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ईश्वर का प्यारा छल: एक लघुकथा

मैंने एक ऐसी घटना के बारे में सुना है जब ईश्वर ने अपनी संतानों यानि मानव जाति के साथ छल किया। यह कथा मुझे मेरी दादीमाँ ने मेरे बचपन में सुनाई थी। मेरी दादीमाँ जिन्हे बचपन में मैं बहुत प्रेम करता था और आज भी उनको, उनकी स्मृति को उतना ही प्रेम करता हूँ। यह कथा मेरी यादों में रच बस गई है। वैसे मुझे दादीमाँ की गोद में सर रख कर अनेक कथाएं सुनने का सुख याद है। तो कथा ऐसी है:

ईश्वर ने सृष्टि की रचना की और बड़े ही संतोष से अपनी ही रचना का अवलोकन किया। परन्तु उसे लगा कि अब भी कहीं कोई कमी रह गई है। पृथ्वी पर सौंदर्य तो है परन्तु जीवंतता नहीं है। तो इस कमी को पूरा करने के लिए ईश्वर ने मानव की रचना की तथा मानव जाति को पृथ्वी पर बसाया। चूँकि मनुष्य अज्ञानी, नवनिर्मित और अनुभवहीन था अतः प्रभु ने मनुष्य के साथ पृथ्वी पर ही रहने का निर्णय लिया। समस्त मानव जाति के लिए वह सुन्दरतम समय था। सृष्टि निर्माता ईश्वर स्वयं सबके साथ था। चारों और आनंद ही आनंद था।

प्रभु ने सबको यह धर्मज्ञान दिया कि लोग अच्छे मनुष्य कैसे बनें, भाईचारे से साथ कैसे रहें, एक दूसरे के प्रति कैसे प्रेम और समर्पण मन में हो। करुणा, दया, जीवन मूल्योँ और कर्तव्यों का भी भान कराया। पूरी मानव जाति के लिए वह अद्भुत समय था। प्रभु स्वयं परमपिता, रक्षक और गुरु के रूप में सबके साथ था।
एक दिन प्रभु को लगा कि मनुष्य अब पर्याप्त परिपक्व और अनुभवी हो गया है। उसने अपनी सन्तानो को अपने सम्मुख बुलाया और कहा, ” मेरे बच्चों तुम मेरी सर्वश्रेष्ठ कृति हो और मैं तुम सब से बहुत प्रसन्न हूँ। यह सुन्दर पृथ्वी, तुम्हारा निवास स्थान, धन धन्य से परिपूर्ण है। यहाँ इतना है कि तुम सब की उचित आवश्यकताएं अनंत काल तक पूरी होती रहेंगी। बस लालच कोई कभी न करे। तुम सब ने मेरा दिया हुआ ज्ञान सिख लिया है। तो अब समय आ गया है जब मुझे तुम सबसे विदा लेनी चाहिए।


मानवों की भीड़ पर सन्नाटा छा गया। किसी को समझ नहीं आ रहा था कि प्रभु की घोषणा पर क्या प्रतिक्रिया करें। कुछ समय बाद एक स्त्री उठी और रुंधे गले से ईश्वर से बोली, “हे परमपिता, क्या आप हम सब को, जो आपकी ही संतानें हैं, छोड़ कर जा रहे हैं? आप तो शक्तिपुंज हैं, त्रिकाल दर्शी हैं। आपके हमारे साथ होने से हम सुरक्षित अनुभव करते हैं। कृपया अपने बच्चों का इस तरह परित्याग न करें। आप यहीं रहें, हमारे साथ। ”

“नहीं पुत्री यह संभव नहीं”, प्रभु ने कहा। “तुम सब मेरा ही अंश हो, प्रतिरूप हो। क्या तुम सबको ज्ञात है इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि आपको स्वतंत्र होना ही है और धर्म का पालन करते रहना है।”
प्रभु का लौट जाने का प्रस्ताव मानवजाति को स्वीकार्य नहीं था। सब विषाद से भर गए। सब यंत्रवत अपनी दिनचर्या में लगे रहते।उत्साह का कहीं नामोनिशान ही नहीं था। सब धर्म में प्रवृत्त थे परन्तु भारी ह्रदय से। अपनी संतानों की उदासी कृपानिधान ईश्वर से नहीं देखी गई और वे अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने को सहमत हो गए।

ईश्वर ने कहा, ” एक पिता अपनी संतानों के समक्ष विवश हो ही जाता है। सो मैंने निश्चय किया है कि तुम्हारी बात मान लूँ। मैं तुम सब से दूर नहीं जाऊंगा और अनादि काल तक इसी पृथ्वी पर ही रहूँगा। प्रभु की जयजयकार से पूरी पृथ्वी पर गूंज उठी. सारे मनुष्य नाच उठे. वृक्ष झूमने लगे. नदियों की कलकल जैसे नाचने वालों को थाप देने लगी. पक्षियों का कलरव भी जैकारे में सम्मिलित हो गया. लोग एक दूसरे तो बधाइयाँ देने लगे, गले मिलने लगे। उल्लास, नृत्य, प्रसन्नता का जैसे उत्सव ही आ गया.
ईश्वर मुस्काए और सोचा, “मेरी संतानों को उत्सव मनाना भी आ गया. मैं प्रसन्न हूँ. “

जब भीड़ की उत्तेजना शांत हुए तो प्रभु ने कहा, “परन्तु मेरी एक शर्त है।”
“हमें कोई भी शर्त स्वीकार है।”, सबने कहा.
प्रभु ने पूछा, “क्या जानना नहीं चाहोगे कि वह शर्त क्या है?”
भीड़ ने चिल्लाकर कहा, “हम नहीं जानना चाहते.”
ईश्वर ने कहा,”ठीक है. तुम सबने मेरी शर्त स्वीकार कर ली है तो जान लो की वह शर्त क्या है. मैं तुम सबके साथ इसी पृथ्वी पर ही रहूँगा परन्तु किसी अज्ञात स्थान पर जाकर विश्राम करूँगा.”

लोगों के बिच फिर से हलचल मच गई। उनको समझ में आ गया कि उन्होंने भोलेपन में दूसरी बार जल्दबाजी कर दी थी. उनके धैर्य रखना चाहिए था और प्रभु के प्रस्ताव पर सोच कर निर्णय लेना चाहिए था. उन्होंने कहा, ” हम आपके दर्शन के बगैर, आपकी हम सब के बिच उपस्थिति के बगैर, आपके मार्गदर्शन के बगैर नहीं रह सकते. यदि आप की कृपादृष्टि न रही तो हम अपने धर्मपथ से भटक जायेंगे. ” परन्तु अब क्या हो सकता था. प्रभु ने निर्णय कर लिया था.

प्रभु ने कहा, ” मैंने तुम सबको उचित अवसर दिया था और तुम लोगों ने एक निर्णय ले लिया जिसे मैंने मान लिया. अब तुम सब अपने निर्णय से वचनबद्ध हो. क्या तुम सब अपना मुझे दिया हुआ वचन भंग करना चाहते हो?”

लोग पुनः दुखी हो गए क्योंकि परमपिता उनसे दूर जा रहे थे. उन्होंने प्रभु से क्षमायाचना की और कातर हो कर पुनर्विचार करने को कहा. प्रभु ने सस्मित कहा, ” पूरा निर्णय तो बदला नहीं जा सकता परन्तु कुछ रियायत और सुविधा अवश्य ही दी जा सकती है. चलो मैं वचन देता हूँ की चौबीस घंटों में एक बार तुम सबसे अवश्य मिलूंगा.

दूध का जला छाछ भी फूंक फूंक कर पीता है। लोगों ने घूर कर संदेह से अपने पिता की ओर देखा। प्रभु मुस्काये और कहा, ” सही सोच रहे हो तुम सब. कुछ शर्तें यहाँ भी हैं. मैं दिन में एक बार तुम सब से अवश्य मिलूंगा परन्तु मैं किस रूप में तुम्हारे समक्ष आऊंगा यह मेरा निर्णय होगा. मैं किसी भी रूप में आ सकता हूँ जैसे एक पशु, गौ, गिलहरी, गौरैय्या, कोई पक्षी, घास का तिनका, पुष्प, वृक्ष, नदी की लहर, पवन का झोंका, नीलगगन में उड़ता एक बादल, अतिथि, भिक्षुक, मित्र, माता, पिता, पत्नी, संतान, शिशु। मैं अपने वचन का पालन करूँगा और किसी न किसी रूप में तुमसे प्रतिदिन मिलूंगा. बस तुम जान नहीं पाओगे कि मैं किस रूप में आया हूँ.

किसी ने पूछा, “प्रभु आप हमारे सामने कुछ निश्चित रूपों में से एक में आएंगे तो हम आपको पहचानेंगे कैसे?”प्रभु ने कहा, ” मैंने कहा है कि मैं किसी भी रूप में आऊंगा, निश्चित रूप में नहीं. तुम्हारे सम्मुख यह ईश्वर ही है ऐसे नहीं पहचान पाओगे. यदि मैं एक गौ के रूप में आऊं तो एक साधारण गौ जैसा ही दिखूंगा. मुझे ईश्वर रूप में पहचानने का कोई उपाय नहीं होगा. यदि मैं किसी वृक्ष की पत्ती के रूप में होऊं तो अन्य पत्तिओं के जैसा हरा और जिवंत होऊंगा. “प्रभु आप अपना हम पर किया हुआ सबसे बड़ा उपकार वापस ले रहे हैं। वर्तमान में और अनादि काल तक आप की हम सब के बिच उपस्थिति ही आप का सब से बड़ा उपहार और उपकार है। यदि आपने यही वापस ले लिया तो हम बहुत दरिद्र हो जायेंगे.

“इतने कृतघ्न मत बनो मेरी संतानों। मैंने तुम्हे कितना कुछ दिया है. यह सश्य श्यामला, रत्न गर्भा पृथ्वी, विवेक, बुद्धि, प्रत्युन्नमति, जिजीविषा, साहस और प्रेम आदि. क्या ये सब यहाँ एक सार्थक, परमार्थी तथा धार्मिक जीवन व्यतीत करने के लिए पर्याप्त नहीं है ? प्रभु ने आगे कहा, ” अभी तुम सब सद्पथ पर चलने वाले और एक आयामी हो. तुम्हे पूर्ण करने के लिए मैं अब तुममे कुछ और गुण डाल रहा हूँ. ये सब भावनाएं शनैः शनैः तुममे जागृत होंगी. तुम्हे इन पर नियंत्रण करना है ताकि तुम एक दूसरे के प्रति सद्भावनापूर्ण हो सको. सो ईश्वर की इच्छा से मनुष्य के स्वभाव में लालसा, क्रोध, अहंकार, मोह, वासना, लालच, ईर्ष्या जैसी नकारात्मक भावनाओं का प्रादुर्भाव हुआ. एक कथा लेखक के रूप में मैं पाठकों के विवेक पर छोड़ता हूँ कि वे निर्णय करें कि क्या आज हम प्रभु की इच्छा के अनुरूप अच्छे मनुष्य बने हैं या मार्ग से भटक गए हैं.

दादीमाँ ने अपनी कहानी यह कहते हुए यहीं ख़त्म कर दी थी, “प्रभु आज भी अपने वचन पर कायम हैं और दिन में एक बार हम सबसे मिलने अजाने रूप में हमारे सामने आते ही हैं. उस समय के मेरे अपरिपक्व मन ने तब इस कहानी का मर्म नहीं समझा था. परन्तु कथा कहीं मेरी स्मृति ने अंकित हो गई थी।

यथा समय मैं वयस्क हुआ, शिक्षित हुआ, सरकारी बैंक में अफसर बना और आज मेरा अपना परिवार है और मैं प्रौढ़ हो गया हूँ. दादीमाँ की कहानी का सच्चा मर्म जीवन में बहुत बाद में मेरी समझ में आया। वे यह कहना चाहती थीं कि मनुष्य के रूप में हम सब को सब से प्रेम करना चाहिए। एक दूसरे का सम्मान करना चाहिए. हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि प्रभु हमसे मिलने आने वाले हैं. हमारे सम्मुख जो भी है वह स्वयं प्रभु भी हो सकते हैं. उन्हें भी तो अपना वचन निभाना है. अतः प्रति क्षण अहोभाव से भरे रहने का, कृतज्ञ बने रहने का प्रयत्न करें. सो कल जब आप नींद से जागें तो याद रखें कि दिन में आप को प्रभु का स्वागत करना है। सब के साथ सद्व्यवहार करें।

किसी के साथ भी असभ्य, क्रूर, अपमानजनक, लापरवाह, क्रोधित, लालची न बनें। प्रभु के स्वागत के लिए कृतज्ञ, प्रेमपूर्ण और सम्मानपूर्ण बने रहें। निश्तिंत रहें कि यदि आप सन्मार्ग पर चल रहें हैं तो ईश्वर सदैव आपके साथ ही है। वे आप के कर्म, प्रारब्ध, उपलब्धियों और असफ़लताओं में बाधा नहीं बनेंगे। प्रभु ने आपके पूर्ण स्वतंत्रता दी है। यदि आप सद्धर्म पर चले तो रात्रि संतोष की गहरी नींद सोयेंगे और दूसरे दिन जब जागेंगे तो पिछले दिन की तुलना में अधिक अच्छे मनुष्य होंगे ।

श्री ललित वाढेर,
लेखक एवं स्तंभकार,
रायपुर, छत्तीसगढ़

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