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कुंडलियाँ : सप्ताह की कविता

बनकर मृग मारीच वे, बिछा रहे भ्रम जाल।फँसती जातीं बेटियाँ, समझ न पातीं चाल।।समझ न पातीं चाल, चली असुरों ने कैसी।तिलक सुशोभित भाल, क्रियाएँ पंडित जैसी।।प्रश्रय पा घुसपैठ, राष्ट्र को छलने तनकर।बिछा रहे भ्रम जाल, हिरण सोने का बनकर।। (2)कर लें पालन सूत्र हम, सर्व धर्म समभाव।सत्य सनातन धर्म का, …

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शर्म आ रही है उन पर : सप्ताह की कविता

शर्म आ रही है उन्हें देख कर ,जो शर्म बेच खाए हैं।कल ही की तो बात है,जो वंदे मातरम नहीं गाए हैं । और उन पर भी,जो बात बात में,बाँट कर जात पात में । संसद के भीतर ,बे कदरनारे बहुत लगाये हैं । शर्म आ रही है उन पर,जो …

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