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कीर्तिमुख मल्हार छत्तीसगढ़

जानिए देवालयों की भित्ति में यह प्रतिमा क्यों स्थापित की जाती है

प्राचीन मंदिरों के स्थापत्य में बाह्य भित्तियों पर हमें कौतुहल पैदा करने वाली एक प्रतिमा बहुधा दिखाई दे जाती है, जिसकी मुखाकृति राक्षस जैसी भयावह दिखाई देती है। जानकारी न होने के कारण इसे लोग शिवगण मानकर आगे बढ़ जाते हैं। कई बार मंदिरों में उपस्थित लोगों से पूछते भी हैं परन्तु उचित उत्तर नहीं मिल पाता तो जिज्ञासा शांत नहीं होती। चलिए आज आपको इस प्रतिमा मुख के विषय में बताते हैं, जो छत्तीसगढ़ के विभिन्न मंदिरों में भी पाई जाती है तथा ताला के मंदिर की मुखाकृति का शिल्प तो अद्भुत है।

कीर्तिमुख देवरानी जेठानी मंदिर ताला छत्तीसगढ़

इस मुखाकृति को कीर्तिमुख कहा गया है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इसका जीवंत निर्माण लंका के प्रवेशद्वार पर शुक्राचार्य द्वारा किया गया था। वर्णन है कि शुक्राचार्य ने “रुद्र कीर्तिमुख” नाम का दारुपंच अस्त्र लंका के प्रवेशद्वार पर स्थापित किया, बाहर होने वाली प्रत्येक गतिविधि इस पर चित्रित होकर दिखाई देती थी। इसके मुख से अग्नि का गोला निकल कर शत्रु का संहार करता था। लंका में कीर्तिमुख का अस्त्र के रुप में प्रयोग किया गया। वर्तमान में हम घरो, दुकानों एवं अन्य महत्वपूर्ण स्थानों पर सी सी टी वी कैमरों का इस्तेमाल करते हैं, इसी तरह कीर्तिमुख अस्त्र का निर्माण कर प्रयोग किया गया था।

कीर्तिमुख के विषय में एक कथा मत्स्य पुराण अ 251 में आती है –  अंधकासुर के वध के समय भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर जो स्वेद बिंदू गिरे उनसे एक भयानक आकृति का पुरुष प्रकट हुआ। जिसने अंधकगणों का रक्त पान किया, परन्तु अतृप्त ही रहा। अतृप्त होने के कारण वह भगवान शंकर का ही भक्षण करने चल दिया। इस कारण महादेवादि देवों ने इसे पृथ्वी पर सुलाकर वास्तु देवता के रुप में प्रतिष्ठित किया और उसके शरीर में सभी देवताओं ने वास किया।  इसलिए यह वास्तु पुरुष या वास्तु देवता कहलाने लगा। देवताओं ने वास्तु को  गृह निर्माण, वापी, कूप, तड़ाग, गरी, मंदिर, बाग बगीचा, जीर्णोद्धार, यग्य मंडप निर्माणादि में पूजित होने का वरदान दिया। तब से यह वास्तु देवता के रुप में पूजित एवं प्रतिष्ठित है।

एक अन्य कथा में बताया गया है कि प्राचीन काल में  जलंधर नामक एक महाशक्तिशाली दैत्य उत्पन्न हुआ जिसने अपनी तपस्या के बल पर  ब्रह्मा को खुश करके कई वरदान प्राप्त कर लिये। इसने जंगल के मध्य अपने लिए एक भव्य भवन का निर्माण कराया और एक राक्षसी सेना भी तैयार कर ली। इससे इसकी ताकत बहुत बढ़ गई और मन में अहंकार भी समा गया। अब वह प्रतिदिन संध्या समय एक सुंदर रथ पर सवार होकर भ्रमण के लिए निकलता था और  ऐसे-ऐसे कार्यों को अंजाम दे डालता था जिससे प्रजा त्राहि-त्राहि कर उठती थी।

इसी क्रम में एक दिन जलंधर रथ पर सवार होकर घूम रहा था कि एक मादक सुगंध उसके नाक में समा गई जिससे वह चकित हो उठा और चतुर्दिक दृश्यों को निहारने पर एक अद्वितीय सुंदर नारी जंगल में घूमती हुई दिखाई दी। तब वह चौंका – कौन है यह नारी? इस सुन्दरी के अंदर तो सृष्टि की सारी सुघड़ता सिमटी जैसी दिखाई दे रही है। ‘यह कैलासपति शिव की पत्नी पार्वती है’, एक सेवक ने उत्तर दिया तो वह हंस पड़ा, ‘भला उस बूढ़े शिव के साथ इस अनुपम सुन्दरी का क्या काम? मैं इसे अपनी पटरानी बनाऊंगा।’ दैत्य ने मन में ठान लिया और बेचैन होकर महल में वापस लौट आया फिर अपने एक सेवक को दूत बनाकर शिव के पास भेजा।

इस सेवक का नाम रोनू था। वह कैलास पर्वत पर पहुंचा तो भोलेनाथ योगसाधना में मगन थे। इससे रोनू तनिक सहमा किंतु शीघ्र अपनी राक्षसी प्रवृत्ति के अनुकूल जोर-जोर से चिल्लाने लगा, ‘आप पार्वती को तुरंत हमारे हवाले करें क्योंकि दैत्यपति जलधर को वह पसंद आ गयी है।’ शिव कुछ सुन नहीं पाये क्योंकि उनकी आंखें मुंदी थीं और पूरा शरीर एकदम स्थिर था। मगर रोनू का हठ तो पराकाष्ठा पर पहुंच गया और अपनी बात चिल्ला-चिल्ला कर बताने लगा। उसकी चिल्लाहट से शिव की तंद्रा टूट गयी और और उन्होंने रोनू की तरफ लाल-लाल आंखों से देखा फिर क्रोध से अपने त्रिनेत्र खोल लिये। इस त्रिनेत्र के खुलते ही आक्रोश की एक रक्तिम धारा बहने लगी जिससे एक विचित्र जीव पैदा हो गया।

इस जीव के चेहरे का आकार बाघ पशु के समान चौड़ा एवं मजबूत था जबकि हाथ-पैर रस्सी की भांति पतला तथा छिन्न। यह जीव जन्म लेते ही भूख-भूख चिल्लाने लगा और रोनू की ओर लपका। वह शिव के चरणों में गिर पड़ा और प्राण रक्षा के लिए गुहार लगाने लगा। रोनू के गिड़गिड़ाने से शिव को दया आ गयी और उन्होंने माफ कर दिया, पर उस जीव की भूख को मिटाना आवश्यक था। इससे शिव सोच में पड़ गये किंतु शीघ्र ही इस जीव का नामकरण कीर्तिमुख किया फिर प्रेमपूर्ण दृष्टि से निहारते हुए समझाया – पुत्र कीर्तिमुख, जब तक भोजन का प्रबंध नहीं होता तब तक अपने ही हाथ-पैर खाकर भूख मिटा लो।

बस फिर क्या कहना था, कीर्तिमुख अपने ही हाथ-पैर पर टूट पड़ा और पेट-पीठ भी खा गया। इसके बाद गर्दन की ओर बढ़ा तो शिव ने रोकते हुए कहा  पुत्र कीर्तिमुख, तुम्हारा जीवित रहना आवश्यक है ताकि मेरी कुटिया की सुरक्षा होती रहे अत: तुम द्वार पर नियुक्त हो जाओ। शिव से आदेश पाकर कीर्तिमुख इनके द्वार  का प्रहरी बन गया और अपने जीवन को धन्य कर लिया। इस जीव के अंदर शिव-मस्तिष्क का कल्याण समाहित है, इसलिए शिवालयों में इसकी दैत्यनुमा आकृति बनाने की परम्परा है और यह भी मान्यता है कि जो व्यक्ति कीर्तिमुख की पूजा करके शिवालय में प्रवेश करता है उसकी प्रार्थना शिव तुरंत सुनते हैं। इसी मान्यता स्वरुप शिवालयों में कीर्तिमुख की स्थापना करने का विधान है।

 

आलेख

ललित शर्मा
इंडोलॉजिस्ट

 

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5 comments

  1. अद्भुत जानकारी ।

  2. हरेन्द्र धर्रा

    गजब जानकारी ।

  3. शरद व्यास

    अद्भुत जानकारी गुरुदेव।

  4. तरुण शुक्ल

    बढ़िया जानकारी । आपके लेख से हम दूर रह कर भी छत्तीसगढ़ और इसकी संस्कृति के लिए काफी कुछ जान पाते है ।

  5. ग़ज़ब हैं आप सच में कमाल की जानकारी
    ,🌹🙏🌹

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