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13 जुलाई 1660 सुप्रसिद्ध यौद्धा बाजी प्रभुजी देशपाँडे का बलिदान

अंतिम श्वाँस तक युद्ध करके शिवाजी महाराज सुरक्षित विशालगढ़ पहुँचाया

दासत्व की लंबी अंधेरी रात के बाद भी यदि आज भारतीय सँस्कृति का दीप प्रज्वलित है तो इसके पीछे उन वीरों का बलिदान हैं जिन्होंने अंतिम श्वाँस तक संघर्ष करके इसकी ज्योति ठंडी नहीं होने दी । ऐसे ही बलिदानी हैं बाजी प्रभुजी देशपाँडे। जिन्होंने अपनी छोटी सी टोली के साथ आदिलशाही सेना को रोका और शिवाजी महाराज सुरक्षित विशालगढ़ पहुँचाया ।


ऐसे वीर बलिदानी बाजी प्रभुजी देशपांडे की जन्म की तिथि का उल्लेख नहीं मिलता । इतिहासकारों ने उनका जन्म वर्ष 1615 निर्धारित किया है । वे महाराष्ट्र के मावल क्षेत्र के रहने वाले थे । उनका गाँव आजकल कोल्हापुर के अंतर्गत है । तब यह बीजापुर की आदिलशाही के अंतर्गत आता था । बाजीप्रभु बचपन से बहुत वीर और स्वाभिमानी थे ।

पन्हाला किला चारों ओर से घिरा हुआ था और तोपखाना भी गरज रहा था । शिवाजी महाराज को सुरक्षित निकालने की रणनीति बनी । किले के भीतर मराठा सेना को दो भागों में बांटा गया । लगभग 600 सैनिकों एक टुकड़ी ने बाजी प्रभु देशपाँडे के नेतृत्व में शिवाजी महाराज को सुरक्षित निकालने का दायित्व लिया और शेष सेना ने किले के बाहर मोर्चा लेने की रणनीति बनाई । रणनीति के अंतर्गत 12 जुलाई को एक पत्र सिद्दी जौहर को भेजा गया । पत्र में अगले दिन दोपहर तक समर्पण का प्रस्ताव भेजा गया । पत्र देखकर आदिलशाही सेना में जश्न होने लगा । तोपखाना रोक दिया गया । हमलावर सेना के लापरवाह होते ही 12 जुलाई की देर रात शिवाजी महाराज सुरक्षा टोली के साथ गुप्त मार्ग से निकल लिये ।

दासत्व से मुक्ति का भाव उनके मन में बचपन से था । वे जीजाबाई के साथ पुणे आये थे । वे शिवाजी महाराज से आयु में बड़े थे । उनकी वीरता और शस्त्र संचालन में कुशलता देखकर जीजाबाई ने उन्हे शिवाजी महाराज की निजी सुरक्षा टोली में सम्मिलित किया । समय के साथ बड़े हुये और शिवाजी महाराज के हर युद्ध में भाग लिया और अपनी वीरता से शिवाजी महाराज की सेना में उच्चपद प्राप्त किया । विशेषकर 1648 और 1649 में पुरन्दर, कोण्ढाणा और राजापुर के किले जीतने उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही । इससे पूरे मावला क्षेत्र में उनका प्रभाव बढ़ा। 1655 के जावली मोर्चे और जीतने में भी उनकी भूमिका महत्वपूर्ण रही ।

शिवाजी महाराज ने जीत के बाद किले की मरम्मत और सुरक्षित करने का काम भी बाजी प्रभुजी को सौंपा । 1659 में शिवाजी महाराज द्वारा अफजल खाँ का वध करने की रणनीति में पूरा सुरक्षा घेरा बाजी प्रभुजी ने ही बनाया था । अफ़जल खाँ के वध के बाद पार के वन क्षेत्र में आदिलशाही छावनी को बाजी प्रभु ने ध्वस्त किया था ।


अफजल खाँ की मौत के बाद आदिलशाही बौखला गई। आदिलशाही ने दक्षिणी रियासतों के सिद्दीकी, मोगल आदि अन्य अन्य शासकों से सैन्य सहायता ली और तोपखाने के साथ तीस हजार सैनिकों की एक बड़ी फौज शिवाजी महाराज का दमन करने केलिये भेजी । यह जून 1660 की बात है । शिवाजी महाराज पन्हाला किले में थे । इस सेना ने किले को चारों ओर से घेर लिया । यह सेना सिद्धी जौहर और अफजल खाँ के बेटे फाजिल खाँ की कमान में थी । फाजिल खाँ अपने पिता की मौत का बदला लेना चाहता था । किले के भीतर शिवाजी महाराज के साथ सैन्य शक्ति बहुत कम थी । मुश्किल से बारह सौ मराठा सैनिक रहे होंगे। किले में खाद्य सामग्री भी कम थी ।

जिस विशालगढ़ किले में मराठा सेना थी । वह यहाँ से लगभग चालीस मील दूर था । लेकिन शिवाजी महाराज का पन्हाला किले से निकलकर विशालगढ़ पहुँचना सरल न था । पन्हाला किला चारों ओर से घिरा हुआ था और तोपखाना भी गरज रहा था । शिवाजी महाराज को सुरक्षित निकालने की रणनीति बनी । किले के भीतर मराठा सेना को दो भागों में बांटा गया । लगभग 600 सैनिकों एक टुकड़ी ने बाजी प्रभु देशपाँडे के नेतृत्व में शिवाजी महाराज को सुरक्षित निकालने का दायित्व लिया और शेष सेना ने किले के बाहर मोर्चा लेने की रणनीति बनाई ।

रणनीति के अंतर्गत 12 जुलाई को एक पत्र सिद्दी जौहर को भेजा गया । पत्र में अगले दिन दोपहर तक समर्पण का प्रस्ताव भेजा गया । पत्र देखकर आदिलशाही सेना में जश्न होने लगा । तोपखाना रोक दिया गया । हमलावर सेना के लापरवाह होते ही 12 जुलाई की देर रात शिवाजी महाराज सुरक्षा टोली के साथ गुप्त मार्ग से निकल लिये । इस सुरक्षा टोली का नेतृत्व बाजी प्रभु देशपाँडे कर रहे थे । निर्धारित रणनीति के अंतर्गत 13 जुलाई को कुछ सैनिकों के साथ डोला भेजा गया । इसमें शिवाजी महाराज के स्थान पर उनकी कदकाठी का मराठा सैनिक था ।

नकली शिवाजी को देखकर सिद्दी जौहर ने शिवाजी महाराज को पकड़ने केलिये चारों घोड़े दौड़ा दिये । शाम हो चुकी थी । तब तक शिवाजी महाराज लगभग तीस मील की यात्रा पूरी कर चुके थे और घाटी से गुजर रहे थे । फिर भी विशालगढ़ अभी दस मील दूर था । शत्रु की आहट मिलते ही पुनः रणनीति बनी । बाजी प्रभु अपनी सैन्य टोली के साथ घाटी के मुहाने पर रुके और शिवाजी महाराज को विशालगढ़ जाने का आग्रह किया । रणनीति बनी कि शिवाजी महाराज के सुरक्षित विशालगढ़ पहुँचने की सूचना तोप दागकर दे दी जायेगी। शिवाजी महाराज रवाना हुये और बाजी प्रभु ने घाटी के द्वार पर मोर्चा लगा लिया । कुछ ही देर में सिद्दी मसूद और फाजिल खाँ सैनिकों के आ पहुँचे। घाटी सकरी थी । मराठा सैनिकों ने घाटी के भीतर कतारबद्ध मोर्चा लगा लिया था ।

भयानक युद्ध आरंभ हो गया । मशालों के साथ रात भर युद्ध चला । बाजीप्रभु बुरी तरह घायल हो गये पर उन्होंने सिद्दी मसूद और फाजिल खाँ के सैनिकों को भीतर न घुसने दिया । सुबह का सूरज निकल आया । तभी तोप चलने की आवाज आई । जो शिवाजी महाराज के सुरक्षित विशाल गढ़ पहुँचने की सूचना दी । बाजीप्रभु या किसी भी सैनिक का जीवित बचना असंभव था । अंतिम युद्ध हुआ । 13 जुलाई 1660 को बाजीप्रभु सहित सभी सैनिक बलिदान हो गये ।


शिवाजी महाराज को जब बाजीप्रभु के बलिदान का समाचार मिला तो उन्हें बहुत दुख हुआ और उन्होंने बाजी प्रभु की स्मृति को अमर करने केलिये उस घाटी का नाम बाजी प्रभु के नाम पर रख दिया । यह बलिदानी घाटी खिण्ड घाटी कहलाती है। कुछ इतिहासकार बाजी प्रभु के बलिदान होने की तिथि 14 जुलाई मानते हैं। उनका मानना है कि घाटी में यह युद्ध 13 जुलाई को आरंभ हुआ और अगले दिन बलिदान । इनका तर्क है कि शिवाजी महाराज 12 जुलाई की रात किले से निकले थे और युद्ध 13 जुलाई की शाम आरंभ हुआ एवं बलिदान 14 जुलाई को । बलिदान की तिथि 13 जुलाई हो या 14 । एक एक सिपाही के बलिदान ने ही शिवाजी महाराज को सुरक्षित विशालगढ़ पहुँचाया। हिन्दवी स्वराज्य स्थापना में ये बलिदानी मानों इमारत की मजबूत आधार हैं।
कोटिशः नमन इन सभी बलिदानियों को ।

लेखक

श्री रमेश शर्मा
वरिष्ठ पत्रकार, भोपाल

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