छत्तीसगढ़ में भगवान जगन्नाथ का प्रभाव सदियों से रहा है, यह प्रभाव इतना है कि छत्तीसगढ़ के प्रयाग एवं त्रिवेणी तीर्थ राजिम की दर्शन यात्रा बिना जगन्नाथ पुरी तीर्थ की यात्रा अधूरी मानी जाती है। मान्यतानुसार जगन्नाथ पुरी की यात्रा के पश्चात राजिम तीर्थ की यात्रा करना आवश्यक समझा जाता है। राजिम को पद्म क्षेत्र कहा जाता है यहाँ भगवान राजीव लोचन विराजते हैं।
छत्तीसगढ़ की धार्मिक नगरी शिवरीनारायण की मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ को यहीं से पुरी ले जाया गया, जिसके कारण भगवान जगन्नाथ वर्ष में एक दिन माघ पूर्णिमा को शिवरीनारायण धाम पधारते हैं, जो श्रद्धालु भगवान का पुरी जाकर दर्शन नहीं कर सकते वे शिवरीनारायण में भगवान जगन्नाथ का दर्शन कर सकते हैं तथा यहाँ भव्य मेले का आयोजन होता है। भगवान जगन्नाथ के शिवरीनारायण से पुरी जाने की कई कथाएं लोक में प्रचलित हैं। शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी कहना लोक प्रचलन में है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को यहाँ रथयात्रा पर्व धूमधाम से मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ की सीमा साथ उड़ीसा के साथ लगे होने एवं सांस्कृतिक संबंध होने के कारण वहाँ के तीज त्यौहारों का असर छत्तीसगढी जनमानस पर भी दिखाई देता है। यह पर्व छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा के बीच सांस्कृतिक सेतू का कार्य भी करता है तथा राष्ट्र को एकता के सूत्र में भी बांधता है। छत्तीसगढ़ अंचल में रथदूज या रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है, जगह-जगह भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जाती है तथा इस दिन मांगलिक कार्य करना भी शुभ माना जाता है। वैसे तो मुख्य रथयात्रा का पर्व उड़ीसा के पुरी में मनाया जाता है,
समुद्र तट से लेकर हिमालय की तराई क्षेत्र में भी रथ यात्रा निकाली जाती है तथा भगवान जगन्नाथ की आराधना की जाती है, प्राचीन काल से जगन्नाथ पुरी स्थल इतना विख्यात है कि आदि शंकराचार्य से लेकर श्री रामानुजाचार्य, गुरु नानक देव तथा जनश्रुतियों में भगवान बुद्ध के भी जगन्नाथ पुरी पहुंचने का उल्लेख होता है। इस स्थल का इतना महत्व है कि महाराजा रणजीत सिंह ने अपने अंतिम दिनों में की गई वसीयत में अपना प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा जगन्नाथ भगवान को भेंट करने की बात कही थी।
छत्तीसगढ़ी लोक में रचा बसा रथदूज का त्यौहार के राजा महाराजाओं एवं जमीदारों की भगवान जगन्नाथ पर अटूट आस्था दिखाई देती है। अब यह यात्रा लोक से राजा महाराजाओं तक पहुंची या राजा महाराजओं से लोक तक विस्तारित हुई, शोध का विषय है। क्योंकि जो राजधर्म होता है वही प्रजा का धर्म माना जाता था। राजा महाराजाओं ने अपने सामर्थ्य के अनुसार अपने क्षेत्र में भगवान जगन्नाथ के मंदिरों का निर्माण कर उनके विग्रह स्थापित किए एवं रथदूज पर यात्रा निकालना चलन में आया।
छत्तीसगढ़ का लोकमानस रथ दूज के त्यौहार को अत्यंत शुभ मानता है इसलिए इस तिथि को बहू लाने, बेटी विदा करने तथा गृह प्रवेश के साथ अन्य मांगलिक कार्य सम्पन्न किए जाते हैं। इसका एक कारण लोक में भगवान जगन्नाथ के प्रति अगाध आस्था होना दिखाई देता है।
छत्तीसगढ़ की संस्कृति में रथयात्रा पर्व उतना ही महत्व रखता है, जितना उड़ीसा की संस्कृति में। यहाँ प्राचीन काल से यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाया जाता है तथा इस दिन मांगलिक कार्य भी किये जाते हैं। छत्तीसगढ़ की जीवन रेखा महानदी की भूमिका भी इस पर्व में कुछ कम नहीं है। महानदी के तट पर बसे हुए नगरों में इस पर्व को मनाये जाने की परम्परा परिलक्षित होती है।
देवभोग में भगवान को भक्त देते हैं लगान
गरियाबंद जिले के देवभोग स्थित जगन्नाथ मंदिर का इतिहास 150 साल से भी ज्यादा पुराना है। इलाके के 84 गांव के जनसहयोग से जगन्नाथ मंदिर को बनाने में 47 वर्ष लग गए। यह एक मात्र ऐसा मंदिर है, जहां भक्त अपने भगवान को लगान पटाते हैं। लगान के रूप में प्राप्त होने वाले सुगंधित चावल और मूंग का एक भाग पुरी के जगन्नाथ मंदिर में भोग के लिए जाता है। कहते हैं कि देवता के लिए यहाँ से भोग भेजे जाने के कारण ही इस स्थान का नाम देवभोग पड़ा।
शिवरीनारायण एक दिन आते हैं जगन्नाथ भगवान
छत्तीसगढ़ के शिवरीनारायण तीर्थ में रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। प्रो अश्विनी केशरवानी अपने लेख में कहते हैं कि स्कंद पुराण में शबरीनारायण (वर्तमान शिवरीनारायण) को ”श्रीसिंदूरगिरिक्षेत्र”कहा गया है।
प्राचीन काल में यहां शबरों का शासन था। द्वापरयुग के अंतिम चरण में श्रापवश जरा नाम के शबर के तीर से श्रीकृष्ण घायल होकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं। वैदिक रीति से उनका दाह संस्कार किया जाता है। लेकिन उनका मृत शरीर नहीं जलता। तब उस मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित कर दिया जाता है।
आज भी बहुत जगह मृत शरीर के मुख को औपचारिक रूप से जलाकर समुद्र अथवा नदी में प्रवाहित कर दिया जाता है। इधर जरा को बहुत पश्चाताप होता है और जब उसे श्रीकृष्ण के मृत शरीर को समुद्र में प्रवाहित किये जाने का समाचार मिलता है। तब वह तत्काल उस मृत शरीर को ले आता है और इसी श्रीसिंदूरगिरि क्षेत्र में एक जलस्रोत के किनारे बांस के पेड़ के नीचे रखकर उसकी पूजा-अर्चना करने लगा। आगे चलकर वह उसके सामने बैठकर तंत्र मंत्र की साधना करने लगा। इसी मृत शरीर को आगे चलकर “नीलमाधव” कहा गया। इसी नीलमाधव को 14 वीं शताब्दी के उड़िया कवि सरलादास ने पुरी में ले जाकर स्थापित करने की बात कही है।
छत्तीसगढ़ की धार्मिक नगरी शिवरीनारायण की मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ को यहीं से पुरी ले जाया गया, जिसके कारण भगवान जगन्नाथ वर्ष में एक दिन माघ पूर्णिमा को शिवरीनारायण धाम पधारते हैं, जो श्रद्धालु भगवान का पुरी जाकर दर्शन नहीं कर सकते वे शिवरीनारायण में भगवान जगन्नाथ का दर्शन कर सकते हैं तथा यहाँ भव्य मेले का आयोजन होता है। भगवान जगन्नाथ के शिवरीनारायण से पुरी जाने की कई कथाएं लोक में प्रचलित हैं।
शिवरीनारायण को छत्तीसगढ़ की जगन्नाथ पुरी कहना लोक प्रचलन में है। आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को यहाँ रथयात्रा पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। शिवरीनारायण के आस पास के गांवों के लाखों लोग भगवान जगन्नाथ का दर्शन करने एवं गजा मूंग का प्रसाद ग्रहण करने के लिए रथयात्रा के दिन मेले में आते हैं। यह परम्परा प्राचीनकाल से चली आ रही है।
बस्तर का गोंचा पर्व एवं रथयात्रा
प्रदेश के अन्य स्थानों में रथयात्रा मनाने की परम्परा रही है, जिसमें बस्तर का गोंचा पर्व प्रसिद्ध है। बस्तर अंचल में रथयात्रा उत्सव का आरम्भ महाराजा पुरूषोत्तम देव की जगन्नाथपुरी यात्रा के पश्चात् हुआ। इस पर्व के नामकरण के बारे में मान्यता है कि ओड़िसा में सर्वप्रथम राजा इन्द्रद्युम्न ने रथयात्रा प्रारंभ की थी, उनकी पत्नी का नाम ‘गुण्डिचा’ था। ओड़िसा में गुण्डिचा कहा जाने वाला यह पर्व कालान्तर में बस्तर में ‘गोंचा’ कहलाया। लगभग 605 वर्ष पूर्व प्रारंभ की गई रथयात्रा की यह परंपरा आज भी निर्बाध रूप से इस अंचल में प्रचलित है।
मुख्य आकर्षण यह कि यहाँ जगन्नाथ का स्वागत ‘‘तुपकी’’ चलाकर (गार्ड ऑफ़ ऑनर) दिया जाता है। यही नहीं, जगदलपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर के छः खंडों में सात जोड़े विग्रह (जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रादेवी) के अलावा एक मूर्ति केवल जगन्नाथ सहित कुल 22 प्रतिमाओं का एक साथ एक ही मंदिर में स्थापित होना, पूजित होना भी महत्वपूर्ण है। 22 प्रतिमाओं की एक साथ रथयात्रा भी भारत के किसी भी क्षेत्र में नही होती, जैसा कि जगदलपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर में होता है।
जगन्नाथपुरी की तरह ही यहां भी गोंचा पर्व, ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष पूर्णिमा से देव स्नान पूर्णिमा अर्थात चंदन यात्रा से प्रारंभ हो जाता है तथा शास्त्र सम्मत विधि विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। चंदन यात्रा के पश्चात् आषाढ़ कृष्ण पक्ष प्रथमा तिथि से जगन्नाथ 15 दिनों तक अस्वस्थ हो जाते हैं, इस विधान को ‘अनसर’ कहा जाता है। इन 15 दिनों में जगन्नाथ के दर्शन नही हो पाते। 15 दिनों के पश्चात् आषाढ़ शुक्ल पक्ष के प्रथम दिवस में ‘नेत्रोत्सव’ मनाया जाता है। अस्वस्थता के बाद नेत्रोत्सव के दिन जगन्नाथ स्वस्थ होकर श्रद्धालुओं को दर्शन देते हैं।
रायपुर में भगवान जगन्नाथ रथयात्रा
इसके साथ ही रायपुर शहर में भी रथयात्रा पर्व मनाने की परम्परा प्राचीन रही है। पुरानी बस्ती के जगन्नाथ मंदिर को साहूकार मंदिर के नाम से जाना जाता था, लेकिन बाद में भगवान जगन्नाथ की प्रतिमा स्थापित करने के बाद इस मंदिर को नई पहचान मिली। इस मंदिर को 500 साल पुराना माना जा रहा है। इस मंदिर का निर्माण एक अग्रवाल परिवार ने कराया था। अंग्रेजों के जमाने में भी यहां पूजा अर्चना होती थी।
मंदिर परिसर में जगन्नाथ स्वामी के अलावा हनुमान, गरूड़, राम, लक्ष्मण, सीता, संतोषी माता और दो शंकर मंदिर भी हैं। इस मंदिर से भगवान जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा को रथ में सवार करके जन-जन को दर्शन देने रथ यात्रा ओडिशा के जगन्नाथ पुरी की तरह निकाली जाती रही है। इस दौरान जगन्नाथ स्वामी का प्रसाद गजामूंग कहलाता है। भक्तों के बीच इसका वितरण किया जाता है। इस दिन अंचल के निवासी बड़ी संख्या में इस आयोजन का दर्शन लाभ लेते हैं।
रायगढ़ की जगन्नाथ रथयात्रा
रायगढ़ में भी एक शताब्दी पूर्व से रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। जानकार बताते हैं कि कि रायगढ़ रियासत के भूतपूर्व महाराज स्व. भूपदेव सिंह द्वारा आज से करीब एक सौ पंद्रह वर्ष पूर्व रायगढ़ के राजा पारा में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना के साथ-साथ रथोत्सव की शुरूआत की गई थी।
राज परिवार के सूत्रों से मिली जानकारी के अनुसार रायगढ़ रियासत के भूतपूर्व महाराज भूपदेव सिंह की शादी के कई वर्षों तक बाल-बच्चे नहीं हुए जिस पर किसी ने उन्हें जगन्नाथ पुरी में सपत्निक मन्नत मांगने की सलाह दी। उन्होंने पुरी जाकर मन्नत मांगी। इसी दौरान उन्हें एक साधु बाबा मिले जिन्होंने राजा भूपदेव सिंह व उनकी पत्नि को यशस्वी पुत्रों का पिता होने का आशीर्वाद देते हुए कहा कि जब उनकी इच्छा पूरी हो जाए तो अपने रियासत में एक जगन्नाथ मंदिर बनवाकर वहां रथोत्सव परंपरा की नींव डालें। बाद में इसी आशीर्वाद से पुत्र प्राप्ति पश्चात लगभग 1893 के दशक में उनके द्वारा राजमहल के सामने विशाल जगन्नाथ मंदिर का निर्माण कराकर रथोत्सव की परंपरा शुरू की गई। जो कि वर्तमान में भी जारी है।
दादर खुर्द की जगन्नाथ रथयात्रा
कोरबा जिले के दादूर खुर्द में भी रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। यह परम्परा 121वर्षों से चली आ रही है, ग्रामीण बताते हैं कि रामभरोस व उनके छोटे भाई झाड़ूराम थवाइत जगन्नाथ पुरी जाते थे। वहां का उत्साह व लोगों में आस्था देखकर इनके मन में भी अपने ही गांव में मंदिर बनाने की सोच बनी और मंदिर बनाया गया। मंदिर बनाने के पश्चात रथयात्रा उत्सव मनाना प्रारंभ हुआ। इसके साथ ही अब बालको, छूरी एवं दीपका में भी रथयात्रा निकाले जाने लगी है।
किल्ला मंदिर एवं आमदी मंदिर दुर्ग
दुर्ग में किल्ला मंदिर एवं आमदी मंदिर से रथयात्रा निकाली जाती है। किल्ला मंदिर से रथयात्रा डेढ सौ वर्षों से निकाली जा रही है तथा राम मंदिर आमदी से रथयात्रा 1940 से निकाली जाती है। इस तरह दुर्ग शहर में भी प्राचीनकाल से रथयात्रा उत्सव मनाने की परम्परा चली आ रही है। धमधा निवासी नवीन जैन बताते हैं कि दुर्ग जिले के धमधा में भी राम मंदिर से रथयात्रा निकाली जाती है, जिसमें अंचल के ग्रामीण भाग लेते हैं।
पांड़ादाह में जगन्नाथ रथयात्रा
राजनांदगांव में धूमधाम भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जाती है, वहीं राजनांदगांव जिले के पांडादाह में भगवान जगन्नाथ की विरासत कालीन मंदिर है। जहां एक विशेष परंपरा अपनाई जाती है। यहां पर भक्त भगवान जगन्नाथ को अपने कांधे पर बैठकर मंदिर प्रांगण की पांच परिक्रमा करते है। वहीं सुबह सत्यनारायण पूजा संपन्न कराई जाती है। इसके बाद जगन्नाथ भगवान का स्नान और अभिषेक कर भक्तों के कांधों पर मंदिर की परिक्रमा करते हैं। उत्सव की परम्परा का निर्वहन यहाँ लगभग सवा सौ वर्षों से हो रहा है।
कवर्धा में रथयात्रा पर्व
कवर्धा में रथयात्रा जगन्नाथ स्वामी मंदिर (फ़ुटहा मंदिर) से निकाली जाती है। श्री राधाकृष्ण बड़े मन्दिर के निकट उजियार सागर के तट पर भगवान जगन्नाथ स्वामी का रियासत कालीन 19वीं सदी का प्राचीन मन्दिर अवस्थित है। इस मन्दिर के गर्भगृह में भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा देवी और बलभद्र जी की ढाई फीट ऊंची काष्ठ निर्मित दिव्य प्रतिमा विराजमान है यह प्रतिमा मन्दिर निर्माणकाल से बिना परिवर्तन स्थापित है।
मन्दिर के सम्मुख श्री हनुमान जी श्री गणेशजी एवं शिवजी की प्रतिमा है। पूर्वाभिमुख इस मन्दिर के प्रथम पुजारी महंत गोवर्धन दास जी थे उनके बाद साधूदास जी फिर कमलदास जी जिन्हें ऊँट वाले बाबा कहते थे,फिर सीतारामजी जिन्हें सभी जय जगदीश कहते थे क्योंकि जब भी कोई उन्हें प्रणाम करता तो वे जय जगदीश कहते। फिर मिथलेश्वर दास और वर्तमान में खिलेश्वर उर्फ़ दादूदास हैं। रथयात्रा का पर्व यहाँ धूमधाम से मनता है।
राजापारा कांकेर की रथयात्रा
कांकेर राजापारा स्थित मंदिर से भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जाती है, राजापारा जगन्नाथ मंदिर के गर्भगृह से भगवान जगन्नाथ सहित भाई बलभद्र, बहन शुभद्रा, पतित पावन की मूर्तियों को बाहर निकाल रथारुढ़ कर नगर दर्शन कराया जाता है, इस उत्सव में आस पास के गांवों के लोग भगवान जगन्नाथ के दर्शन लाभ लेते हैं।
अम्बिकापुर सरगुजा में रथयात्रा
छत्तीसगढ़ के सुदूर जिले अम्बिकापुर में भी तिवारी बिल्डिंग केदारपुर स्थित जगन्नाथ मंदिर से रथदूज को भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकाली जाती है। इस मंदिर के पुजारी बैकुंठनाथ पंडा बताते हैं कि यहाँ के कंसारी समाज के लोग पुरी दर्शन के लिए जाते थे, इसमें फ़कीर कंसारी, रामचंद कंसारी आदि का नाम प्रमुख है, इन्होंने ही अम्बिकापुर में जगन्नाथ मंदिर की स्थापना की तथा रथयात्रा निकालने का कार्य किया। यहाँ नेत्र उत्सव, छेरा पहरा तथा श्री गुंडिचा रथयात्रा पूजन होता है, उसके बाद एकादशी को बाहुड़ा यात्रा आयोजित की जाती है। सरगुजा में संभाग में, कल्याणपुर, सीतापुर, विश्रामपुर, बैकुंठपुर, खजूरी एवं चिरमिरी में भी रथयात्रा उत्सव का आयोजन होता है।
धमतरी में रथयात्रा
धमतरी निवासी श्री रंजीत भट्टाचार्य ने बताया कि धमतरी नगर में धूमधाम से रथयात्रा निकाली जाती है, दो वर्षों पूर्व इस रथयात्रा का शताब्दी पर्व मनाया गया। भुपेन्द्र सोनी बताते हैं कि राजिम में जगन्नाथ मंदिर से छोटे स्तर पर रथयात्रा निकाली जाती है, परन्तु गोबरा नवापारा के राधाकृष्ण मंदिर से निकाले जाने वाली रथयात्रा भव्य होती है, जिसमें काफ़ी ग्रामीण उपस्थित होकर भगवान जगन्नाथ के दर्शन करते हैं एवं गजामूंग का प्रसाद ग्रहण करते हैं।
बिलासपुर में रथयात्रा पर्व
बिलासपुर में रेल्वे परिक्षेत्र स्थित जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा निकाली जाती है, जो कि मंदिर से निकलकर तितली चौक से होते हुए रेलवे स्टेशन, गिरजा चौक, तारबाहर, गांधी चौक दयालबंद होते हुए मौसी मां के घर (मंदिर प्रांगण) में पहुंचती है। वहीं बाहुड़ा यात्रा के दिन यह यात्रा लौटती है तथा भक्त रथ खींचने के साथ महाप्रभु का आशीर्वाद लेते हैं।
प्राचीन नगरी आरंभ में रथयात्रा पर्व
आरंग के गुप्ता पारा स्थित जगन्नाथ मंदिर से रथयात्रा निकाली जाती है, जिसमें आस पास के ग्रामीण बड़ी संख्या में उपस्थित होते हैं। चांपा मठ मंदिर और नरियरा के राधाकृष्ण मंदिर में आयोजन समिति के सदस्यों द्वारा रथयात्रा का आयोजन किया जाता है। सभी मंदिरों में यात्रा के लिए रथ तैयार किया जाता है। भगवान के रथ को साफ-सफाई कर आकर्षक ढंग से सजाकर रथयात्रा निकाली जाती है।
काशी की रथयात्रा के लिए तखतपुर से दान
दैनिक जागरण में 11 जुलाई 2021 में प्रकाशित कुमार अजय की खबर (काशी में रथयात्रा उत्सव) के अनुसार शैव नगरी काशी में भी रथयात्रा का आयोजन करने में छत्तीसगढ़ की जमीदारी की महत्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है। भोसला शासकों द्वारा यहाँ 1790 से रथयात्रा निकाली जाती थी। यहाँ पंडिट बेनीराम (भोसला राज्य के मंत्री एवं डिप्लोमेटिक एजेंट) तथा पं विश्वम्भर (कटक राज्य के दीवान) की भेंट हुई। इन दोनों ने तत्कालीन भोसला राज्य श्रीमंत वेंको जी से काशी में जगन्नाथ मंदिर बनाने का निवेदन किया। वेंको जी शैव मत के होते भी जगन्नाथ मंदिर बनाने के लिए धनराशि दी तथा रथयात्रा उत्सव मनाने के लिए छत्तीसगढ़ प्रांत के तखतपुर (महाल) का पूरा इलाका ही दान कर इस आशय का ताम्रपत्र पंडित बंधुओं को सौंप दिया। इसके सर्वस्व प्रबंधन का जिम्मा पंडित बेनी राम को मिला।
तुमगांव में रथयात्रा पर्व
तुमगाँव के वरिष्ठ पत्रकार श्री शशि कुमार शर्मा बताते हैं कि महासमुंद जिले के तुमगांव में रथयात्रा कि शुरुवात १९६७ से हुई थी। स्व नेमीचंद श्रीश्रीमाल जो विधायक ने तुमगांव की महिला मण्डल को जनसंपर्क निधि से एक हज़ार रुपये दिया था। उसी में रथ का निर्माण कर रथयात्रा की शुरुआत हुई। उस समय भगवान जगन्नाथ की तस्वीर को रथ में रखकर रथयात्रा निकाली गई।उस समय महिला मण्डल में स्व राही बाई, मुस्किहीन बाई बोदरा आदि थी। बाद में स्व पंडित प्यारे लाल मिश्र द्वारा जगन्नाथ मंदिर का निर्माण जनसहयोग से किया गया। भगवान जगन्नाथ की मूर्ति स्व : कमल नारायण शर्मा द्वारा जगन्नाथ पुरी से लाई गई। नये रथ का निर्माण कराया गया तब से आज तक रथयात्रा चल रही है।
जांजगीर चांपा में रथयात्रा पर्व
जांजगी्र चांपा जिले के नरियरा में राधा कृष्ण मंदिर से भव्य रथयात्रा निकाली जाती है। पिथौरा, बसना, सराईपाली में भी रथ यात्रा का आयोजन किया जाता है। मेरे गृह नगर अभनपुर में भी रथयात्रा लगभग 25 वर्षोंं से राधाकृष्ण मंदिर से निकाली जा रही है।
इस तरह हम देखते हैं कि छत्तीसगढ़ अंचल में रथयात्रा का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन को शुभ माना जाता है तथा इस दिन बेटी को बिदा करने, बहू को लिवा लाने, नये दुकानों की शुरूआत और गृह प्रवेश जैसे महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कराये जाते हैं। छत्तीसगढ़ अंचल के अनेक नगर/ग्रामों में रथदूज को रथयात्रा का पर्व लोक मंगल की कामना को लेकर आयोजित किया जाता है।
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