यह आलेख भारत की प्राचीन सिंधु-सरस्वती सभ्यता पर केंद्रित है, जिसे पूर्व में हड़प्पा सभ्यता कहा जाता था। 1921-22 के पुरातात्विक उत्खननों से पता चला कि यह सभ्यता मिस्र और मेसोपोटामिया की समकालीन थी। अध्ययन में सरस्वती नदी के विलुप्त होने के वेदों में वर्णित कारणों की वैज्ञानिक पुष्टि हुई है। इसके अलावा, एनसीईआरटी की पुस्तकों में हड़प्पा सभ्यता का नाम बदलकर सिंधु-सरस्वती सभ्यता करने के निर्णय का विश्लेषण और समर्थन किया गया है, जो औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त भारतीय इतिहास की पुनर्व्याख्या का प्रयास है।
भारत की प्राचीनता के प्रमाण आज विश्वपटल पर अंकित हैं। लेकिन एक दौर ऐसा भी था, जब माना जाता था कि सिकंदर के आक्रमण के पूर्व इस देश का कोई इतिहास था ही नहीं। परंतु वर्ष 1921-22 में इतिहास ने करवट ली और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा सिंधु नदी के किनारे स्थित मोहनजोदड़ो व रावी नदी के समीप स्थित हड़प्पा का पुरातात्विक उत्खनन किया गया। दोनों ही स्थानों से प्राप्त समान प्रकार के उन्नत नगरों के अवशेष, मुहरें व अन्य पुरानिधियों से यह सिद्ध हो गया कि भारत भूमि पर पांच हजार वर्ष पूर्व एक उन्नत सभ्यता थी जो मिस्र व मेसोपोटामिया की प्राचीन सभ्यताओं के समकालीन थी।
सर्वप्रथम हड़प्पा नामक पुरास्थल से ही भारत की प्राचीन सभ्यता के विषय में जानकारी प्राप्त हुई थी। इसी कारण इस विशाल सभ्यता को हड़प्पा सभ्यता के नाम से संबोधित किया गया। वर्ष 1947 के पूर्व हुए सर्वेक्षण एवं उत्खनन के फलस्वरूप सिंधु व उसकी सहायक नदियों के किनारे पर इस प्राचीन सभ्यता के अन्य नगरीय केंद्रों के अवशेष प्राप्त हुए, इसलिए इस सभ्यता को प्रारंभ में सिंधु सभ्यता भी कहा गया। इसी प्रकार लगभग 250 पुरास्थल सरस्वती नदी व उनकी सहायक नदियों के किनारे पर स्थित हैं। पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर भारत की इस प्राचीन सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता कहना उचित होगा।
सरस्वती नदी का इतिहास और विलुप्ति: प्रश्न यह भी है कि सरस्वती विलुप्त क्यों हुई? इसका उत्तर भी वेदों में निहित है। ऋग्वेद के छठे मंडल में सरस्वती नदी को सप्तभगिनी कहा गया है, अर्थात जिसमें सात नदियां मिलती हों। वहीं यजुर्वेद में सरस्वती में पांच नदियों के मिलने की बात है। सतलुज और यमुना जो पहले सरस्वती में मिला करती थी, उनके मार्ग में परिवर्तन हुआ और उनका जल सरस्वती से विमुख हो गया जिस कारण सरस्वती नदी सूख गई। इस कारण ही सिंधु सरस्वती सभ्यता का अंत हुआ था। इस प्रकार वेदों में दी गई जानकारी विज्ञान की कसौटी पर खरी उतरती है। सरस्वती नदी का महत्व इसी बात में निहित है कि भारत की प्राचीन सभ्यता के मुख्य नगर जैसे कालीबंगन (राजस्थान), धोलावीरा (गुजरात), राखीगढ़ी आदि सरस्वती व उसकी सहायक नदियों के किनारों पर ही अवस्थित थे।
आधुनिक शोध और बदलाव: उपरोक्त शोध कार्यों को आधार मानते हुए भारत सरकार ने एनसीईआरटी की पुस्तकों में हड़प्पा सभ्यता के स्थान पर सिंधु सरस्वती सभ्यता लिखना तय किया है। परंतु इतने साक्ष्य होने के बावजूद हड़प्पा सभ्यता से सिंधु सरस्वती नामकरण होने में इतना समय क्यों लग गया? कारण सिर्फ इतना है कि विद्वानों का वह समूह जो आज भी औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाया है, वेदों में वर्णित पूजनीय सरस्वती नदी के अस्तित्व को स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। सरस्वती नदी को स्वीकारना अर्थात यह स्वीकारना कि भारत की प्राचीनतम सभ्यता जो सरस्वती नदी के किनारों पर विकसित हुई, वह एक वैदिक सभ्यता थी। साथ ही, यह भी स्वीकारना होगा कि वेद भारतीय संतति की रचना है, किसी बाहरी की नहीं। इस बात को भी स्वीकारना होगा कि मूल निवासी और बाहरी कहकर हिंदू समाज को बांटने का षड्यंत्र भी तथ्यहीन था। उपरोक्त तथ्यों को स्वीकार करना इतिहासकारों के एक समूह के लिए कष्टकारक है। यह तथ्य उनके आकाओं द्वारा भारतीय इतिहास के साथ किए गए खिलवाड़ को ध्वस्त करते हैं, जिसने भारत के कई पीढ़ियों को प्रभावित किया है।
सरकार और पुरातत्वविदों का प्रयास:
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के पुरातत्वविद कई दशकों से सरस्वती के अस्तित्व के साक्ष्य प्रस्तुत कर रहे थे। परंतु देश के विश्वविद्यालयों में बैठे इतिहासकार पुरातत्वविदों के तथ्यों को नकारते रहे। अब लंबे अंतराल के बाद पुरातत्वविदों की बात सरकार ने सुनी है। इससे यह स्पष्ट होता है कि सरकार और समाज अब अपनी प्राचीन धरोहरों को पुनः स्थापित करने और सम्मान देने के लिए सजग हो चुके हैं।
सरस्वती नदी के महत्व को पुनः स्थापित करना न केवल एक ऐतिहासिक कदम है बल्कि यह भारतीय समाज और उसकी जड़ों को समझने का भी एक प्रयास है। यह हमारे इतिहास को सही संदर्भ में रखने और हमारी सभ्यता के गौरवशाली अतीत को पहचानने का एक मार्ग है।
सरस्वती नदी की खोज और इसके प्रमाणों के साथ-साथ, यह भी महत्वपूर्ण है कि हम अपने बच्चों को सही इतिहास पढ़ाएं और उन्हें अपने गौरवशाली अतीत से अवगत कराएं। यही कारण है कि एनसीईआरटी की पुस्तकों में इस बदलाव को शामिल किया गया है, ताकि आने वाली पीढ़ियां सही और सटीक इतिहास से अवगत हो सकें।