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रामचरित मानस में वर्णित ॠषि – मुनि एवं उनके आश्रम

भारत सदैव से ऋषि मुनियों की तपो भूमि रहा है, उनके द्वारा विभिन्न ग्रंथों की रचना की गई। उन्होंने ही हिमालय के प्रथम अक्षर से हि एवं इंदु को मिला कर भारत को हिंदुस्तान नाम दिया। हिन्दू धर्म ग्रंथों के दो भाग श्रुति और स्मृति हैं। श्रुति सबसे बड़ा ग्रन्थ है जिसमे कोई परिवर्तन नही किया जा सकता, परंतु स्मृति में बदलाव सम्भव है। इन्ही स्मृति ग्रंथों में रामायण, महाभारत, श्रीमद भागवत गीता, पुराण, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति, धर्म – शास्त्र, अगम – शास्त्र, भारतीय दर्शन के भाग, सांख्य, योग, वैशेषिक मीमांसा, वेदांत इत्यादि हैं।

गुरु की महिमा को स्वयं ईश्वर ने स्वीकार किया है। ऋषि मुनियों, ब्राह्मण श्रेष्ठ द्वारा सभी विद्याओं में पारंगत होने राजपरिवार से राजपुत्र गुरु के आश्रम में निवास कर शिक्षा दीक्षा ग्रहण करते थे। ऋषि मुनियों के तप, बल और ज्ञान के महत्व को बताने के उद्देश्य से रामचरित मानस जिसे साहित्य जगत में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है इसमें वर्णित ऋषि मुनियों एवं उनके आश्रमों का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम भगवान श्री राम की लीला को देखेंगे।

तुलसी दास कृत रचित रामचरित मानस में वर्णित ऋषि-मुनियों के नाम, महिमा और उनके आश्रमों का उल्लेख किया गया है। जहां श्री रामचंद्र जी ने सीता और भ्राता लक्ष्मण सहित वनवास के समय पधारे और स्वयं उनका आशीर्वाद प्राप्त किया और उन्हें अनुग्रहित करते हुए उनका कल्याण भी किया।

गोस्वामी तुलसीदास जी जैसे अनन्य भक्त ने श्री सीताराम जी की कृपा से उनकी दिव्य लीलाओं का प्रत्यक्ष अनुभव करके यथार्थ वर्णन, साक्षात् भगवान गौरीशंकर जी के आज्ञा से किया, जिसमें भगवान ने स्वयं “सत्यं शिवं सुंदरम” लिखकर प्रमाणित किया। इस अलौकिक ग्रन्थ का अलौकिक प्रभाव आज भी सर्वत्र व्याप्त है। जीवन के मार्ग की बाधाओं और उनके समाधान के लिए रामचरित मानस का पाठ और अनुशीलन परम् आवश्यक है।

गुरु की महिमा को स्वयं ईश्वर ने स्वीकार किया। ऋषि – मुनियों, ब्राह्मण श्रेष्ठ द्वारा सभी विद्याओं में पारंगत होने राजपरिवार से राजपुत्र, गुरु के आश्रम में निवास कर शिक्षा – दीक्षा ग्रहण करते थे। ऋषि – मुनियों के तप, बल और ज्ञान के महत्व को बताने के उद्देश्य से रामचरित मानस जिसे साहित्य जगत में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त है, इसमें वर्णित ऋषि – मुनियों एवं उनके आश्रमों का वर्णन करते हुए सर्वप्रथम भगवान श्री राम की लीला को देखेंगे।

मानव जाति के उत्थान और कल्याण हेतु मानव जीवन के आदर्शों के साथ भक्ति, ज्ञान, वैराग्य, सदाचार की शिक्षा, प्रेम,जीवन के गूढ़ रहस्य को, अवतार लेकर मार्गदर्शक बनकर सामान्य मनुष्य की भांति प्रस्तुत किया।।

रामचरितमानस में बहुत से महान ऋषि-मुनियों एवं आश्रमो का उल्लेख मिलता है, उन्हें ये ज्ञात था कि भगवान विष्णु ने ही राम के रूप में राक्षसों के संहार और मानव जाति के कल्याण हेतु राजा दशरथ और कौसल्या के पुत्र के रूप में जन्म लिया है। बालकाण्ड की चौपाई मे मुनि याज्ञवल्क्य ने भारद्वाज को जिस कथा को सुनाया था –

जागबलिक जो कथा सुहाई,
भरद्वाज मुनि बरहि सुनाई।

प्रभु राम के सुंदर चरित्र को शिव जी ने उमा को सुनाया था –

संभु कीन्ह यह चरित सुहावा,
बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा।

तेहि सन जागबलिक पुनि पावा,
तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा।

तुलसीदास कृत रामचरित मानस में सर्व प्रथम बालकाण्ड में याज्ञवल्क्य मुनि एवं मुनि भरद्वाज जी से साक्षात्कार होता है-

भरद्वाज मुनि बसहि प्रयागा,
तिन्हहि राम पद अति अनुरागा।

भरद्वाज मुनि जिनका आश्रम तीर्थराज प्रयाग में है –

तापस सम दम दया निधाना,
परमारथ पथ परम् सुजाना।

जो तपस्वी,जितेंद्रिय,दायक निधान है। जिन्हें श्री राम के चरणों से अत्यंत प्रेम हैं। माघ माह में जब सूर्य मकर राशि पर आते हैं तब ऋषि मुनि स्नान को प्रयाग आते हैं-

भरद्वाज आश्रम अति पावन,
परम् रम्य मुनिबर मन भावन।

इसके बाद बालकाण्ड में ही विश्वामित्र जी से परिचय प्राप्त होता है।

बिस्वा मित्र महामुनि ग्यानी,
बसहि बिपिन सुभ आश्रम ज्ञानी।

गाधि पुत्र विश्वामित्र जो शुभ आश्रम में निवास करते हुए जप, यज्ञ,योग करते हैं उन्हें ज्ञात हुआ भगवान ने पृथ्वी का भार हरने अवतार लिया है-

गाधि तनय मन चिंता ब्यापि,
हरि बिनु मरहि न निसिचर पापी।

तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा,
प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा।

तो उन्होंने राजा दशरथ से राक्षसों के संहार हेतु मांग लिया-

पुनि चरननि मेले सुत चारी,
राम देखि मुनि देह बिसारी।

असुर समूह सतावाहि मोहि,
मैं जाचन आयउँ नृप तोहि।

अनुज समेत देहु रघुनाथा,
निसिचर वध मैं होब सनाथा

मुनि वसिष्ठ ने राजा के संदेह को दूर किया और राजा ने चारों पुत्रों को ऋषि विश्वामित्र को सौप दिया –

सौंपे भूप रिषिहि सुत, बहु विधि देइ असीस
जननी भवन गये प्रभु चले नाइ पद सीस।

मुनि वसिष्ठ राजगुरु थे अरुंधति इनकी पत्नी थीं –

माता कैकयी द्वारा ,पिता दशरथ से मांगे गए दो वरों को पूर्ण करने श्री राम वन को चले जिसका बहुत ही मार्मिक चित्रण अयोध्याकाण्ड में किया गया है –

सजि बन साजू समाजू सबू बनिता बंधु समेत।
बन्दि बिप्र गुर चरण प्रभु चले करि सबहि अचेत।

निकसि बसिष्ट द्वार भये ठाढ़े,
देखे लोग बिरह द्व दाढ़े।।

वनगमन के समय द्वार पर श्री राम ने वसिष्ठ को खड़े देखा ,सब लोग विरह से व्याकुल हो रहे थे। अयोध्या से प्रभु गंगा तीर आये और केंवट से नाव मांगी उसने कहा –

छुअत सिला भई नारि सुहाई।
पाहन तें न काठ कठिनाई।

तरनिउ मुनि घरिनी होइ जाई,
बाट परई मोरि नाव उड़ाई।।

ऐसा कहकर उसने श्री राम का पाँव पखार कर गंगा पार कराया –

अति आनन्द उमगि अनुरागा।
चरन सरोज पखारन लागा।

यह प्रसंग बहुत ही मनोहारी था एक भक्त के निश्छल प्रेम का जिसका वर्णन छोड़ा नही जा सकता –

वनवास के समय श्री राम, लक्ष्मण और सीता जी की सुंदर प्रीति, वाणी का विषय अनिर्वचनीय है। पशु – पक्षी भी उनकी अलौकिक छबि को देख प्रेमानन्द से भर गए । सभी के चित्त को उनके रूप ने चुरा लिया था। श्री राम, बाल्मीकि जी के आश्रम आये इसका चित्रण अयोध्याकाण्ड में मिलता है-

देखत बन सर सैल सुहाए।
बाल्मीकि आश्रम प्रभु आये।।

श्री रामचंद्रजी को देख मुनि के नेत्र शीतल हो गए सम्मानपूर्वक मुनि उन्हें आश्रम ले आये-

बाल्मीकि मन आनँदु भारी।
मंगल मूरति नयन निहारी।।

राम ने मुनि से पूछा कहाँ रहूँ तो मुनि ने कहा –

पूँछेहु मोहि की रहौं कहँ मैं पूँछत सकुचाई।
जहँ न होहु तहँ देहु कहि ततुम्हहि देखवौं ठाउँ।।

मुनि ने कहा ऐसा कौन सा स्थान है जहां आप ना हों, आप बताएं फिर मैं आपके रहने का स्थान दिखाऊं-

सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने।
सकुचि राम मन महुँ मुसुकाने।।

वाल्मीकि जी ने कहा –

सुनहु राम अब कहउँ निकेता।
जहाँ बसहु सिय लखन समेता।।

चित्रकूट गिरि करहु निवासू।
तहँ तुम्हार सब भाँति सुपासू।।

नदी पुनीत पुरान बखानी।
अत्रि प्रिया निज तप बल आनी।।

अत्रि आदि मुनिबर बहु बसहीं।
करहिं जोग जप तप तन कसहीं।।

चलहु सफल श्रम सब कर करहू।
राम देहु गौरव गिरिबरहू।।

मुनि की आज्ञा से प्रभु राम चित्रकूट आ बसे-

रामचरितमानस के अरण्यकाण्ड में चित्रकूट में बस कर प्रभु राम ने बहुत से चरित्र किये –

रघुपति चित्रकूट बसि नाना।
चरित किये श्रुति सुधा समाना।

यहां से विदा लेकर श्री राम, लक्ष्मण और सीता सहित अत्रि ऋषि के आश्रम पहुंचे, मुनि ने उनका पूजन करते हुए सदैव राम जी के चरणकमल की भक्ति की प्रार्थना की। उनकी पत्नी अनसुइया ने सीता जी को सदैव निर्मल और सुहावने बने रहने वाले वस्त्र एवं आभूषण तो दिए ही साथ में स्त्री धर्म का ज्ञान भी दिया।

धीरज धर्म मित्र अरु नारी,
आपदकाल परिखिअहिं चारी।

मुनि से आज्ञा लेकर श्री राम, सीता और लक्ष्मण सहित शरभंगजी के आश्रम पहुंचे, मुनि ने अपने कल्याणके लिए देह त्याग तक ठहरने की प्रार्थना करते हुए भक्ति का वरदान प्राप्त कर लिया –

तब लगि रहहु दीन हित लागी,
जब लगि मिलौ तुम्हहि तनु त्यागी।

ऐसा कहकर चिता रचकर योगाग्नि से स्वयं को जला लिया और श्री राम की कृपा से बैकुण्ठ को चले गए।

श्री राम ने तो संसार के कल्याण और आश्रितों के उद्धार हेतु मानव लीला की, वनवास तो बहाना था ताकि ईश्वर स्वयं अपने भक्तों को दर्शन दे, उन्हें मोक्ष प्रदान कर सकें। शरभंग जी को अपने चरणकमल में स्थान दे, वे वन में आगे बढ़े जहाँ उनकी भेंट मुनि अगस्त्य के परम ज्ञानी शिष्य सुतीक्ष्ण से हुई तब मुनि ने प्रेम मग्न हो प्रभु राम से प्रगाढ़ भक्ति, वैराग्य, विज्ञान, समस्त गुणों के ज्ञान का वर प्राप्त किया।

अनुज जानकी सहित प्रभु चाप बाण धर राम।
मम हिय गगन इन्दु इव बसहु सदा निहकाम।

इसके पश्चात श्री राम अगस्त्य ऋषि के आश्रम पहुंचे तब मुनि ने साक्षात भगवान के दर्शन से अपने को कृतार्थ करते हुए भक्ति वैराग्य, सत्संग और उनके चरण कमलों में अटूट प्रेम की कामना की। मुनि ने राम जी से दण्डकवन के पवित्र स्थान पंचवटी में मुनि श्रेष्ठ गौतम जी को शाप से मुक्त करने की बात कही –

है प्रभु परम् मनोहर ठाऊँ।
पवन पंचबटी तेहि नाऊँ।।

दंडक बन पुनीत प्रभु करहू।
उग्र साप मुनिबर कर हरहू।।

श्री राम गोदावरी नदी के तट में स्थित पंचवटी में पर्ण कुटीर बना कर रहने लगे, यही उनकी भेंट जटायु से हुई। यहीं रावण की बहन शूर्पणखा दोनों राजकुमारों को देख काम से पीड़ित हो गई, उसने प्रणय निवेदन किया, राम जी ने लक्ष्मण के पास भेजा, उन्होंने कहा –

लछिमन कहा तोहि सो बरई।
जो तृन तोरि लाज परिहरई।।

लक्ष्मण ने उसे बिना नाक-कान के कर दिया।

यहां से गमन करके वे शबरी के आश्रम में पधारे, प्रभु के दर्शन से शबरी को मुनि मतंग के वचनों का स्मरण हो मन प्रफुल्लित हो उठा –

ताहि देइ गति राम उदारा।
सबरी कें आश्रम पगु धारा॥

सबरी देखि राम गृहँ आए। \
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए॥

सबरी ने दोनों भाइयों का चरण पखार कर आसन में सादर बैठा कर रसीले स्वादिष्ठ कन्द – मूल और फल खिलाए।

प्रेम मगन मुख बचन न आवा।
पुनि पुनि पद सरोज सिर नावा।।

सादर जल लै चरन पखारे।
पुनि सुंदर आसन बैठारे।।

कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि।
प्रेम सहित प्रभु खाये बारंबार बखानि।।

श्री राम जी ने शबरी को नवधा भक्ति का ज्ञान दिया । भगवान के दर्शन प्राप्त कर उसने योगाग्नि से देह त्याग कर दुर्लभ हरि पद में लीन हो गई –

छंद-कहि कथा सकल बिलोकि हरि मुख हृदयँ पद पंकज धरे।
तजि जोग पावक देह हरि पद लीन भई जहँ नहिं फिरे।।

जाति हीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि असि नारि।
महमंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहि बिसारि।।

इसके पश्चात श्री राम यहां से आगे प्रस्थान किया और पंपा नामक सरोवर के तीर पर गये –

पुनि प्रभु गये सरोबर तीरा।
पंपा नाम सुभग गंभीरा।।

तँह पुनि सकल देव मुनि आए।
अस्तुति करि निज धाम सिधाए।।

यहां नारद मुनि भगवान राम की चरण वंदना करते हुए भक्ति और नीति का ज्ञान श्री मुख से सुनकर ब्रह्मलोक को चले गए।

श्री रघुनाथ जी आगे चले किष्किंधाकांड में ऋष्य मूक पर्वत का चित्रण है ,जहां सुग्रीव मंत्रियों सहित वास करते थे –

आगे चले बहुरि रघुराया।
रिष्यमूक पर्बत निअराया।।

तहँ रह सचिव सहित सुग्रीवा।
आवत देखि अतुल बल सींवा।।

श्री रामचंद्र जी से हनुमान की भेंट हुई –

प्रभु पहिचानि परेउ गहि चरना।
सो सुख उमा जाई नहि बरना।।

यहां रीछ राज जाम्बवन्त, जटायु के भाई सम्पाती एवं अंगद सहित वानर सेना से श्रीराम की भेंट हुई।

रामचरित मानस में महर्षि नारद मुनि का भी प्रसंग मिलता है। प्रभु श्रीराम जी के द्वारा माया को प्रेरित कर उन्हें मोहित किया गया था, जिसके प्रभाव से वे विवाह करना चाहते थे।”

राम जबहिं प्रेरेउ निज माया।
मोहेहु मोहि सुनहु रघुराया।

तब बिबाह मैं चाहउँ कीन्हा।
प्रभु केहि कारन करै न दीन्हा।।

राम चरित मानस में तुलसीदास जी ने हमारा साक्षात्कार ऋषि, मुनियों से कराया है। भारत में इतने श्रेष्ठ ऋषि मुनि हुए हैं कि उनके ज्ञान का मूल्यांकन कर पाना असंम्भव है। उन्होंने अपने ज्ञान, तप से आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त की और मर्यादित शील, आचरण, अहिंसा, सत्य, परोपकार, त्याग, ईश्वर भक्ति द्वारा समस्त मानव जाति के सामने अनुकरणीय आदर्श प्रस्तुत किया, जो वर्तमान में भी उतने ही प्रासंगिक और लाभकारी हैं।

उनके बताए मार्ग दृढ़ संकल्प के साथ आगे बढ़ने को प्रेरित करते हैं। ऐसे अनेक प्रेरक प्रसंग हैं जो आज भी समस्याओं को सुलझाने में योगदान देते हैं।

वैदिक ग्रंथों में भी कहा गया है कि वेद ज्ञान का प्रथम प्रवक्ता, परोक्षदर्शी, दिव्यदृष्टि वाला, जो ज्ञान के द्वारा मंत्रों को अथवा संसार की चरम सीमा को देखता है वह ऋषि कहलाता है। वेदों की ऋचाओं का साक्षात्कार करने वाले ब्राह्मण ऋषि कहे जाते थे इन्हे सर्वोच्च स्थान प्राप्त था।

हिन्दू धर्म में ज्ञान प्राप्ति के लिए चार महान ग्रन्थ को शामिल किया गया है ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद इन सभी ग्रंथों में मंत्रो की रचना करने वाले कवियों को ऋषि माना गया, जिन ऋषियों ने महान ऋषि होने की पदवी हासिल की उन्हें ही सप्तऋषि तारामंडल में शामिल किया गया।

कश्यपोs त्रिर्वसिष्ठश्च विश्वामित्रोs गौतमः।
जमदग्निर्भरद्वाज इति सप्तर्षयः स्मृताः।।

इस तरह हमें रामचरित मानस में वर्णित एवं उल्लेखित तत्कालीन ॠषि मुनियों के विषय में जानकारी मिलती है। हमारी संस्कृति ॠषि संस्कृति रही है, जो ज्ञान एव भक्ति मार्ग पर चलकर अपने जीवन को संचालित करती है। इन्हीं ॠषि परम्पराओं ने हमारे जीवन को सरल, सहज एवं मानव मात्र को कल्याणकारी होने का मार्ग दिखाया।

संदर्भ ग्रंथ : गोस्वामी तुलसी जी विरचित श्री राम चरित मानस, टीकाकार हनुमान प्रसाद पोद्दार, गीता प्रेस गोरखपुर|

आलेख

श्रीमती रेखा पाण्डेय
हिन्दी व्याख्याता, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

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