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धरती के गर्भ से अनावृत हो रहा है प्राचीन नगर

राजा-रानी की कहानियाँ लोक का एक अंग है, दादी-नानी की कहानियों में भी राजा-रानी होते थे। जब किसी स्थल का पुरातात्विक उत्खनन प्रारंभ होता है। राजा-रानी एक बार फ़िर जीवित हो जाते हैं। कहीं राजा की मोतियों की माला मिलती है तो कहीं रानी का बाजूबंद और मुंदरी। फ़िर प्रमाण ढूंढे जाते हैं कि उतखनित वस्तु किस काल की हैं और उस काल में किस राजा का शासन था।

पुरातत्व इन्हीं सब काल खंडों के इतिहास की वैज्ञानिक पुष्टि कर जनमानस के समक्ष लाता है। किसी भी देश के इतिहास को सामने लाने एवं समृद्ध करने में पुरातात्विक उत्खनन की भूमिका महत्वपूर्ण है। वह देश भाग्यशाली होता है जहाँ के लोग अपनी संस्कृति एवं इतिहास को संजोने तथा संरक्षण करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

ऐसा ही एक उत्खनन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से 25 किमी की दूरी पर रींवा गढ़ में एक टीले का उत्खनन हो रहा है। यहाँ उत्खनन के द्वारा इतिहास की किताब के अज्ञात पृष्ठ अनावृत हो रहे हैं। खुरपी से खुरचकर धरती की परतों के नीचे छिपा इतिहास परतों से बाहर लाया रहा है।

यह टीला मुम्बई -कोलकाता राष्ट्रीय राजमार्ग 53 के किनारे स्थित है। उत्खनन से प्राप्त वर्तुलाकार अधिष्ठान से ज्ञात हो रहा है कि यह प्राचीन बौद्ध स्तूप का अवशेष है। उत्खनन निर्देशक डॉ. अरुण कुमार शर्मा बताते हैं कि यह छत्तीसगढ़ में अब तक के उत्खनन में प्राप्त मिट्टी का पहला बौद्ध स्तूप है।

स्वर्ण मुद्रा श्री मद्द पृथ्वी देव (कलचुरी शासक)

इसके पहले सिरपुर में पत्थरों से और भोंगपाल (बस्तर )में ईंटों से निर्मित स्तूप मिल चुके हैं। इस स्तूप से हमें किसी महात्मा की अस्थियाँ प्राप्त हो सकती हैं। यहाँ से प्राप्त ईंटो एवं अन्य सामग्री से अनुमान है कि यह मौर्यकालीन बौद्घ स्तूप है, जो मिट्टी का बना हुआ है।

रींवा में दूसरा उत्खनन एक विशाल तालाब के पास हो रहा है, रींवा गढ़ को लोरिक-चंदा के नायक लोरिक का नगर माना जाता है। जब हम इस स्थान पर पहुंचे तो हमें मंदिर के शीर्ष पर रींवा गढ़ – लोरिक नगर लिखा दिखाई दिया। प्रथम दृष्टया ही हमें इस स्थान पर प्राचीन इतिहास होने का संकेत मिल गया।

कुषाण काल

गुगल मैप से देखने पर हमको रींवा गढ़ के विशाल मडफ़ोर्ट की परिखा दिखाई देती है। यहाँ आसपास आम और पीपल आदि के कई बड़े -बड़े वृक्ष और बबूल की कँटीली झाड़ियाँ हैं। छिन्द के भी कुछ पेड़ वहाँ पर हैं। यहाँ उत्खनन मडफ़ोर्ट में हो रहा है। यहां उत्खनन कार्य में पुरातत्व विभाग के डॉ वृषोत्तम साहू एवं मनहरे संलग्न है।

दुनिया को बहुत जल्द दो हज़ार साल से भी ज़्यादा पुराने एक ऐसे भारतीय शहर का पता चल जाएगा ,जो अभी धरती माता के गर्भ से धीरे -धीरे बाहर आ रहा है । यह भूला -बिसरा शहर भारत के प्राचीन इतिहास में दक्षिण कोशल के नाम से प्रसिद्ध छत्तीसगढ़ के ग्राम रींवा में ज़मीन के नीचे दबा हुआ था, जो निकट भविष्य में हमें नज़र आएगा ।

रजत मुद्रा सातवाहन काल

राज्य सरकार ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग से अनुमति लेकर यहाँ उत्खनन शुरू करवाया है। रायपुर जिले में आरंग तहसील के इस गाँव 40 ऐसे टीले हैं जो पुरातत्व की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माने जा रहे हैं ।फिलहाल इनमें से दो टीलों में उत्खनन चल रहा है ,जो राज्य सरकार के पुरातत्व सलाहकार .अरुण कुमार शर्मा के मार्गदर्शन में करीब तीन हफ़्ते पहले शुरू हुआ है ।

अरुण कुमार शर्मा ने बताया कि रींवा गाँव में 40 ऐसे टीले हैं ,जिनमें भारत और दक्षिण कोशल के वैभवशाली इतिहास के अनेक मूल्यवान तथ्य दबे हुए हैं । इन सबके उत्खनन में कम से कम 5 साल का वक्त लग सकता है ।फिलहाल हम लोगों ने 20 टीलों के उत्खनन का लक्ष्य रखा है।

पुरातात्विक उत्खनन बहुत सावधानी से और वैज्ञानिक पद्धति से करना होता है। इन 20 टीलों में से वर्तमान में दो टीलों पर उत्खनन चल रहा है। इनमें अब तक के उत्खनन में इस टीले से कुछ स्वर्ण , कुछ रजत और कुछ ताम्र मुद्राएं भी मिली हैं।

सातवाहन काल की रजत एवं ताम्र मुद्रा, कुषाण काल की मुद्रा ग्राम के किसान दुर्गा धीवर ने जमा करवाई है एवं कलचुरीकालीन स्वर्ण मुद्रा जिस पर श्रीमद्द पृथ्वीदेव अंकित है तथा दूसरी कलचुरी काल ताम्र मुद्रा पर जाजल्वदेव अंकित है, उत्खनन में प्राप्त हुई हैं।

ब्राह्मी लिपि अंकित मुंदरी

इनके अलावा मिट्टी के दीये और बर्तन तथा हाथी दांत से बनी सजावटी वस्तुओं के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। सजावटी मालाओं में गूँथने के लिए अर्ध मूल्यवान पत्थर की उपयोग में लायी जाने वाली छोटी-छोटी मणि कर्णिकाओ का ज़खीरा भी मिला है। अरुण कुमार शर्मा के अनुसार ये तमाम अवशेष ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के याने लगभग 2200 वर्ष पुराने हैं ।

वह कहते हैं -सुदूर अतीत में रींवा कोई गाँव नहीं ,बल्कि एक बड़ा और प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था। महानदी इसके नज़दीक से बहती थी । तत्कालीन समय में पेड़ों की अत्यधिक कटाई होने के कारण नदी के किनारों पर भी कटाव हुआ । इस वज़ह से महानदी यहाँ से 8 किलोमीटर दूर खिसक गयी।

मणिकर्णिका

फ़िलहाल उत्खनन जारी है। भूमिगत इतिहास के पन्नों पर जमी सैकड़ों वर्षों की धूल हटाई जा रही है। अरुण कुमार शर्मा जैसे वरिष्ठतम पुरातत्ववेत्ता की पारखी आंखें अपनी गहन इतिहास दृष्टि से उन्हें पलटने और पढ़ने में लगी हैं ।

उम्मीद की जानी चाहिए कि उनके गहन अध्ययन ,उत्खनन और अनुसंधान से एक प्राचीन भूला -बिसरा शहर फिर हमारे सामने होगा । टाइम मशीन भले ही काल्पनिक हो, लेकिन प्रत्यक्ष में हो रहे इस कार्य से शायद हम दो हज़ार साल से भी ज्यादा पुराने ज़माने को और उस दौर की इंसानी ज़िन्दगी को महसूस तो कर सकेंगे! वह एक रोमांचक एहसास होगा तथा छत्तीसगढ़ के किरीट शीर्ष पर एक हीरा और जड़ जाएगा।

आलेख

स्वराज करुण

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2 comments

  1. राजा रानी फिर से जीवित हो उठेंगे, इतिहास बोल पड़ेगा…. अत्यंत उत्सुकता हो रही है उस शहर के इतिहास के बारे में जानने की, जो इस मिट्टी के अंदर दबा हुआ। सुंदर चित्र और जीवंत वर्णन ने आँखों देखी सा अहसास करवा दिया। प्रतीक्षा रहेगी आगे की जानकारियो की। हार्दिक आभार

  2. Shailesh Kumar Mishra

    I have liked the presentation style of the article. Undoubtedly the archeological excavation of the said sites will add a shining page in the glory book of our Chhattisgarh state. Best of luck to the team members involved in the excavation work and the team covering its news.

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