, तान धिन, तांग-तांग की धुन के साथ वनवासियों का समूह थिरक उठता है। मेचका डबरा के मैदान में अपनी-अपनी वेशशभूषा में सजे एक नहीं कई आदिवासी टोली थिरक उठती हैं। हर ओर अपनी एक अलग धुन के साथ नाचते, थिरकते वनवासियों टोलियों का ऐसा अदभुत नजारा देखते ही बनता है।
मड़ई में डंडारी नृत्य-
फागुन मड़ई का विशेष आकर्षण होता है डंडारी नाच। डंडारी नृत्य करते हैं भतरा वनवासी अपनी विशिष्ट वेशभूषा के साथ। नृत्य करते भतरा नर्तक कमर से घुटने तक लाल परिधान पहने, सिर पर सुर्ख लाल साफा बांधे रहते हैं। जिनकी श्याम छातियों पर सफेद कौड़ियों के आभूषण रह रहकर उनकी थिरकन के साथ कौंध उठते हैं।
वसंत का राग,फागुन मड़ई की मस्ती के साथ डंडारी नाच का दौर चलता है और चलता ही रहता है रात भर, नाचने की होड़ लगी रहती है आदिवासियों के बीच। हर कोई अपने टोली के साथ अपनी धुन में थिरकता नजर आता है। तरह-तरह के लोक वाद्यों की धुन वातावरण में गूंज उठती है। गांव-गांव के आदिवासी रंग-बिरंगे परिधान पहने उनकी टोलियां, अपनी अपनी धुन में नाचते हैं, जहां समूचे बस्तर की लोक संस्कृति एकाकार होती, सुहावनी सी लगती है। नाच देखने के लिए आ जुटता है अपार जनसमूह।
‘नाच मांडनी’ नवमीं तिथि में होती है। सुबह से ही नाच का दौर शुरू होता है और देर रात तक चलता है, आदिवासियों के नृत्य का दौर। कहीं टिमकी डुबकी ,कहीं ढोल मृदंग ,कहीं चिकारा की धुन के साथ नाचती वनवासियों की उल्लासित टोली तो कहीं दूसरी टोली। किसे देखें! किसे नहीं देखें! नर्तकों के पैर तो थमते ही नहीं। घंटों निहारते दर्शक जिनके कान लोक वाद्यों की धुन से सुन्न से हो जाते हैं मगर टोलियों के नर्तक थिरकते ही रहते हैं रात भर। फागुन के माहौल में उमंग उल्लास से भरे आदिवासियों का मेल-मिलाप होता है इस फागुन मड़ई में। बस्तर के लोकजीवन में मेला मंड़ई के आयोजन का उद्देश्य ही होता है मेल मुलाकात करने का।
चार दिन का शिकार स्वांग’-
नवमीं के तिथि के बाद चार दिन तक चलता है ‘शिकार स्वांग’। दशमी तिथि से त्रयोदशी तक चलने वाला ‘शिकार स्वांग’ बड़ा अनूठा होता है। दशमी के दिन ‘लम्हामार’ दूसरे दिन ‘कोटमीमार’ तीसरे दिन ‘चीतलमार’ और चौथे याने त्रयोदशी को आयोजित होता है ‘गंवरमार शिकार स्वांग’। शिकार स्वांग के लिए खरगोश, कोटरी चीतल और गौर की आकृतियां बनाई जाती हैं।
बांस की कमचिल, रंगबिरंगा कपड़ा और काजल से बनी आकृतियां हूबहू जानवरों सरीखी दिखती हैं। इन्हीं आकृतियों को पहनकर वनवासी जानवरों की नकल करते हैं और शिकारियों को ललचाते हैं। शिकार स्वांग के पहले दिन होता है ‘लम्हामार’।
खरगोश की आकृति पहने एक वनवासी उछलता कूदता निकलता है सबके सामने से। उस खरगोश का शिकार करने उसका पीछा करता है, वनवासियों का एक समूह। खरगोश छुप जाता है फिर कहीं दूर दिखता है नाटकीय अंदाज में, खरगोश छुपता फिरता है, शिकारी परेशान हताश होते हैं और काफी मशक्कत के बाद जब खरगोश दिखता है तब एक धमाका होता है और धराशाई हो जाता है खरगोश।
इसी के साथ संपन्न होता है लम्हामार शिकार स्वांग। कोटरीमार शिकार स्वांग एकादशी के दिन। ‘चीतलमार’ द्वादश के दिन और त्रयोदशी को ‘गवरमार’ शिकार स्वांग संपन्न होता है भरपूर मनोरंजन के साथ। बस्तर के महाराजा ने शिकार स्वांग की परंपरा शुरू कराई थी मनोरंजन के लिए, जो आज भी परंपरागत रूप से चल रही है। फागुन मडई के चार दिन मनोरंजन में ही बिताते हैं।
गाली उत्सव-
त्रयोदशी आते ही फागुन मड़ई पहुंच जाती है अपनी चरम अवस्था में। मंडई में आमंत्रित देवी देवताओं के छत्र, बैरक, लाठ, डांग और पालकियों के बीच दंतेश्वरी माई की डोली का आकर्षण अलग ही होता है। माई अपनी पालकी में विराजी रहती हैं और दिन भर भ्रमण करती हैं, पूरे विधि विधान के साथ मेचका डबरा मैदान में।फागुन मड़ई में गांव-गांव से आए देवी देवताओं के बीच रस्म होती है ‘देव खिलानी’। देवताओं को अर्पित किया जाता है भोग।
गाली देने का उत्सव –
शाम का धुंधलका जैसे ही घिरता है वैसे ही शुरू हो जाता है फागुन मंडई का ‘गाली उत्सव’। गालियों की बौछार एक छोर से दूसरे छोर तक चलती है, श्लील, अश्लील तरह-तरह की गालियां बड़े हास परिहास लिए हुए। गालियां ऐसी कि कोई अपनी मर्यादा कोई नहीं लांघता, लेकिन गाली गलौज करने में पीछे नहीं रहता, फागुन मड़़ई के इस गाली उत्सव में।
फिर आती है चतुर्दशी तिथि के दिन में होता है ‘आंवला मार आयोजन’। सुबह माई दंतेश्वरी की डोली में आंवला अर्पित किया जाता है। फिर वहां एकत्रित लोग दो समूह में बंट जाते हैं। लोग एक दूसरे पर आंवले की बौछार करते हैं, आंवला की मार से कौन कैसे बचता है और कौन किस पर भारी पड़ता है ऐसे आंवला मार आयोजन का दृश्य देखते ही बनता है। फागुन मड़़ई का आंवला मार बड़ा मनोरंजक होता है।
होलिका दहन –
रात को विधि विधान के साथ जलाई जाती है होली। दूसरे दिन पूर्णिमा की अलसुबह होता है पादुका पूजन। डंकिनी, शंखनी नदी संगम तट पर जहां अंकित हैं भैरव बाबा के पद चिन्ह। भैरव बाबा के पद चिन्हों की पूजा अर्चना की जाती है इसके बाद शुरू हो जाता है रंग गुलाल। होली की मस्ती के साथ रंगों से सराबोर हो जाता है समूचा जनसमूह।
फागुन मड़ई का समापन ‘रंग पर्व’ से संपन्न होता है। रंग पर्व के होने के बाद फागुन मड़़ई में शामिल होने आए देवी देवताओं की विदाई होती है दूसरे दिन प्रतिप्रदा को। सम्मान पूर्वक देवी देवताओं की विदाई होती है और देवों के बैरक, छत्र, लाठ लौटने लगते हैं अपने-अपने गांव। इसी के साथ संपन्न होती है बस्तर की फागुन मड़ई।
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