Home / इतिहास / देवी का ऐसा स्थान जहाँ पद चिन्हों से जाना जाता है वार्षिक भविष्य

देवी का ऐसा स्थान जहाँ पद चिन्हों से जाना जाता है वार्षिक भविष्य

शिव और शक्ति से उद्भूत लिंगेश्वरी देवी (लिंगई माता) लिंग स्वरूपा जहां विराजमान हैं। लगभग दो फुट का प्रस्तर लिंग शिव स्वरूप लिए हुए है, जिसमें समाहित शक्ति लिंगेश्वरी देवी का सिंगार लिए हुए हैं। जहां शिव और शक्ति एकाकार हुए हैं यही अद्भुत रूप लौकिक जगत के लिए दर्शनीय हैं।

निसंतान दंपत्ति संतान की कामना दिए हुए देवी के समक्ष आते हैं। मान्यता है कि देवी के समक्ष प्रसाद ग्रहण करने पर मनोकामना सिद्ध होती है।

माता का प्राकट्य-बस्तर के आलोर गांव के समीप एक पहाड़ी पर माता का आदि स्थल है। किंवदंतियों के अनुसार लगभग एक सौ वर्ष पूर्व वनवासी कोर्राम को एक सपना आया था। उसने सपने की बात गांव वालों को बताई और इसी आधार पर खोज की गई तब वही गुफा मंदिर मिला जैसा उसने सपने में देखा था।

गुफा मंदिर-देवी का स्थल पूर्णता प्राकृतिक है। पहाड़ी के ऊपर एक विस्तृत चट्टान है इस चट्टान के ऊपर एक और पत्थर है। इस पत्थर के दक्षिण दिशा में एक सुरंग बनी है जो अत्यंत संकीर्ण है। यही है प्रवेश द्वार, जहां लगभग लेट कर, बैठ कर आगे जाना पड़ता है।

सुरंग की राह खत्म होते ही माता का गर्भ गृह नजर आता है। मंदिर का स्वरूप यहां दिख पड़ता है जो अंदर से स्तूप नुमा है। गुफा के मध्य में शिवलिंग स्थापित है जो गुप्त महादेव है और माता लिंगेश्वरी भी कहते हैं। गर्भगृह गोलाकार विस्तृत है जहां 25 से 30 लोग ही बैठ सकते हैं, यहां हमेशा अंधकार छाया रहता है।

लिंगेश्वरी देवी (लिंगई माता)

पूजा-अर्चना-यहां माता की रोज पूजा नहीं होती। लिंगेश्वरी देवी के दर्शन साल में एक बार ही होते हैं। हर वर्ष भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के बाद आने वाले बुधवार को देवी के पट खुलते हैं।

कोर्राम के वंशज ही यहां देवी पूजा करते हैं। जहां देवी की पूजा-अर्चना होती है,। पशु बलि या शराब अर्पण वर्जित है। निसंतान दंपत्ति मनोकामना के लिए देवी के समक्ष उपस्थित होते हैं जिन्हें पूजा करने के बाद पुजारी प्रसाद के रूप में एक खीरा देता है। खीरा को दंपत्ति अपने नाखून से चीरा लगाकर दो हिस्सों में बांटते हैं ।

खीरे के प्रसाद को मंदिर में ही ग्रहण किया जाता है। मनोकामना की पूर्ति होने के बाद दंपत्ति यहां दर्शन करने के लिए आते हैं। वनवासी परंपरा अनुसार देवी पूजन होता है जहां प्रसाद में खीरा अर्पण किया जाता है। मान्यता वह परंपरा-हर वर्ष केवल एक ही दिन देवी दर्शन होता है और पूजा अर्चना के बाद मंदिर सतह की चट्टान पर रेती बिछाकर इसे बंद कर दिया जाता है।

भादो माह में जब देवालय के पट खोले जाते हैं इसके पहले सुरंग मार्ग पर बिछी रेत पर पड़े निशान से भविष्य का अनुमान लगाए जाने की परंपरा है। पंच यहां पर पड़े निशान को देखते हैं और लोगों को इसका हाल बताते हैं।

रेत पर कमल निशान मिलने पर धन संपत्ति में वृद्धि, हाथी के पांव के निशान से धन धान्य, घोड़े के खुर के निशान मिलने पर कलह और युद्ध, बाघ के पंजों की आकृति मिलने पर जंगली जानवरों का आतंक, बिल्ली के पंजे की छाप मिलने पर भय, मुर्गी के पंजे के निशान मिलने पर अकाल आने की संभावना बताई जाती है।

प्रकृति, पर्यटन-बस्तर का सुदूर अंचल अपनी अलौकिक प्राकृतिक छटा लिए हुए है, जहां अपने साधन से ही आने पर वर्ष भर प्रकृति का आनंद लिया जा सकता है। बड़े डोंगर जहां दंतेश्वरी माई का मंदिर है ,माता दर्शन के बाद प्रकृति के मनोरम वातावरण को यहां से निहारा जा सकता है। भादो माह में यहां सर्वत्र हरियाली बिखरी रहती है पहाड़ी भी हरी-भरी सजीली नजर आती है। एडवेंचर के शौकीनों के लिए यह एक बेहतरीन स्थल है।

पहुंच मार्ग-रायपुर जगदलपुर मार्ग पर फरसगांव विकासखंड मुख्यालय है। फरसगांव से लगभग 9 किलोमीटर दूर पश्चिम में बड़े डोंगर मार्ग पर आलोर गांव स्थित है। आलोर से दो किलोमीटर उत्तर पश्चिम में एक पहाड़ी है, जिसे लिंगई गट्टा के नाम से जाना जाता है। इस पहाड़ी के ऊपर माता का देवालय स्थापित है।

आलेख

श्री रविन्द्र गिन्नौरे
भाटापारा, छतीसगढ़

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