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जनजातीय संस्कृति में पगड़ी का महत्व : बस्तर

भारतीय संस्कृति में पगड़ी का काफी महत्व है। प्राचिनकाल में राजा-महाराजा और आम जनता पगड़ी पहना करती थी। पगड़ी पहनने का प्रचलन उस काल से लेकर आज तक बना हुआ है। पगड़ी को सम्मान का प्रतीक माना जाता है। सिर पर बान्धने वाले परिधान को पगड़ी, साफा, पाग, कपालिका शिरस्त्राण, शिरोवस्त्र आदि कहा जाता है। यह पहनावा आदमी के व्यक्तित्व में निखार लाता है।

अलग-अलग प्रान्तों में विभिन्न प्रकार की पगड़ी बान्धी जाती है। कुछ प्रान्तों की तो पहचान ही पगड़ी है। राजस्थान, हरियाण, पंजाब के लोगो की पगड़ी के बिना कल्पना ही बेमानी है। जाट और गुर्जर हमेशा पगड़ी धारण किये रहते हैं। सिखों की तो पहचान ही पगड़ी है। वे हर समय पगड़ी धारण किये रहते हैं। इन्होंने तो पगड़ी को अपने धार्मिक प्रतीकों में शामिल कर लिया है। इनका पसन्द और स्वभाव पगड़ी के रंगों से व्यक्त होता है। वे नीला, केसरिया, गुलाबी, काला, सफेद आदि रंगों की पगड़ी पहनते हैं। शादी या सामाजिक कायों में उनकी पगड़ी का रंग लाल होता है।

पंजाबी पगड़ी

राजस्थान के राजपूत पगड़ी धारण करना अपना धर्म समझते हैं। पगड़ी राजपूताना की आन-बान-शान है। राजपूतों के द्वारा विभिन्न समय में अलग-अलग रंग की पगड़ी पहनी जाती है। वे युद्ध में जाने के समय केसरिया रंग की पगड़ी पहना करते थे। केसरिया रंग को युद्ध और शौर्य का प्रतीक माना गया है। सामान्य दिनों में राजपूत बुजुर्ग खाकी रंग की पगड़ी पहनते हैं और शोक के समय सफेद रंग की पगड़ी धारण करते हैं।

पगड़ी यदि रंगीन होती है तो उसकी बात ही कुछ निराली होती है। समारोह आदि में रंगीन पगड़ी पहन कर भाग लेने का चलन आज भी हैं। राजस्थान में अलग-अलग वर्ग के लोग अलग-अलग पगड़ी धारण करते हैं। यहाँ पगड़ी के रंग पहनने का तरीका आदि उस वर्ग विशेष की विशेषता को प्रदर्शित करता है।

राजस्थान में मारवाड़ी पगड़ी की बात ही कुछ अलग होती है। इन पगड़ियों को बान्धने का तरीका भी गजब का होता है। राजस्थान, हरियाणा में घर आये मेहमान का स्वागत पगड़ी पहनाकर किया जाता है और मेहमान के सामने बिना पगड़ी धारण किये जाना अपशगून माना जाता है।

हरियाणवी पगड़ी

पगड़ी चलन अँग्रेजों के आने के बाद से कुछ कम जरूर हुआ, मगर समाप्त नहीं हुआ। आज भी शादी समारोह में दोनों पक्ष के लोग अलग-अलग रंग की पगड़ी बान्धते हैं, जिससे समारोह की सुन्दरता और बढ़ जाती है। ऐसा नहीं है कि केवल हिन्दूओं में पगड़ी धारण करने का रिवाज है।

मुगल भी पगड़ी पहना करते थे। उस काल में रेगिस्थान की तेज धूप और अन्धड़ में रेत से बचने के लिये पगड़ी पहनी जाती थी। इनकी पगड़ी हरे रंग की होती थी, जो हरियाली को समर्पित थी। आज भी मुस्लमानों के धर्मगुरू और समाज के विद्वान सफेद पगड़ी पहनते हैं। मुस्लिम लोग आज भी शादी या धार्मिक समारोह में हरे रंग की पगड़ी पहनते हैं।

पगड़ी के प्रति लोगों की आम धारणा है कि यह सम्पन्नता का प्रतीक है। पगड़ी धारण करने वाले व्यक्ति को सेठ (साहूकार) कहा जाता हैं। पुराने जमाने में धनवान या व्यापारी लोगों की परिकल्पना पगड़ी धारण किये हुये सभ्रान्त व्यक्ति से की गई है। वैसे तो पगड़ी को सम्मान का प्रतीक माना गया है। अपनी पगड़ी के लिये लोग मरने मारने पर उतारू हो जाते हैं।

पगड़ी को गीतों, मुहावरों में स्थान दिया गया है, जो इसके महत्व को दर्शाता है। पगड़ी उछालना (अपमान करना), पगड़ी पहनाना (बेवकूफ बनाना) आदि। लोग अपने सम्मान को बचाने के लिये सामने वाले के पैर में पगड़ी रख देते हैं, उसे झुका हुआ देखकर सामने वाला पसीज जाता है और अपन गुस्सा थूक कर उसे गले लगा लेता है।

बस्तरिया देवमांझी

पगड़ी खास लोगों के अलावा आम लोगों का भी परिधान है, इसे जनजातीय समाज के लोग भी पहनते हैं। बस्तर की जनजातीय संस्कृति में पगड़ी एक प्रमुख परिधान है। इसे हल्बी और गोंडी भाषा में पागा कहते हैं। पागा बान्धना जनजाति वर्ग का कोई भी व्यक्ति अपना धर्म समझता है। रंग और कपड़े से इसका कोई लेना देना नहीं है। मकसद सिर पर पगड़ी बान्धने से है।

गमछा, साफा, लुंगी आदि कोई भी कपड़ा हो आदिवासी समाज का व्यक्ति अपने सम्मान और दूसरों के सम्मान के लिये सिर में पगड़ी अवश्य धारण करता है। धोती को दो टुकड़ा करके पगड़ी बान्धी जाती है। जनजातीय समाज की पगड़ी सफेद रंग की होती है। आदिवासी समाज का व्यक्ति चाहे वह घर में रहे या बाहर जाये पगड़ी अवश्य बान्धकर निकलता है।

जनजातीय समाज में भी पगड़ी को सम्मान का प्रतीक माना गया है। देवता सम्बन्धी जितने भी कार्य होते हैं, उस जगह समाज का प्रत्येक व्यक्ति पगड़ी पहनकर ही उपस्थित रहता है। सामाजिक कार्यो में भी सगा और सहोदर दोनों पक्ष के लोग पगड़ी धारण किये रहते हैं।

आदिवासी समाज में पगड़ी धारण करने के विषय में इतना कहा जा सकता है कि पगड़ी के बिना एक आदिवासी व्याक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती है। बस्तर के आदिवासियों को देखने से ही लगता है कि पगड़ी इनके व्यक्तित्व का आवश्यक परिधान है। सारा बदन उघाड़ा, सिर पर पगड़ी और कमर में लंगोटी, चौड़ी चकती छाती, ये किसी योद्धा से कम नहीं लगते हैं। इनके कमर में एक नक्काशीदार छूरी खूँची रहती है और कन्धे पर टंगिया या फरसा टाँगे रहते हैं।

कन्धे में कमरा (जानवर के बाल से बना कम्बल) और एक लकड़ी का डण्डा, जिसमें तुम्बा (सूखी लौकी का पात्र) और पीसवा (बाँस की कमची से बना ढक्कन युक्त बैग) टँगा रहता है। देखने से ही लगता है कि पूरी तैयारी से योद्धा युद्ध करने निकला है। यह सब एक आदिवासी व्यक्ति के लिये आवश्यक होता है। क्योंकि उसे हर समय जंगली जानवरों का खतरा होता है। किसी भी आसन्न संकट से निपटने के लिये वह हर समय योद्धा की तरह तैयार रहता है। पगड़ी को किसी योद्धा के सिर पर सजना ही चाहिये, क्योंकि यही तो उसके पुरुषार्थ का प्रतीक है।

सगा का स्वागत

आदिवासी समाज का मानना है कि वे अपने आदिपुरुषों की संतान हैं। उनके आदिपुरुष ही उनके देवी-देवता हैं, जो अपने उच्च आदर्श और प्रतिमान से देवत्व को प्राप्त हुये हैं। इन महापुरुषों ने ही उन्हे जीवन जीने की कला सिखाई। आदिवासी समाज अपने देवताओं के स्वरूप की परिकल्पना अपने ही रूप के समान करता है। पगड़ी बान्धे उस पर तुर्रा लगाये, लंगोटी पहने आदिपुरुष उनकी कल्पना में बसे हुये हैं।

आदिवासी समाज भी उनके समान ही वेश धारण करता है और अपने आदिपुरुष देवताओं के सम्मान में पगड़ी पहनता है। आदिवासी के बहुत कम देवताओं की मूर्ति होती है, परन्तु जब भी देवताओं के स्वरूप की कल्पना आदिवासी समाज करता है, तो सिर में पगड़ी धारण किये स्वरूप की ही कल्पना करता है। इनके महापुरुष चाहे वे शहीद वीर नारायण हो या शहीद गेंदसिंह हो सभी तस्वीर में पगड़ी पहने दिखलाई देते हैं।

एक दो तस्वीर देवताओं की भी देखने को मिली उसमें भी देवता पगड़ी पहने हुये हैं। जैसे भीमा देव के चित्र में भीमादेव (जल बरसाने वाले देवता) को पगड़ी पहने हुये चित्रित किया गया है। नृत्य संगीत के देवता, शंकर भगवान के नटराज स्वरूप लिंगों देवता का चित्र नक्काशीदार पगड़ी पहने देवता की कल्पना है। आदिवासी समाज मृत्यु के बाद मृत्यु स्तम्भ (मठ) बनाता है। यदि मृत व्यक्ति समाज का प्रमुख या परिवार का मुखिया होता है तो उसके मठ में मूर्ति बनाई जाती है, वह मूर्ति भी पगड़ी पहने हुये बनाई जाती है।

आदिवासी समाज का प्रत्येक व्यक्ति हर समय पगड़ी धारण किया रहता है। एक सजा-धजा आदिवासी व्यक्ति देखते ही बनता है। आदिवासी समाज दो तरह से पगड़ी बान्धता है। एक तरह से बान्धी गई पगड़ी में माथे के बीचो-बीच साफे का छोर निकला होता है और दूसरे तरह की बान्धी गई पगड़ी सपाट होती है। इस तरह की पगड़ी आम तौर पर बुजुर्ग लोग ज्यादा पहनते है।

बस्तर का आदिवासी सफेद पगड़ी धारण करता है। समाज में पद धारण करने वालों की पगड़ी उनके पद के अनुरूप रंगीन होती है। सामाजिक व्यवस्था में दो तरह के पद अहम होते हैं। परगने का धार्मिक मुखिया को देव माँझी कहा जाता है, उसे समाज के द्वारा लाल पगड़ी पहनाकर सम्मनित किया जाता है। उसके बाद वह हमेशा लाल पगड़ी ही पहनता है। देव काम एवं सामाजिक विवादों में देव माँझी का निर्णय अन्तिम होता है।

देवमांझी

इसी तरह पूरे परगने का एक प्रशासनीक पद भी होता है, जिसे परगना माँझी कहा जाता है। यह पद प्रशासन द्वारा घोषित पद होता है। इन्हें भी लाल रंग की पगड़ी शासन की ओर ये दिया जाता है। यह पगड़ी ही इनकी पदवी है। प्रशासन की ओर से साल में एक बार परगने के माँझियों को लाल पगड़ी दी जाती है।

बस्तर का आदिवासी समाज क्षेत्र के अनुसार भी पगड़ी धारण करता है। शहर के आस-पास बसे गाँव के लोग माथे के बीच साफे का छोर निकालकर पगड़ी बान्धते हैं जबकि सदूर अंचल में बसने वाले आदिवासी सपाट पगड़ी बान्धते हैं। देखने में यह भी आता है कि क्षेत्र विशेष के लोग अपनी पहचान दिखाने के लिये एक ही रंग की पगड़ी बान्धते हैं। जैसे नारायणपुर के बेनूर परगने के लोग नीले रंग की पगड़ी धारण करते हैं।

अबूझमाड़ के लोगों को उनकी पगड़ी से भी पहचाना जा सकता है। वे भी हमेषा सफेद रंग की पगड़ी ही बान्धते हैं, मगर उनकी पगड़ी सपाट नहीं होती बल्कि माथे पर त्रिकोण बना होता है। साफे का दोनों छोर पगड़ी में ही फँसा होता है। पगड़ी टोपी के जैसे दिखती है। मुण्डा जनजाति के लोग जो दशहरा के समय मुण्डा बाजा बजाते हैं, वे भी लाल पगड़ी धारण करते हैं।

आम बस्तरिया

इनकी पगड़ी का साफा लम्बा होता है। माथे के ऊपर एक छोर निकला होता है और दूसरा छोर पीछे लटका होता है, जिसे वे सामने के तरफ ले आते हैं। इस जनजाति का मानना है कि लाल पगड़ी उन्हें राजा की ओर से दिया गया उनकी सेवा का सम्मान है। इसलिये वे लाल पगड़ी धारण करते हैं।

आदिवासी समाज शृंगार प्रिय है। इस समाज के युवक-युवतियाँ हर समय सजे-धजे रहते हैं। एक सजीले नवजवान आदिवासी युवक की कल्पना पगड़ी के बिना नहीं की जा सकती। अविवाहित जवान लड़के लाल रंग छोड़कर किसी भी रंग की पगड़ी पहनते हैं।

आदिवासी संस्कृति में नृत्य का प्रमुख स्थान है। कुछ अवसरों पर किये जाने वाले नृत्य में पूरे शृंगार के साथ नृत्य किया जाता है। नृत्य के समय युवक रंगीन पगड़ी पहनते हैं। पगड़ी के साफे का एक छोर माथे के ऊपर झूलता रहता है।

पगड़ी बान्धने के पहले तलाकासरा (छोटी मनिहारी मोती की माला) सिर पर पहनते है, इसके बाद पगड़ी बान्धते हैं। जिसका फूँदड़ा दोनों आँखों के किनारे झूलता रहता है। पूरा शृंगार जब हो जाता है, तब पगड़ी पर जंगली पक्षी के पँख से बना कलँगी खोंचते हैं। जो नर्तक की सुन्दरता को चार चाँद लगा देता है।

वर्तमान में बहुत से आदिवासी पढ़-लिख कर नौकरी पेशे में हैं, मगर वे भी जब धार्मिक या सामाजिक काम में शामिल होते हैं तो वे भी पगड़ी अवश्य पहनते हैं। आदिवासी समारोह या सम्मेलन में आगन्तुक मेहमानों को पगड़ी पहनाकर सम्मानित किया जाता है। आजकल युवतियां भी सामाजिक कार्यो में एक सफेद रंग की पगड़ीनुमा पट्टी सिर में पहनकर भाग लेती हैं। यह उनकी पहचान बनी हुई है।

आदिवासी संस्कृति में पगड़ी रची-बसी हुई है। सामाजिक लोगों द्वारा किसी भी धार्मिक या सामाजिक कार्यो में पगड़ी पहनना अनिवार्य है। सामाजिकता के साथ पगड़ी का गहरा सम्बन्ध है। जब किसी परिवार में लड़के की शादी करनी होती है, तो वह पहले विवाह के खर्च की व्यवस्था करता है।

आदिवासी समाज में दोनों ओर का खर्च लड़के वाले वहन करते हैं। गरज भी इनकी होती है। सारी तैयारी करके लड़के पक्ष वाले पहली माहला (सगाई) के लिये जाते हैं। वहाँ परिचय के बाद बहुत ही नाटकीय अन्दाज में वार्तालाप प्रारम्भ होता हैं लड़के पक्ष के लोग में से एक कहता है, तुम्हारे घर फूल खिला है, उसे हम अपनी पगड़ी में सजाने आये हैं। लड़की का पिता कहता है। यह सहीं है कि मेरे घर फूल खिला है और उसे दूसरे की पगड़ी में सजना भी है।

आम बस्तरिया

यह पूरा वार्तालाप पगड़ी के महत्व का दर्शाता है। अनोखे अन्दाज के इस वार्तालाप का भावार्थ है कि हम तुम्हारी घर की लड़की को अपने घर की शोभा बनाना चाहते हैं। इस तरह प्रतीकों में पगड़ी का सुन्दर प्रयोग होता है। यह केवल जनजाति में ही नहीं है, बस्तर में निवासरत अन्य जातियों में भी इसी तरह सगाई की शुरूआत की जाती है।

बस्तर की जनजातीयों में एक अवसर और आता है, जब पगड़ी के महत्व का पता चलता है। किसी परिवार में किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है। तब सगाओ के द्वारा उस परिवार की शुद्धि की जाती है। सगा परिवार ऐसे परिवार होते हैं, जो उस परिवार से लड़की विवाह कर ले गये हो या उस परिवार को अपनी लड़की विवाह के लिये दिये हो। सगा परिवार के द्वारा शुद्धिकरण का कार्य किया जाता है। इसे “सुदेस” करना कहते हैं।

मृतक को दफनाने के तीसरे दिन बड़ा काम किया जाता है। इसी दिन मृतक का मृत्यु स्तम्भ सगा लोगों द्वारा बनाया जाता है और मृत्यु भोज के उपरान्त सारा समाज बैठता है। एक ओर मृतक परिवार के सारे खानदान के लोग बैठते हैं और दूसरी ओर उस खानदान के जितने भी सगा होते हैं, वे सारे लोग बैठते हैं। यह मृत्यु रस्म की अहम कड़ी है। सारे सगा अपने-अपने सगाओं को पगड़ी पहनाकर सारे समाज के सामने सम्मानित करते हैं। पगड़ी जनजाति समाज में भी सम्मान का प्रतीक है। इस तरह पगड़ी का महत्व जातीय एवं जनजातीय समाज दोनों में अभी तक बना हुआ है।

आलेख

शिवकुमार पाण्डेय
नारायणपुर, बस्तर

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One comment

  1. Vijaya Pant Mountaineer

    बहुत ही सुन्दर विस्तृत जानकारी ✍️✍️✍️👋💐
    पगड़ी के बारे में

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