छत्तीसगढ़ माटी की अपनी विशिष्ट पहचान है। जहां राग-रागिनियों, लोककला और लोक संस्कृति से यह अंचल महक उठता है और लोक संस्कृति की सुगंध बिखेरने वाली समूचे छत्तीसगढ़ अंचल की अस्मिता का नाम है ‘चंदैनी गोंदा’। चंदैनी गोंदा कला सौंदर्य की मधुर अभिव्यक्ति है। यह आत्मा का वह संगीत है जिसके स्वर और ताल पर मनुष्य झूम उठता है। चंदैनी गोंदा अमर है, शाश्वत है तथा चिंतन आनंद देने वाला है। इसे समय और स्थान की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता।
चंदैनी गोंदा का मंचन सर्वकालीन, सार्वजनीन तथा सर्वव्यापी स्तर में होता था। मनुष्य किसी देश, काल, धर्म, जाति अथवा वर्ग का हो, चंदैनी गोंदा के कार्यक्रम में आकर्षित हुए बगैर नहीं रह सकता था। यह तो हुई सामान्य मनुष्य और चंदैनी गोंदा की बात, किंतु जो व्यक्ति कला का प्रेमी होता है, वह सौंदर्य की गहरी अनुभूति करता है तथा जिसका जीवन कला के लिए समर्पित रहता है, उस कलाकार का क्या कहना, उसे तो जीवन के पग-पग पर स्वयं कला के दर्शन होते हैं।
दाऊ रामचंद्र देशमुख का जन्म 25 अक्टूबर 1916 दुर्ग जिला के ग्राम पिनकापार में हुआ था। उन्होंने शासकीय उच्चतर माधयमिक शाला दुर्ग से हाई स्कूल की शिक्षा ग्रहण की एवं उसके पश्चात बी एस सी (कृषि) कृषि महाविद्यालय, नागपुर एवं फ़िर मौरिस कॉलेज नागपुर से एल एल बी की डिग्री हासिल की।
उच्च शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने छत्तीसगढ़ी संस्कृति की सेवा की, उसे समृद्ध किया। आज से लगभग सत्तर वर्ष पहले दाऊ रामचन्द्र देशमुख द्वारा ‘छत्तीसगढ़ कला विकास मंडल’ का गठन किया गया था। कालान्तर में वह लुप्तप्राय हो गया। तत्पश्चात् फिर एक सांस्कृतिक मंच की जरूरत महसूस हुई और ‘चंदैनी गोंदा’ के रूप में उसका पुनर्जन्म हुआ।
चंदैनी गोंदा सिर्फ धरती का ही नहीं अपितु पूजा का भी फूल है। चंदैनी गोंदा छोटे-छोटे कालाकारों का संगम है। चंदैनी गोंदा लोकगीतों का एक नया प्रयोग है। दृश्यों, प्रतीकों और संवादों द्वारा गीतों को गद्दी देकर छत्तीसगढ़ी लोकगीतों के माध्यम से एक संदेश परक सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रस्तुतीकरण है। वास्तव में चंदैनी गोंदा भुंइया के बेटा अर्थात् किसान की कभी न खतम होने वाली पीड़ा और शोषण की करूण कथा है। दुष्काल का दुख भोगता किसान का सपना देखता है किसान।
छत्तीसगढ़ी में तो यह दुष्काल या अभाव एकदम स्थायी भाव बनकर बैठ गया है। चंदैनी गोंदा में छत्तीसगढ़ की इसी का साक्षात्कार कराया गया है। यानी चंदैनी गोंदा छत्तीसगढ़ की आत्मा का साक्षात्कार है। इसको यदि विस्तृत फलक पर रख दे तो चंदैनी गोंदा में छत्तीसगढ़ का लोक साहित्य जन जीवन, आचार-विचार, तीज त्यौहार, आस्था एवं अंधविश्वास, कर्मशील, धर्म अर्थात् व्यक्त-अव्यक्त संपूर्ण संस्कृति और रतनपुर से भिलाई तक का इतिहास समाहित है। इस कार्यक्रम की अपनी जो सीमाएं हैं अर्थात् चंदैनी गोंदा छत्तीसगढ़ी संस्कृति एवं सभ्यता की एक दर्द भरी अंतरहीन कविता है।
छत्तीसगढ़ भर में फैले हुए समूचे पचास-साठ कलाकारों को एकत्रित करना, लोकधुनों का संग्रह करना, लोकगीतों को समसामयिक जिन्दगी के निकट ले जाना, लोककलाकारों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति को सर्जनात्मक और सार्थक आयाम देना, एक उद्देश्यपूर्ण कथात्मक का निर्माण करना और स्वयं प्रभावशाली अभिनेता के रूप में शरीक होना-यह रामचन्द्र देशमुख के ही वश की बात थी।
भावुक और संवेदनशील लोगों को एक मंच पर टिकाये रखना कितना मुश्किल काम है। यह सांस्कृतिक संयोजकों से छिपा नहीं है। लोकप्रियता के प्रलोभनों से समझौता करने वाले लोगों की भी इस क्षेत्र में कमी नहीं है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों को अपने संकीर्ण मंतव्य के प्रचार-प्रसार का माध्यम बनाने वाले लोग कहां नहीं मिलते।
लोक कला की आड़ में व्यवसाय करने वाले कितने ही लोकधर्मी कलाकार नुमा लोग आये दिनों अपना उल्लू सीधा करते हैं। ऐसी विकट स्थिति में भी लोक कला का यह मंच गरिमा और सार्थकता से पूर्ण हैं, इसका श्रेय स्व. रामचन्द्र देशमुख की निश्छल कला दृष्टि और संवेदनशील मानवीय आस्था को ही है। अगर उनकी प्रेरक संवेदन और कला-चेतना इसके पीछे नहीं होती तो लोकजीवन की यह मनोरम झांकी बहुत पहले से ही विसर्जित हो जाती।
अब हमें और भी थोड़ा पीछे लौटना होगा। सन् 1947 में आजादी मिली लेकिन खंड-खंड आजादी। हिन्दू और मुसलमान के बीच दीवार पड़ी हुई थी। पृथ्वी थियेटर ने ‘दीवार’ के अनेक स्थलों पर प्रदर्शन किया। दीवार की शुरूआत एक देहाती नाच से शुरू होती थी। श्री रामचन्द्र देशमुख ने नागपुर में कई बार ‘दीवार’ नाटक को देखा। लगभग 1947 के पश्चात् उसके मन में विचार आया कि क्यों न छत्तीसगढ़ी नाचा को राष्ट्रीय मोड़ दिया जाय।
इस विचारधारा के साथ पिनकापार (दुर्ग जिला) इलाके में ’नरक और सरग’ तथा ’जन्म और मरन’ को मंचित किया गया। इनकों बड़ी लोकप्रियता मिली। स्व. ठाकुर प्यारेलाल सिंह के आग्रह पर रायपुर के हिन्दू हाईस्कूल में इन दोनों खेलों का प्रदर्शन सप्ताह भर चला। इसके कुछ काल बाद छत्तीसगढ़ी महासभा आयोजित हुई।
सप्रे हाईस्कूल के प्रांगण में ‘काली माटी’ का प्रदर्शन किया गया। उसका एक दृश्य था-मीना बाजार। श्री हबीब तनवीर खेल की समाप्ति पर आये और उन्होंने ‘काली माटी’ के कलाकारों को दिल्ली ले जाने का प्रस्ताव रखा। श्री हबीब तनवीर की सदाशयता के वशीभूत हो प्रस्ताव स्वीकार कर लिया गया। श्री हबीब तनवीर ने इन लोक कलाकारों की अमिट छाप महानगरीय परिवेश में भी छोड़ी।
06 जुलाई 1971 को श्री हबीब तनवीर बघेरा आये और उन्होंने दाऊ रामचन्द्र देशमुख जी से नाटिकाएं मांगी। पता नहीं क्योंकि श्री हबीब तनवीर ने छत्तीसगढ़ की विद्रूपता को चुना। जैसे-छत्तीसगढ़ में कहीं कुछ श्रेष्ठ है ही जबकि चंदैनी गोंदा छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति और सभ्यता में जो कुछ श्रेष्ठ हैं उसकी साहसिक अभिव्यक्ति है।
साहसिक इसलिए क्योंकि छत्तीसगढ़ी कला मंच पर एक नया आस्वाद लेकर ‘चंदैनी गोंदा’ छत्तीसगढ़ में बहुत कालोपरांत आया और तब तक नाचा ने पूरे छत्तीसगढ़ी मानस को हास्य के सस्तेपन से भर दिया था। प्रसंगवश यहां पर एक आती है- मिस मेयो लिखित ‘मदर इंडिया’ की जिसमें भारत के मात्र अभाव पक्ष का दिग्दर्शन प्रमुखता से कराया गया। इसीलिए समीक्षकों ने मिस मेयो को ’इंस्पेक्ट्रेस ऑफ गटर्स ऑफ इंडिया’ की उपाधि दे डाली थी। तब लाल लाजपतराय ने मदर इंडिया के स्थान पर लिखा था ‘अनहैप्पी इंडिया’ ।
तात्पर्य यह है कि छत्तीसगढ़ में सांस्कृतिक संपन्नता और प्रतिभा का कहीं अभाव नहीं। उसका उपयुक्त दोहन नहीं किया गया। इसलिए एक क्या सभी क्षेत्रों में एक बहुत बड़ा शून्य बन चुका है। पता नहीं यह रिक्तता कब भरी जायेगी ?
इस सब स्थितियों ने ‘चंदैनी गोंदा’ के आविर्भाव को अनिवार्य बता दिया था और यहीं से प्रारंभ हुई थी दाऊ श्री रामचन्द्र देशमुख की कला यात्रा। गांव-गांव, नगर-नगर, भटकना और चोटी के कलाकारों को खोज निकालना जो आज तक अचर्चित थे या फिर छत्तीसगढ़ी स्वभाववश संकोच में लिपटे हुए मौन।
एक से एक स्वर, वाद्य, नृत्य ने अभिनय की इस खोज यात्रा में श्री रामचन्द्र देशमुख ने जो सफलता प्राप्त की वह वास्तव में बड़ी अद्भुत है। एक बार फिर ‘जनम और मरन’, ‘नरग और सरग’ तथा ‘काली माटी’ का यह मंजा हुआ संयोजक कलाकार ‘चंदैनी गोंदा’ में प्रस्तुत हुआ। ‘चंदैनी गोंदा’ में ‘कारी’ तक की यह कला यात्रा किसी न किसी रूप में अवश्य ही जीवित रहे यह हम कामना करते है और महान कला साधक लोक मंच के पुरोधा दाऊ रामचन्द्र देशमुख जी को कोटिशः प्रणाम करते हैं।
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