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जानिए क्या है संदेश भेजने एवं उत्साह प्रकट करने का प्राचीन यंत्र

टेसू के फ़ूलों एवं नगाड़ों का चोली-दामन का साथ है, जब टेसू फ़ूलते हैं तो अमराई में बौरा जाती है और नगाड़े बजने लगते हैं। पतझड़ का मौसम होने के कारण पहाड़ों पर टेसू के फ़ूल ऐसे दिखाई देते हैं जानो पहाड़ में आग लग गई हो।

विरही नायिका के हृदय को भी अग्निदग्ध करने में यह ॠतू कोई कसर बाकी नहीं रखती। यही मौसम नगाड़ों के बजने का होता है। नगाड़ों से मनुष्य का संबंध प्राचीनकाल से ही है।

इतिहास से ज्ञात होता है कि नगाड़ा प्राचीन संदेश प्रणाली का महत्वपूर्ण यंत्र माना जाता है। इसके माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश शीघ्र ही पहुंचाया जाता था एवं नगाड़ा का प्रयोग सूचना देने में किया जाता था। जब किसी सरकारी आदेश को जनता तक प्रसारित करना होता था तो नगाड़ा बजाकर संदेश सुनाया जाता था।

युद्ध काल में सेना के प्रस्थान के समय नगाड़े बजाए जाते थे, मुगलों के दरबार में फ़ैसले नगाड़ा बजा कर सुनाए जाते थे तथा किसी की जायदाद कुर्की करने की सूचना देने का कार्य भी नगाड़ा बजा कर किया जाता था।

“अयोध्या में राम खेलैं होरी, जहाँ बाजे नगाड़ा दस जोड़ी” फ़ाग गीत के साथ नगाड़ों की धमक सांझ होते ही चहूं ओर सुनाई देती है। होली के त्यौहार का स्वरुप बदलते जा रहा है लेकिन गावों में परम्पराएं कायम हैं। नगाड़ा प्राचीन वाद्य है, जिसे दुदूम्भि, धौरा, भेरी, नक्कारा, नगाड़ा, नगारा, दमदमा इत्यादि नामों से भारत में जाना जाता है।

छत्तीसगढ़ अंचल में विशेषकर नगाड़ा या नंगाड़ा कहा जाता है। संस्कृत की डम धातू का अर्थ ध्वनि होता है। इसलिए इसे दमदमा भी कहा जाता है। इसका अर्थ लगातार या मुसलसल होता है।

मन्नु लाल हठीले

शनिचरी बाजार में मेरी मुलाकात नगाड़ों की दुकान सजाए शिल्पकार मन्नु लाल हठीले से होती है, नगाड़े बनाने एवं बेचने में इनकी उत्मार्ध बुधकुंवर भी हाथ बटाती दिखाई देती है। मन्नु लाल मिट्टी की हांडियों पर चमड़ा कसते हैं और बुधकुंवर चमड़े को विभिन्न रंगों से सजाती है। इनकी दुकान में 80 रुपए से लेकर 1200 रुपए तक के नगाड़े की जोड़ियाँ विक्रय के लिए रखी हुई हैं।

छत्तीसगढ़ अंचल में नगाड़े बनाने का काम विशेषत: चमड़े का व्यवसाय करने वाली मोची, मेहर और गाड़ा जातियाँ करती हैं। फ़ूलकुंवर कहती है कि पहले शादी के अवसर पर दफ़ड़ा एवं निशान बाजा बहुत बिकता था, परन्तु धुमाल बाजा आने के कारण इनकी बिक्री कम हो गई। दफ़ड़ा निशान बजाने वाले भी अब कम ही हैं।

होली के बाद नगाड़ों की बिक्री पर विराम लग जाता है, महीनें में कोई एकाध जोड़ी नगाड़ा बिक्री होता है, वह भी कबूलना एवं बदना वाले लोग देवता-धामी मंदिर आदि में चढाने के लिए ले जाते हैं। कबुलना नगाड़े इन नगाड़ों से बड़े बनते हैं।

नगाड़ा बनाने के लिए मिट्टी की हाँडी के साथ चमड़े का उपयोग होता है। मन्नु लाल बताते हैं कि नगाड़े की जोड़ी में दो सुर होते हैं, जिसे “गद” और “ठिन” कहते हैं। इसका निर्माण बैल या गाय के चमड़े से होता है। पशु के शीर्ष भाग का चमड़ा पतला होता है जिससे “ठिन” एवं पार्श्व भाग का चमड़ा मोटा होता है इससे “गद” नगाड़ा बनाया जाता है।

मन्नु लाल हठीले

हाँडी पर चमड़ा मढने के लिए भैंसे के चमड़े की रस्सियों उपयोग में लाई जाती हैं। तभी नगाड़ों से “गद” एवं “ठिन” की ध्वनि निकलती है। छोटा नगाड़ा बनाने के लिए बकरा-बकरी और अन्य जानवरों का चमड़ा उपयोग में लाया जाता है।

इसे बजाने के लिए दो डंडियों का इस्तेमाल होता है जिन्हें स्थानीय बोली में “बठेना” कहा जाता है। नगाड़े की वास्तविक ध्वनि का आनंद गाय-बैल के चमड़े से मढे नगाड़े में ही आता है।

वर्तमान में नगाड़ा मंदिरों में आरती के समय बजाया जाता है या फ़िर होली के अवसर पर बजाया जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में सामूहिक होलिका दहन स्थल पर फ़ाग गीतों के साथ इसका उपयोग किया जाता है।

नगाड़ा बजता है तो गायक का उत्साहवर्धन होता है और सुर ताल बैठने पर फ़ाग गीत रात के सन्नाटे को चीरते हुए दूर तक सुनाई देते हैं। नगाड़ों की ध्वनि के साथ वसंत का रंग सारे वातावरण पर छा जाता है। होली समीप है और नगाड़ों की ध्वनि मन को मोह रही है।

आलेख एवं फ़ोटो

ललित शर्मा
इंडोलॉजिस्ट

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3 comments

  1. सारगर्भित लेख, सरगुजा संभाग के शंकरगढ़ में नगाङे का मंदिर देखा, अद्भुत अनुभव था कि इसकी पूजा भी होती है देवता के स्थान में रखकर ।

  2. मनोज कुमार पाठक

    खूबसूरत जानकारी सर

  3. शरद व्यास

    जय हो गुरुदेव।