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Photo - Gaurav Nihalani

छत्तीसगढ़ में पारंपरिक देहालेखन गोदना और अंतर्भाव

लोक-व्यवहार ही कालांतर में परंपराएँ बनती हैं और जीवन से जुड़ती चली जाती हैं। जब पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका निर्वाह किया जाता है तब वह आगे चलकर संस्कृति का हिस्सा बन जाती हैं। वास्तव में लोक-व्यवहार ही एक है जो कि संस्कृति को जीवंत स्वरूप प्रदान करती है। लोक-परंपराएँ यूँ ही नहीं बनतीं बल्कि इनकी कोई न कोई ऐतिहासिक पृष्ठभूमि होती है जो हमें कहीं शास्त्रों, कथा-पुराणों, धर्म-ग्रथों में तो कही लोक कथाओं में देखने को मिलती है और इनकी विशेष मान्यताएँ भी होती हैं। इन मान्यताओं के पीछे अंतर्भाव होता है जिसका संबंध हृदय की गहराई से होता है।

प्रत्येक क्षेत्र की अपनी परंपराएँ हैं। इन परंपराओं से लोक के मनोभावों को पढ़ा और समझा जा सकता है। परंपराओं का सीधा संबंध मानवीय संवेदना से भी होता है। इसमें सुख-दुख की अनुभूति छिपी होती है। यही अनुभूति जीवन को प्रवाहमय बनती है। कोई भी व्यक्ति अपनी परम्पराओं से विलग होकर नहीं जी सकता क्योंकि परंपराएँ लोक की आत्म अभिव्यक्ति होती हैं। परंपराओं का सीधा संबंध आत्म-गौरव से होता है। यह अवश्य है कि समय-सापेक्ष परम्पराओं का स्वरूप बदलता रहता हैं।

समयानुसार इनमें कुछ नवीन व्यवहार का समावेश होता है अैर कुछ मान्यताओं का विलोपन। परंपराओं में बदलाव एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। मानव एक चैतन्य प्राणी है। वह जीवन की घटनाओं का विश्लेषण करता है और इसी के आधार पर वह अपने जीवन में किन पक्षों का समावेश करना है और किनका विलोपन, यह निर्णय करता है। सही कहा जाए तो यही चैतन्यता सृष्टि में उसके विशेष होने को परिभाषित करती है।

छत्तीसगढ़ की परंपराओं में देहालेखन की एक समृद्ध परंपरा है इन परंपराओं का अंतर्भाव है। गोदना गुदवाना, माहुर, मेंहदी, बिंदी, सिंदूर आदि लगाना देहालेखन की परंपराओं में दिखाई देता है। छत्तीसगढ़ के अलग-अलग क्षेत्र में इन परंपराओं में अंतर देखा जा सकता है जो कि वैयक्तिक, जातीय और क्षेत्रीय भिन्नता का द्योतक है। देहालेखन कंइन स्वरूपों में गोदना का महत्वपूर्ण स्थान है।

गोदना गोदवाने का प्रचलन छत्तीसगढ़ के अतिरिक्त अन्य प्रांतों में भी देखा जाता है। विशेष रूप से यह आदिवासी संस्कृति की एक सार्वधिक महत्वपूर्ण प्रथा है। गोदना में जातीय संदर्भ भी देखा जा सकता है। गोदना की आकृति और देह में गोदना के स्थान को देखकर जाति विशेष के संबंध में जाना जा सकता है। आदिवासी समुदाय में यह बहुत पहले से प्रचलित है। बैगा आदिवासी अत्यधिक गोदना प्रिय होते हैं। पूरी देह गोदना से अलंकृत होती है।

फ़ोटो – गौरव निहलानी

गोदना का प्रचलन क्यों और कैसे हुआ, यह तो नहीं कहा जा सकता किन्तु गोदना पर कई लोक-कथाएँ प्रचलित हैं। लोक-कथाओं से भी गोदना गोदने की परंपरा के विकास की जानकारियाँ मिलेती है। इस संदर्भ में यहाँ एक प्रचलित माडिया लोक-कथा का संक्षिप्त उल्लेख करना चाहूँगा ।

प्राचीन काल की बात है। एक समय यमराज को मृत्युलोक से स्त्री-पुरुषों को पहचानने में असुविधा होती थी। किसी दिन उसके पुत्र और पुत्रवधु कहीं जाने के लिए तैयार होकर यमराज से अनुमति लेने पहुँचे। उसने यह देखा कि उसकी पुत्रवधु ने अपनी देह पर बेल-बूटे बनाई हुई है। यह देखकर कर यमराज ने सोचा-‘‘क्यों न स्त्रियों की देह पर इसी तरह बेल-बूटे बना दिए जाए?’’तब उन्होंने अपने पुत्र और पुत्रवधु को पृथ्वी लोक की स्त्रियों की देह पर पहचान बनाने के लिए बेल-बूटे बनाने के लिए भेजा, जिससे स्त्रियों को सहजता से पहचाना जा सके। यमराज के पुत्र और पुत्रवधु ने पृथ्वी-लोक में आकर बेल-बूटे बनाने का कार्य आरंभ किया। यही बेल-बूटे कालांतर में ‘गोदना‘ का स्वरूप ले लिया। तब से स्त्रियाँ अपनी देह में गोदना गुदवाती हैं।

छत्तीसगढ़ में यह किवदंती प्रचलित है कि मनुष्य की मृत्यु के बाद उसकी सारी चीजें यहीं रह जाती है। एक धागा भी साथ नहीं जाता, किन्तु गोदना मृत्यु के बाद भी साथ जाता है। यही कारण है कि इसका सामाजिक और धार्मिक महत्व भी है। एक मान्यताएँ यह भी है कि गोदना स्वर्ग में व्यक्ति की पहचान कायम रखता है । जो गोदना नहीं गुदवाते उसे भगवान के दरबार में स्थान नहीं मिलता ।

गोदना की प्रक्रिया का विश्लेषण करने से दो बातें उभर कर आती है- (1) सौंदर्य-बोध (2) एक्यूप्रेशर के माध्यम से शारीरिक स्वास्थ्य।

मनुष्य स्वभाव से ही सौंदर्य प्रेमी होता है। यही कारण है कि वह हमेशा सजता-संवरता है। यह प्रवृत्ति स्त्रियों में विशेष रूप से देखी जाती है। भारतीय स्त्रियाँ अत्यधिक सौंदर्य प्रिय होती हैं। वे सदैव शृंगार करना चाहती हैं। वे सिर-से-पैर तक तरह-तरह के आभूषणों से अंलकृत रहती हैं। गोदना भी स्त्री देह का विशेष शृंगार है। शायद गोदना परंपरा का विकास इन्हीं शृंगारात्मक प्रवृत्तियों के कारण हुआ हो। चूँकि यह स्थायी शारीरिक शृंगार होता है इसलिए इसके प्रति विशेष लगाव होना स्वाभाविक है।

एक्यूप्रेशर प्राचीन काल से ही शारीरिक स्वास्थ्य के लिए अनेक तरह से उपयोग होता रहा है। जब शरीर पर कहीं दर्द होने लगता था तब उस स्थान को ‘आँका‘ जाता था। आँकने से उस स्थान की पीड़ा समाप्त हो जाती थी। छत्तीसगढ़ में गर्म हँसिए व बेर के काँटे से आँकने की परंपरा प्रचलित थी।

गोदना की परंपरा कैसी विकसित हुई इस पर एक और लोक-कथा है। किसी समय में एक दुष्ट राजा हुआ। वह अपनी अय्यासी के लिए रोज एक नई नवेली स्त्री का ‘संग’ करता था। तत्पश्चात् वह उसकी देह पर एक काले रंग का चिन्ह बना देता था। बाद में वह फिर कभी उससे संग नहीं करता था। उस दुष्ट राजा के इस अत्याचार से बचने और अपने शील की रक्षा के लिए महिलाओं ने अपनी देह पर काले दाग बनवाना शुरू कर दिया जिसने कालांतर में एक परंपरा का रूप ले लिया। इस तरह गोदना नारी देह का एक अलंकार बन गया। यह लोक-कथा निराधार नहीं जान पड़ती। जब तक गोदना की परंपरा थी युवतियाँ विवाह पूर्व मायके में ही गोदना गोदावाती थी।

देवार समाज की महिलाएँ और पुरुष भी गाँव-गाँव जाकर गोदना गोदने का कार्य करते थे। गोदना गोदने वाली महिलाएँ ‘गोदनीन’ कहलाती थीं। गोदना गोदवाने की परंपरा के दो स्वरूप दिखते हैं। पहला जातीय गोदना आकृति, दूसरा स्वैच्छिक आकृति। गोदनीनों को जातीय व्यवस्था के अनुरूप गोदना की आकृति बनाने का अच्छा ज्ञान होता था। तेली, गोंड़, कुर्मी, बिझवार, संवरा, बैगा, सतनामी आदि जातियों के लोग जब गोदना गोदवाते थे तब उनकी जति के आधार पर उनके हाथ, पैर, बाँह, माथे, गाल, नाक आदि में आकृतियाँ बनती थीं। दूसरा, गोदना गोदवाने वाले की इच्छा के अनुरूप भी गोदना गोदते थे।

इच्छा अनुरूप गोदना गुदवाने की परंपरा बहुत बाद की है, जिसमें फूल, पत्तियाँ, पशु, पक्षी के चित्र व प्रिय जन के नाम लिखवाने की परंपरा चल पड़ी। विशेष कर महिलाएँ अपने पति व प्रेमी के नाम लिखवाती थी। धीरे-धीरे पुरुष भी अपने शरीर में गोदना गुदवाने लगे। पुरुषों के शरीर गोदे जाने वाला गुदना पूर्णतः स्वैच्छिक ही था। पुरुष खास कर वीरोचित चिह्न बनवाते थे जिनमें प्रमुख रूप से हनुमान, शिव, सिंह, बिच्छु या साँप होता था। इसके अतिरिक्त वे अपने किसी आत्मीजन अथवा इष्टदेव का नाम लिखवा लेते थे। छत्तीसगढ़ में ‘मितान’ बहुत ही आत्मीय रिश्ता होता है। पुरुष खासकर के अपने मितान महाप्रसाद, तुलसीदल, गंगाबारू आदि के नाम लिखवाया करते थे। रामनामी समाज के लोग अपने पूरे शरीर में राम-राम लिखवाते थे।

इस तरह गोदना लोक की एक गौरवशाली परंपरा और सुन्दर कलाकृति है जो लोक-जीवन से जुड़ी हुई है। इसमें सौंदर्य और आत्मिक सोच समाया हुआ दिखता है। इसमें रोचकता के साथ-साथ विविधता भी है। स्त्रियाँ इच्छानुरूप अपनी देह में गोदना गुदवाती रही हैं। सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं से युक्त गोदना की यात्रा-कथा बहुत प्रचीन लगती है। आगे चलकर गोदना गोदवाना अत्यन्त प्रिय परंपरा बन गई और संस्कृति के एक अंग के रूप में प्रतिष्ठित हो गई। यह लोक में इस तरह समा गई कि लोक-कलाओं में भी इसने अपना स्थान बना लिया। जब भी गाँवों में नाचा होता था, अन्तिम प्रस्तुति के रूप में ‘देवार गम्मत’ की विशेष माँग होती थी। अभिनय करने वाले देवार-देवारिन का रूप धर कर अपने सुन्दर अभिनय से लोक को अनुरंजित करते थे। हास्य रस से भरपूर इस ‘गम्मत’ में कई तरह के देवार गीत गाए जाते थे –
गुदना गदवा ले रीठा ले-ले ओ ।
आए हे देवारिन तोर गाँव म ।।

जैसे कि मैंने पूर्व में उल्लेख किया है-समय के साथ-साथ परंपराएँ अपना रूप बदलती हैं। आस्था, विश्वास और मान्यताओं से जुड़ी यह परंपरा भी अब विलुप्त होने के कगार पर है। 21वीं सदी में जन्मे बच्चे इस परंपरा से दूर लगते हैं। संपूर्ण शरीर में गोदना गुदवाने वाली बैगा समुदाय की नई पीढ़ी की बालिकाएँ भी अब इससे परहेज करने लगी हैं। कुछ लोग परंपरा के निर्वाह के रूप में एक-दो चिन्ह बनवा ले रहे हैं।

समय का चक्र सदैव चलता रहता है। आज यही गोदना बदले हुए स्वरूप में ‘टैटू’ का रूप ले लिया है। भारत में ही नहीं विदेशों में भी इसका काफी प्रचलन है। अब भारतीय बच्चे इसकी नकल करने में लगे हुए हैं। अब कोई देवार या देवारिन गाँव-गाँव आकर गोदना गीत गाते हुए गोदना नहीं गोदती। बल्कि अब शहरों में इसके लिए एअर कंडिशनर ‘टैंटू’ पार्लर खुल गए हैं। जहाँ आधुनिक तकनीकों से टैटू बनाए जा रहे हैं। एक समय ऐसा था जब एक गोदना के चिह्न को मिटाने के लिए नव युवतियाँ ऑपरेशन करा लिया करती थी, वे ही अब पाश्चात्य संस्कृति के पीछे अंधी दौंड़ लग रही हैं।

आलेख

डॉ बलदाऊ राम साहू
दुर्ग, छत्तीसगढ़
मो. 09407650458

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3 comments

  1. Krishna Ram Chauhan

    बहुत सुंदर।

  2. Krishna Ram Chauhan

    बहुत सुंदर

  3. Krishna Ram Chauhan

    Yes very nice.

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