यूँ तो भारत के इतिहास में राष्ट्र, संस्कृति समाज और स्वाभिमान रक्षा के लिये प्रतिदिन किसी न किसी न किसी क्राँतिकारी के बलिदान से जुड़ी है पर 18 अप्रैल की तिथि दो ऐसे महान क्राँतिकारियों के बलिदान की याद दिलाती है जिन्होंने जीवन की अंतिम श्वाँस तक संघर्ष किया और दोनों को उनके अपने विश्वस्त लोगों ने ही अंग्रेजों के हाथों सौंप दिया।
एक महान क्राँतिकारी तात्या टोपे थे जिन्होंने विलुप्त होती 1857 की क्रांति को अपनी अकेली दम पर लगभग एक वर्ष तक जीवन्त बनाये रखा। इनका बलिदान 18 अप्रैल 1859 को हुआ और दूसरे बलिदानी दामोदर चाफेकर हैं जिन्होंने युवकों की टोली बनाकर पुणे में आतंक और अत्याचार का प्रतिकार किया। अंग्रेज अफसर को गोली मारकर मौत के घाट उतारा। दामोदर चाफेकर का बलिदान 18 अप्रैल 1899 में हुआ।
महान क्राँतिकारी तात्या टोपे
अपनी अकेली दम पर लगभग एक वर्ष तक क्राँति को जीवन्त रखने और पूरे भारत में अंग्रेजों को छकाने वाले महान क्राँतिकारी तात्या टोपे का जन्म 16 फरवरी 1814 को महाराष्ट्र के नासिक जिले के अंतर्गत येवला ग्राम में हुआ था। (कुछ विद्वान उनकी जन्मतिथि 6 जनवरी भी मानते हैं) उनके पिता मराठा साम्राज्य के पेशवा बाजीराव द्वितीय के विश्वस्त सहयोगी थे। घर में ओज और सांस्कृतिक चेतना दोनों का वातावरण था।
जब मराठा साम्राज्य का पतन हुआ एवं पेशवा को बिठूर आना पड़ा तो पाँडुराव भी 1818 में बिठूर आ गये। इसलिये तात्या का बचपन बिठूर में ही बीता। नामकरण संस्कार में उनका नाम रामचंद्र पाण्डुरंग राव यवलकर रखा गया था। पिता मूलतः यवलकर ही थे। लेकिन भट्ट उनका गोत्र था। इसलिए पिता के नाम के आगे भट्ट ही संबोधन लगता था। तात्या को भी लोग रामचंद्र यवलकर की बजाय स्नेह से “तात्या” के नाम से पुकारते थे और वे इसी नाम से प्रसिद्ध हुये।
तात्या ने कुछ दिन बंगाल सेना की तोपखाना रेजीमेंट में भी काम किया। इस कारण उनका नाम टोपे पड़ा। लेकिन स्वत्व और स्वाभिमानी विचार के चलते नौकरी छोड़कर पुनः बाजीराव द्वितीय सेवा में आ गये। समय के साथ उनका विवाह हुआ और दो संतान भी हुई। उनकी बेटी का नाम मनुताई व बेटे का नाम सखाराम था। इधर बाजीराव द्वितीय का निधन हुआ और नाना साहब ने पेशवाई संभाली।
तात्या और नाना साहब लगभग समान आयु के थे।अंग्रेजों की दमन नीति के विरुद्ध जन असंतोष पहले से थे पर 1953 के आसपास रियासतों में संगठन आरंभ किया। इसके लिये यदि स्वामी दयानंद सरस्वती और अन्य संत सामाजिक चेतना का संचार कर रहे थे तो तात्या टोपे ने उत्तर मध्य और मालवा की रियासतों से संपर्क कर एक वातावरण बनाया। इसमें रियासतों में अंग्रेजी सेना के उन सैनिकों का सहयोग मिला जो अंग्रेज अधिकारियों के दमनात्मक रवैये से क्षुब्ध थे और अंततः क्राँति की तिथि तय हुई और 1857 में पूरे देश में ज्वाला धधक उठी।
अधिकांश रियासतों ने और कानपुर के सैनिकों ने नाना साहब पेशवा और अपना नायक घोषित कर दिया यह भूमिका तात्या टोपे ने ही बनाई थी। तात्या टोपे को नाना साहब ने तात्या को अपना सैनिक सलाहकार नियुक्त किया। इस क्रांति का दमन करने के लिये ब्रिगेडियर जनरल हैवलॉक की कमान में अंग्रेजी सेना ने कानपुर पर धावा बोला। तब तात्या के नेतृत्व में भीषण युद्ध हुआ अंततः 16 जुलाई, 1857 को अंग्रेजों का कानपुर पर पुनः अधिकार हो गया।
तात्या टोपे ने कानपुर छोड़ा और शीघ्र ही अपनी सेना पुनर्गठित की। वे सेना सहित बिठूर पहुँच गये और पुनः कानपुर पर हमले की योजना बनाने लगे। लेकिन किसी विश्वासघाती ने अंग्रेजों को खबर कर दी और हैवलॉक ने ही बिठूर पर आक्रमण कर दिया।
तात्या ने बिठूर भी खाली किया और ग्वालियर क्षेत्र में आये। वे ग्वालियर में कन्टिजेन्ट नाम की प्रसिद्ध सैनिक टुकडी को अपनी ओर मिलाने में सफल हो गये। और एक बड़ी सेना के साथ काल्पी पहुँचे। पहले काल्पी पर अधिकार किया और फिर नवंबर 1857 में कानपुर पर आक्रमण किया। मेजर जनरल विन्ढल के कमान में कानपुर की सुरक्षा के लिए स्थित अंग्रेज सेना तितर-बितर होकर भागी । तात्या को सफलता तो मिली परंतु यह जीत थोडे समय के लिए ही रही।
ब्रिटिश सेनापति कॉलिन कैम्पबेल ने कानपुर को घेरा और छह दिसंबर को पुनः अधिकार कर लिया। अब तात्या टोपे खारी चले गये और वहाँ नगर पर कब्जा कर लिया। खारी में उन्होंने अनेक तोपें और तीन लाख रुपये प्राप्त किए। इसी बीच 22 मार्च को जनरल ह्यूरोज ने झाँसी पर घेरा डाला। तब तात्या टोपे लगभग 20000 सैनिकों के साथ रानी लक्ष्मी बाई की मदद के लिए पहुँचे। ब्रिटिश सेना तात्या टोपे और रानी की सेना से घिर गयी। अंततः रानी की विजय हुई। रानी और तात्या टोपे इसके बाद काल्पी पहुँचे।
कानपुर, चरखारी, झाँसी और कोंच की लडाइयों की कमान तात्या टोपे के हाथ में थी। चरखारी को छोडकर दुर्भाग्य से अन्य स्थानों पर उनकी पराजय हो गयी। तात्या टोपे अत्यंत योग्य सेनापति थे। कोंच की पराजय के बाद उन्हें यह समझते देर न लगी कि यदि कोई नया और जोरदार कदम नहीं उठाया गया तो स्वाधीनता सेनानियों की पराजय हो जायेगी। इसलिए तात्या ने काल्पी की सुरक्षा का भार झांसी की रानी और अपने अन्य सहयोगियों पर छोड़कर ग्वालियर चले गये।
जब ह्यूरोज काल्पी की विजय का जश्न मना रहा था, तब तात्या ने अचानक धावा बोला और अंग्रेज सेना को भागना पड़ा। तात्या का जवाबी हमला अविश्वसनीय था। उन्होंने महाराजा जयाजी राव सिंधिया की सेना को अपनी ओर मिला लिया था और ग्वालियर किले पर अधिकार कर लिया था। झाँसी की रानी, तात्या और नाना साहब ने जीत के डंके बजाते हुए ग्वालियर में प्रवेश किया और नाना साहब को पेशवा घोषित किया गया।
परंतु इसके पहले कि तात्या टोपे अपनी शक्ति को संगठित करते, ह्यूरोज ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। उसके साथ दतिया और भोपाल रियासतों की सेनायें भी साथ थीं। फूलबाग के पास हुए युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई 18 जून, 1858 को बलिदान हो गयीं। इसके साथ ही अंग्रेजों का लगभग पूरे भारत पर पुनः अधिकार हो गया था । पर तात्या ने पराजय स्वीकार न की । उन्होंने अपनी अकेली दम पर एक वर्ष तक अंग्रेजी सेना को झकझोरे रखा।
तात्या ने ऐसे छापेमार युद्ध का संचालन किया जिससे उनकी गणना दुनियाँ के श्रेष्ठतम छापामार योद्धों में होती है । तत्कालीन अंग्रेज लेखक सिलवेस्टर ने लिखा है कि ’’हजारों बार तात्या टोपे का पीछा किया गया और एक दिन में चालीस-चालीस मील तक घोडों को दौडाया गया, परंतु तात्या टोपे को पकडने में कभी सफलता नहीं मिली।‘‘ यह उनका अद्भुत युद्ध कौशल था।
ग्वालियर से निकल कर तात्या राजगढ़ मध्यप्रदेश, राजस्थान, लौटकर पुनः मध्यप्रदेश ब्यावरा, सिरोंज, भोपाल, नर्मदापुरम, बैतूल, असीरगढ़ आदि स्थानों पर गये। लगभग हर स्थान पर उनकी अंग्रेज सेना से झड़प होती और वे सुरक्षित आगे निकल जाते। किन्तु परोन के जंगल में उनके साथ विश्वासघात हुआ। नरवर का राजा मानसिंह अंग्रेजों से मिल गया और तात्या 7 अप्रैल 1859 को सोते में पकड लिए गये और शिवपुरी लाये गये ।
शिवपुरी में 15 अप्रैल, 1859 को कोर्ट मार्शल किया गया। यह केवल दिगावा था । उन्हें मृत्युदंड घोषित किया गया । और तीन दिन बाद 18 अप्रैल 1859 को शाम चार बजे तात्या को बाहर लाया गया और हजारों लोगों की उपस्थिति में खुले मैदान में फाँसी पर लटका दिया गया। फाँसी के चबूतरे पर तात्या दृढ कदमों से ऊपर चढे और फंदे को स्वयं अपना गले में डाल लिया।
कर्नल मालेसन ने 1857 की क्रांति का इतिहास में लिखा है कि “तात्या टोपे चम्बल, नर्मदा और पार्वती की घाटियों के निवासियों के ’हीरो‘ बन गये हैं”। सच तो ये है कि तात्या सारे भारत के ’हीरो‘ हैं।
दामोदर हरि चाफेकर
दामोदर हरि चाफेकर एक ऐसे क्राँतिकारी थे जिनका पूरा परिवार राष्ट्र और संस्कृति रक्षा केलिये बलिदान हुआ तीन भाइयों को तो फाँसी हुई और पूरे परिवार को भंयकर प्रताड़ना दी गई। इस परिवार का संघर्ष सत्ता केलिये नहीं था। समाज और संस्कृति की रक्षा के लिये था। इसी वातावरण में उनका जन्म हुआ और इसी में बलिदान हुआ।
बलिदानी दामोदर हरि चाफेकर का जन्म 25 जून 1869 को पुणे के ग्राम चिंचवड़ में हुआ। पीढियों से उनका परिवार भारतीय सांस्कृतिक गौरव की प्रतिष्ठापना में समर्पित था। पिता हरिपंत चाफेकर एक सुप्रसिद्ध कीर्तनकार थे। दामोदर उनके ज्येष्ठ पुत्र थे। उनके दो छोटे भाई बालकृष्ण चाफेकर एवं वसुदेव चाफेकर थे। बचपन से ही तीनों भाइयों ने पिता के साथ संकीर्तन में जाना आरंभ किया और प्रसिद्धी भी मिली ।
इस परिवार के पूर्वजों ने शिवाजी महाराज के हिन्दु पद्पादशाही की स्थपना से लेकर बाजीराव पेशवा तक अनेक युद्धों में सहभागिता की थी, बलिदान भी हुये। पूर्वजों की वीरता की कहानियाँ तीनों भाई घर में बहुत चाव से सुनते थे। जिन्हे सुनकर तीनों के मन में परतंत्र शासन की ज्यादतियों के प्रति गुस्सा और स्वाभिमान संपन्न स्वशासन की ललक जाग्रत हो गई। ऐसी ही कहानियाँ सुनकर दामोदर के मन में भी सैनिक बनने की इच्छा जाग्रत हो गई। समय के साथ बड़े हुये और महर्षि पटवर्धन तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के संपर्क में आये। उनके संपर्क से संकल्प शक्ति और कार्य योजना जाग्रत हुई।
तिलकजी की प्रेरणा से दामोदर जी ने युवकों को संस्कारित और एक संगठित करने का बीड़ा उठाया और व्यायाम मंडल के नाम से एक संस्था तैयार की। दामोदर के मन में ब्रिटिश सत्ता के प्रति कितना गुस्सा था इसका अनुमान इस एक घटना से ही लगाया जा सकता है कि उन्होंने मुम्बई में रानी विक्टोरिया के पुतले पर तारकोल पोतकर गले में जूतों की माला पहना दी थी।
समाज में स्वत्व और स्वाभिमान का भाव जाग्रत करने के लिये तीनों भाइयों ने बालवय में 1894 पूना में प्रति वर्ष शिवाजी एवं गणपति समारोह का आयोजन प्रारंभ कर दिया था। इन समारोहों में वे संस्कृत के श्लोकों में शिवाजी महाराज की गाथा सुनाया करते थे। इनमें शिवाजी महाराज की कीर्ति का तो गान होता ही साथ ही इन श्लोकों के माध्यम से समाज में ओज जाग्रत करने का काम करते थे। यह संदेश देते थे कि स्वाधीनता नाचने गाने से प्राप्त नहीं की जा सकती।
स्वाधीनता प्राप्त करने के लिये आवश्यक है कि शिवाजी और पेशवा बाजीराव की भाँति काम किए जाएं। आज हर भले आदमी को तलवार और ढाल पकड़ने की आवश्यकता है भले इसमें प्राणों का उत्सर्ग हो जाये। एक श्लोक में तो यहाँ तक आव्हान था कि धरती पर उन दुश्मनों का ख़ून बहा देंगे, जो हमारे धर्म का विनाश कर रहे हैं। हम तो मारकर मर जाएंगे। ऐसे अनेक आव्हान थे।
गणपतिजी के श्लोक में धर्म और गाय की रक्षा करने का आव्हान था। अधिकांश दामोदर और उनके पिता द्वारा रचित थे। एक श्लोक का अर्थ था कि “ये अंग्रेज़ कसाइयों की भाँति हमारी गायों और उनके बछड़ों को मार रहे हैं। गौमाता संकट से मुक्ति की पुकार लगा रही है ” वीर बनों, वीरता दिखाओ धरती पर बोझ न बनो आदि।
तभी 1897 में प्लेग की बीमारी फैली। पुणे भी उन नगरों में से था जहाँ इस बीमारी ने कोहराम मचा दिया। फिर भी अंग्रेजों की वसूली न रुकी। पीड़ित और बेबस लोगों पर अंग्रेजों के अत्याचार कम न हुये। उन दिनों पुणे में वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट नामक ये दो अधिकारी तैनात थे। इन दोनों लोगों को जबरन पुणे से निकाल कर बाहर करने लगे ताकि वहाँ रहने वाले अंग्रेज परिवारों में संक्रमण का खतरा न रहे।
इनके आदेश पर पुलिस जूते पहनकर ही हिन्दुओं के घरों में घुसती न पूजा घर की मर्यादा बची न रसोई घर की। प्लेग पीड़ितों की सहायता की बजाय उन्हे और प्रताड़ित किया जाने लगा। ये तीनों चाफेकर बंधु परिस्थिति से आहत हुये और मन ही मन इसका उपचार खोजने लगे। समाधान समझने के लिये एक दिन तीनों भाई तिलक जी के पास पहुँचे।
तिलक जी ने इन तीनों चाफेकर बन्धुओं से कहा- “शिवाजी महाराज ने अत्याचार सहा नहीं था पूरी शक्ति और युक्ति से विरोध किया था। किन्तु इस समय अंग्रेजों के अत्याचार के विरोध में कोई कुछ न कर रहा। वस इसी दिन से तीनों क्रांति के मार्ग पर चल पड़े। तीनों अपने शब्दों और स्वर से क्राँति की अलख तो जगा ही रहे थे। अब इसके बाद तीनों भाइयों ने स्वयं ही सशस्त्र क्रान्ति का मार्ग अपना लिया। संकल्प लिया कि समाज को अंग्रेजों के अत्याचार से मुक्ति दिलाकर रहेंगे।
वह 22 जून 1897 का दिन था। पुणे के “गवर्नमेन्ट हाउस’ में महारानी विक्टोरिया की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर राज्यारोहण की हीरक जयन्ती मनायी जा रही थी। इसमें वाल्टर चार्ल्स रैण्ड और आयर्स्ट भी शामिल हुए। दामोदर हरि चाफेकर और उनके भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर भी एक दोस्त विनायक रानडे के साथ वहां पहुंच गए और इन दोनों अंग्रेज अधिकारियों के निकलने की प्रतीक्षा करने लगे।
रात लगभग सवा बारह बजे रैण्ड और आयर्स्ट निकले । दोनों अपनी-अपनी बग्घी पर सवार होकर रवाना हुये। योजना के अनुसार तुरन्त दामोदर हरि चाफेकर रैण्ड की बग्घी के पीछे चढ़ गये और उसे गोली मार दी। उधर उनके छोटे भाई बालकृष्ण हरि चाफेकर ने भी आर्यस्ट पर गोली चला दी। आयर्स्ट तो तुरन्त मर गया, किन्तु रैण्ड घायल हुआ जिसने तीन दिन बाद अस्पताल में दम तोड़ा। इससे जहाँ पुणे की उत्पीड़ित जनता चाफेकर-बन्धुओं की जय-जयकार कर उठी।
वहीं पूरी अंग्रेज सरकार बौखला गई। दोनों चाफेकर बंधुओं को पकड़ने के लिये एक एक घर की तलाशी हुई। इनसे संबंधित परिवारों पर अत्याचार हुये पर दोनों बंदी न बनाये जा सके। इन्हें पकड़ने के लिये गुप्तचर अधीक्षक ब्रुइन ने इनकी सूचना देने वाले को २० हजार रुपए का पुरस्कार देने की घोषणा कर दी।
चाफेकर बन्धुओं के युवा संगठन में गणेश शंकर द्रविड़ और रामचंन्द्र द्रविड़ नामक दो भाई भी जुड़े थे। इन दोनों ने पुरस्कार के लोभ में आकर अधीक्षक ब्रुइन को चाफेकर बन्धुओं का पता दे दिया। इस सूचना के बाद दामोदर हरि चाफेकर तो पकड़ लिए गए, पर बालकृष्ण हरि चाफेकर निकलने में सफल हो गये और पुलिस के हाथ न लगे।
सत्र न्यायाधीश ने दामोदर हरि चाफेकर को फांसी की सजा दी। उन्होंने मन्द मुस्कान के साथ यह सजा सुनी। कारागृह में उनसे मिलने जाने वालों में तिलक जी भी थे। तिलक जी ने उन्हें “गीता’ प्रदान की। उन्हें 18 अप्रैल 1898 को प्रात: फाँसी दी गई। वे “गीता’ पढ़ते हुए फांसी घर पहुंचे और गीता हाथ में लेकर ही फांसी के तख्ते पर झूल गए। दामोदर चाफेकर को बलिदान हुये आज सवा सौ साल हो गये तो पर वे पुणे के लोक जीवन में आज जीवन्त हैं।
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