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जनजातियों के नृत्य, नाट्य और उत्सवों में मुखौटे

पहले पहल शायद आदि मानव ने अपने आप को प्रकृति के अनुकूल बनाने के लिए मुखौटों का उपयोग किया होगा, वह इसलिए कि शिकार करना आसान हो। और फिर मुखौटे आदिम जनजीवन की धार्मिक अवधारणाओं को भी अभिव्यक्ति देते रहे। जनजातियों के नृत्य, नाट्य और पारंपरिक उत्सवों में मुखौटों का प्रचलन हो गया। जनजातियों के रोजमर्रा जीवन में अलौकिक शक्तियों की अनुष्ठान विधि में भी मुखौटों का चलन हो गया। भूत-प्रेतों की कुदृष्टि से बचने के लिए मुखौटे उपयोग में आए। बदलते परिवेश में नृत्य और नाट्य में पौराणिक पात्रों के लिए मुखौटों का इस्तेमाल होने लगा।

मुखौटा यानी जो मुख की ओट करे। चेहरे पर चढ़ाया गया एक नकली चेहरा। मुखौटा चेहरे की आकृति पात्र के अनुसार आंख, भौंह, मुंह-नाक, कान के साथ दाढ़ी मूंछ से सुसज्जित होता है। उस नकली चेहरे की भाव-भंगिमा के अनुकूल अभिनय करने वाला अलग दिखता है।

गुफा चित्रों में मुखौटा

छत्तीसगढ़ की जनजातियों के मुखौटों का रंग ढंग निराला है। जिनके मुखौटों में उनकी कल्पना का रहस्यमयी संसार प्रतिबिम्बित होता है। छत्तीसगढ़ में रॉक आर्ट पेंटिंग की गुफाएं ईसा पूर्व तीस हजार से दस हजार बरस की हैं। गुफा चित्रों में शिकार करते मानव मुखौटा लगाए हुए हैं। रायगढ़ जिले में ऐसी अनेक गुफा हैं जहां आदिम मानवों ने अपने जीवन के कुछ क्षणों को चित्रित किया है। इन्हीं गुफा चित्रों से आदिम जनजातियों ने प्रेरणा ली। इसी के साथ आदिम परिवेश की सांस्कृतिक परंपरा, धार्मिक कर्मकांडों और उत्सवों में मुखौटे अर्थयुक्त होते चले गए।

भारत ही नहीं दुनिया की अधिकांश आदिम गुफा चित्रों में एक अद्भुत समानता है। जहां-जहां भी गुफाओं में शिकार की चित्रावली है, उनके शिकारी मुखौटा लगाए हुए हैं। आदिम मानव शिकार के दौरान परिवेश के अनुकूल मुखौटा लगाया करते थे। छत्तीसगढ़ के रायगढ़ जिले में सिंघनपुर की गुफा में ऐसा ही दृश्य अंकित है। गुफा पेंटिंग में शिकारी प्राय: नग्न हैं और कुछ शिकारी मुखौटा लगाए हुए हैं। ऐसे आदिम आखेटक के गुफा चित्र स्पेन में भी मिले हैं। पुरापाषाण कालीन स्पेन की गुफाओं में कुछ शिकारी लबादे पहने चित्रित हैं। अफ्रीका की आदिम जातियां शिकार के समय मुखौटा लगाती थी। अफ्रीका की कुछ जनजातियां अपने धार्मिक कृत्य वुडू के समय अपने आप को शिकारी की वेशभूषा में प्रस्तुत करती हैं। ऐसे शिकारी मुखौटा लगाते हैं। 

मोहन-जो-दाड़ो को लोग शिकार के दौरान मुखौटा लगाते थे। जो बगुलों के शिकार के वक्त अपने सिर पर पूरे बगुले की आकृति पहनते। पाकिस्तान में आज भी बगुलों के शिकारी उनका अनुसरण करते हैं। पूरी दुनिया में ऐसे कार्निवाल सर्वाधिक प्रसिद्ध हैं जिनमें मुखौटे लगाए जाते हैं। ऐसे कार्निवाल प्राचीन परंपरा व संस्कृति को संजोए हुए हैं।

जनजातियों के मुखौटे

छत्तीसगढ़ की जनजातियों के लोकनाट्य, नृत्य और उत्सवों में मुखौटों की परंपरा जीवित है। सरगुजा क्षेत्र के पाण्डो, कंवर और उरांव के ‘घिर्रा उत्सव’ में तरह-तरह के मुखौटे मिलते हैं। छेरता नृत्य में जनजाति मुखौटे लगाती हैं। इस नृत्य में मुरिया, बैगा, गोंड और परधान शामिल होते हैं। बस्तर के आदिवासी अपने भतरा नाट में मुखौटे लगाते हैं।

मुखौटों की आकृतियां छत्तीसगढ़ में अनगढ़ रही हैं। काठ का मुखौटा में आम, सागौन, खम्हार, सेमल, डूमर, सलैया लकड़ी का उपयोग होता है। चेहरा बनाने के लिए ठोस लकड़ी को खोखला कर उसमें मुंह, नाक, कान चित्रित किए जाते हैं। मुंह और आंखों का भाग खोखला किया जाता है। मुखौटा की साज-सज्जा के लिए कोयला, छुही मिट्टी, गेरू के साथ वनस्पतियों से रंग बनाए जाते हैं। चावल, कद्दू के बीज या कांच से दांत बनाए जाते हैं। दाढ़ी मूंछ के लिए जानवरों के बाल मोम या गोंद से लगाए जाते हैं। बदलते परिवेश में कागज व प्लास्टिक के मुखौटे प्रचलन में आ गए हैं। लेकिन पारंपरिक उत्सवों, धार्मिक कर्मकांडों में मुखौटों का पारचीन स्वरूप ही देखने को मिलता है। घिर्रा उत्सव– धान की फसल कट कर जब घर आती है तब सरगुजा जिले में घिर्रा उत्सव शुरू होता है। सरगुजिया भाषा में घिर्रा का मतलब होता है- मदमस्त हो कर कूदना, दौडऩा। फसल कटाई के बाद पौष में घिर्रा उत्सव गांव-गांव में होता है। पौष माह के शुक्ल पक्षत्र में सबसे पहले चंपा का घिर्रा होता है। फिर क्रम से सन्ना, सामरी, कुसमी, मुलसी, डीपाडीह का घिर्रा होता है। सबसे आखरी में शंकरगढ़ का घिर्रा बड़े हर्षोल्लास के साथ संपन्न होता है।

घिर्रा के साथ एक किवदंती जुड़ी है जो घिर्रा की शुरुआत करती है। बहुत पहले एक गांव में लोग गरीब थे। फिर उनकी फसल भी अच्छी नहीं हुई। इसी समय गांव के बैगा ने सपने में देखा- गांव का प्रेत दरहा मुआ मसान कह रहा था : ‘‘तुम पूस के महीने में एक बार हमारे नाम की हंडी पकाओ। फिर तुम मद (शराब) बकरा और चींचा (चीला) चढ़ाओ। जब तुम ऐसा करोगे तो हम खुश हो जाएंगे। तुम्हारे खेतों में फसल अच्छी होगी।’’ बैगा ने अपने सपने की बात गांव वालों को सुनाई। गांव वालों ने नगाड़ा पीट कर ऐलान किया। मुआ मसान के कहे अनुसार अनुष्ठान किया और लोग खुशी-खुशी रंग बिरंगे झंडे ले कर दौड़ पड़े। इसी को घिर्रा कहा गया। घिर्रा लोग तरह-तरह के मुखौटे लगाते हैं।

परंपरानुसार गांव का बैगा शुभ घड़ी देख कर मुआ का अनुष्ठान करता है। बकरा और मुर्गा की बलि दी जाती है। गांव में बनाए गए ऊंचे मचान में यह क्रिया संपन्न होती है। इसके बाद बैगा घिर्रा आरंभ करने की घोषणा करता है। मंच पर रखा नगाड़ा जोर से बज उठता है। नगाड़े की ध्वनि सुन युवकों की कई टोलियां लाठियां, खाम लिए ढोल मांदर की थाप पर नाचते गांव की ओर चल पड़ते हैं। हर गांव की टोली में सबसे पहले लंबे बांस पर झंडा लगा होता है। इसे बैरक कहा जाता है। 

घिर्रा के दिन नृत्य मुख्य आकर्षण होता है। कठमुंहा (मुखौटा) लगाए नाचने वाला व्यक्ति सबकी नकार में होता है। जो मुआ मसान का स्वांग भरता है। मदमस्त हो नाचता है। उसी के साथ युवक-युवतियां, बच्चे-बूढ़े सब हुल्लड़ करते हैं। हास-परिहास के साथ एक-दूसरे पर ताना-कसी होती है। बात गाली-गलौच तक उतर आती है। लाठियां भी बरस पड़ती है। शक्ति परीक्षण में कभी-कभी लोग मारे भी जाते हैं। मगर यह सारा झगड़ा घिर्रा उत्सव के साथ ही खत्म हो जाता है। सरगुजा की जनजातियों का यह सबसे बड़ा उत्सव होता है। घिर्रा उत्सव में पाण्डो, कंवर, उरांव, कोरवा, नगेसिया और घसिया जनजातियां एकजुट हो जाती हैं। बदलते परिवेश में घिर्रा उत्सव में अभिजात्य वर्ग भी शामिल होने लगा है। 

छेरता नृत्य- श्रीकृष्ण और गोपिकाओं की रास बस्तर के छेरता नृत्य में नकार आती है। आदिम जनजातियों ने रास की एक घटना विशेष को छेरता नृत्य में साकार किया है। कृष्ण और गोपिकाओं की महारास अलौकिक आनंद से सराबोर कर देने वाली थी। उस महारास में गोपिकाएं अपनी सुध-बुध खोकर नृत्य में मगन हो जाती रहीं। हर गोपिका कृष्ण के साथ नृत्यरत होती थी, यही अहसास उन्हें होता था। महारास में स्वकीया में परकीया एवं परकीया में स्वकीया का भ्रम होता था। शब्दों में इतना ही कहा जा सकता है।

गोण्ड माइथोलॉजी में श्रीकृष्ण के रास और गोपिकाओं की मनोव्यथा को ज्यों का त्यों लिया गया है। इसका साकार स्वरूप छेरता नृत्य में झलकता है। गोण्ड मुखौटों के बारे में एक जनश्रुति ऐसी ही है। श्रीकृष्ण के साथ गोपिकाएं रास में शामिल होंगी। राक्षसों को यह बात मालूम हो गई। शरद पूणिमा की रात श्रीकृष्ण बांसुरी बजा रहे थे और सात सौ गोपिकाएं उन्हें घेरे हुए नृत्य कर रही थीं। गोपिकाओं को लगता था कि श्रीकृष्ण उनके साथ ही नृत्य कर रहे हैं। राक्षस भी नृत्य में शामिल हो गए। वे गोपिकाओं के साथ नृत्य करने लगे। गोपिकाएं राक्षसों के चेहरे देख कर उनके साथ नृत्य कर रही थीं। श्रीकृष्ण ने जब राक्षसों को देखा तो उनके सिर काट डाले। गोपिकाएं श्रीकृष्ण के पास आ मांगी मांगने लगीं और राक्षसों को जीवनदान देने की प्रार्थना की।

इस पर श्रीकृष्ण ने वचन दिया और कहा- ‘‘आने वाले कलियुग में उनके द्वारा काटे गए राक्षसों के सिर मानव के मनोरंजन करेंगे।’’ प्रकारान्तर में आज गोण्ड युवक राक्षसों के मुखौटा लगाए युवतियों के साथ नृत्य करते हैं।

छेरता उत्सव फसल कटाई के बाद पौष पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। इस दिन छेरता नृत्य प्रारंभ होता है। मण्डला जिले के गोण्ड, परधान, बैगा आदिवासी इस नृत्य में हिस्सा लेते हैं। भूत, प्रेत, राक्षस, शैतान के प्रतीक कठभैना (मुखौटा) धारण करते हैं। बैगा युवक रावण, हिरण्यकश्यप का प्रतीक खेखड़ा मुखौटा लगाते हैं। होली में होने वाले फाग नृत्य में बैगा युवक मुखौटा लगाते हैं। युवतियां सेही जानवर के कांटे लगा कर नृत्य करती हैं। बैगा मान्यताओं के अनुसार मुखौटा रावण का प्रतीक और सेही के कांटों की गिज्जी मंदोदरी का प्रतीक है।

बस्तर की मुरिया जनजाति अपने आनुष्ठानिक नृत्यों को प्रस्तुत करने के लिए मुखौटे खुद बनाती हैं। मुरिया जनजाति के छेरता उत्सव में मुखिया एक मुखौटा लगाता है, जिसे नकटा कहा जाता है। मुरिया जनजाति का परंपरागत मुखौटा आमतौर पर तूम्बा (कद्दूवर्गीय) का बनता है, जिसमें आंखों के लिए पीतल के दो छल्ले लगाए जाते हैं। नाक के उभार के लिए मधुमक्खी का मोम लगाया जाता है। मुंह के आकार का एक छेद कर दिया जाता है, जिस पर दांत के लिए चावल के दाने लगे होते हैं। दाढ़ी के लिए बकरी या भालू के बाल लगाए जाते हैं। सिर पर मोरपंख का एक गुच्छा लगा दिया जाता है। ‘द ट्रायबल आर्ट ऑफ मिडिल इंडिया’ में वेरियन एलविन ने मुरिया जनजाति के मुखौटों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। 

सैला नृत्य- छत्तीसगढ़ के कोरिया की धरती पर सैला नृत्य विशेष लोकप्रिय है। जिस नृत्य में हास्य रस भी मौजूद होता है। छोटा नागपुर क्षेत्र के सैला नृत्य को यहां की जनजातियों ने अपना लिया है। धनुहार, भुइंहार, गोंड, कंवर, कोरवा, कोरकू, उरांव, खैरवार, बैगा, नगेसिया, अगरिया एवं मांझी जनजाति सैला नृत्य करती हैं।

सैला नृत्य के नर्तक रंग-बिरंगे परिधान धारण करते हैं। मोरपंख से सजावट करते हैं। गरबा की तरह हाथों में डांडिया ले नृत्य करते हैं। शहनाई और मांदर की मधुर ध्वनि पर थिरकते हैं। नृत्य का एक मुख्य नेतृत्वकर्ता होता है, जो सीटी बजा कर या विशिष्ट अंदाज में आवाका निकाल नृत्य की कडिय़ों का निर्देशन करता है। साथ में एक विदूषक भी होता है। कठमुहां (काठ का चेहरा) धारण किए विदूषक के हाथ में पानी की एक मशक होती है। अपनी विचित्र भाव-भंगिमा को प्रदर्शित करता विदूषक नृत्य में हास्य प्रस्तुत करता रहता है। 

भतरा नाट- पौराणिक आख्यानों के साथ तत्कालीन घटनाओं को नाट्य रूप भतरा में प्रस्तुत करते हैं। भतरा नाट बस्तर की लोकप्रिय रंग विधा है, जिसकी प्रस्तुत रात्रि के पहले प्रहर से शुरू होती है। नाट में पच्चीस से चालीस कलाकार होते हैं। अलसुबह तक नाट चलता है। इसमें पुरुष कलाकार ही स्त्री का अभिनय करते हैं। भतर नाट में पौराणिक पात्रों के लिए मुखौटों का उपयोग किया जाता है। पहले नाट के लिए मुखौटे परंपरागत ढंग से बनाए जाते थे। बदलते दौर में मुखौटे पेरपमेशी (कागका की लुग्दी से बने) के हो गए। अब प्लास्टिक के मुखौटे लोकप्रिय हो गए हैं।

भतरा नाट संस्कृत और उडिय़ा नाट्य का मध्ययुगीन स्वरूप है। बस्तर के महाराजा जब जगन्नाथ पुरी गए, उनके साथ उनके अनुचर और प्रजागण भी गए। राजा के गए अनुचर और प्रजगणों को उत्कल के ब्राह्मणों ने हिंदू धर्म में दीक्षित किया। उनका यज्ञोपवीत (जनेऊ) संस्कार किया। यही लोग भद्र कहलाने लगे। कालान्तर में भद्र भतरा हो गया। केसरपाल से मिले एक शिलालेख से इस बात की पुष्टि होती है।

उड़ीसा की सीमा से लगे बस्तर के अनेक गांव भतरा नाट के लिए प्रसिद्ध हैं। जगदलपुर, बकावंड, भानपुरी और केसरपाल में भतर नाट होता है। नाट का आरंभ गणेश और सरस्वती वंदना से होता है। मंच पर मुखौटा लगाए गणेश खड़े होते हैं। नाट गुरु उनकी वंदना करते हैं। इसी के साथ नट-नटी का आगमन होता है। गणेश जी आशीर्वाद देते हैं और फिर मंच में वीणावादिनी सरस्वती का प्रवेश होता है। नट-नटी संवाद होता है, कि आज कौन सा नाट प्रस्तुत हो। यही संवाद लंबे समय तक चलता है। नटी अपनी हार स्वीकार कर लेती है। इसी के बाद नाट आरंभ होता है। नाट में हनुमान-अंगद, सुभद्रा हरण, इन्द्रजीत वध, सत्यवान-सावित्री जैसे रामायण और महाभारत के प्रसंगों को लिया जाता है। पौराणिक खलनायकों के नाम पर भी नाट होते हैं, जिनमें जरासंध वध, हिरण्यकश्यप वध, दुर्योधन वध, कीचक वध जैसे नाट हैं। लक्ष्मण शक्ति, अभिमन्यु वध व लक्ष्मी पुराण नाट प्रसिद्ध हैं। तात्कालिक घटनाओं पर भी भतरा मंचित होते हैं। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद इंदिरा नाट ने खूब ख्याति अर्जित की। 

नाट में पौराणिक पात्र मुखौटा लगाते हैं। गणेश, हनुमान, जामवंत, नरसिंग, बाली, सुग्रीव, रावण मुखौटे में रहते हैं। जानवरों के लिए भी मुखौटों का इस्तेमाल होता है। विविध कथा प्रसगों में मुखौटों का स्वरूप व आकार बदलता रहता है। भतरना नाट में मुखौटे ही सांस्कृतिक आस्था, मनोभावों और चरित्रों का प्रभाव पैदा करने में समर्थ होते हैं। भतरा के मुखौटे परंपरागत तौर-तरीकों से बनाए जाते रहे हैं। अब भतर नाट के मुहड़े (मुखौटे) पेपरमेशी और प्लास्टिक के हो गए हैं।

भतरा नाट में गीत-संगीत की प्रधानता रहती है। अभिनय करने वाले पात्र गाते हुए नाचते हैं। जिनके पांवों में घुंघरू बंधे रहते हैं। मुख्य नाद्य नगाड़ा होता है। नगाड़ा वादन पर ही रंग प्रस्तुति होती है। वादक कलाकारों को ‘पालेवा’ कहा जाता है। कथानक को आगे बढ़ाने का कार्य पालेवा के जिम्मे रहता है। नाट का विदूषक ‘दुआरी’ कहलाता है। खुले मंच पर ‘चंदोवा’ तान कर भतरा नाट होता है। रात्रि से अलसुबह तक नाट चलता है।

आलेख

श्री रविन्द्र गिन्नौरे
भाटापारा, छतीसगढ़

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