Home / इतिहास / आज़ाद था, आज़ाद हूँ, आज़ाद ही मरूंगा
क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की अज्ञातवास के दौरान कुटिया

आज़ाद था, आज़ाद हूँ, आज़ाद ही मरूंगा

‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।’ यह गीत बचपन से सुनते आए थे। इस गीत के माध्यम से यह बताया गया है कि स्वतंत्रता की प्राप्ति अहिंसा से हुई। जब स्वतंत्रता की प्राप्ति अंहिसा से हुई तो क्या क्रांतिकारी बेवजह जान गंवा रहे थे? क्या बम के धमाकों से अंग्रेज शासन की चूलें नहीं हिल रही थी? यह एक तरह का षड़यंत्र ही था जो क्रांतिकारियों के स्वतंत्रता के सशस्त्र आंदोलन को कम करके आंकने का।

यह परले दर्जे का नमकहरामी ही थी जो उन क्रांतिकारियों के स्वतंत्रता संघर्ष को कम करके आंका गया और इतिहास में आंशिक रुप से स्थान दिया गया। उन्होंने प्राणों का होमकर आजादी का मार्ग प्रशस्त किया था। अंग्रेजों के ताबूत में कीलें ठोंकने का काम क्रांतिकारियों ने ही किया। बाकी तब के नरमदल अंग्रेजों के उस ताबूत को आज भी उठाये फ़िर रहे हैं।

सातार नदी के किनारे स्थिति चंद्रशेखर आजाद का स्मृति स्थल

हम उन क्रांतिकारियों को यूं ही नहीं भुला सकता, यूं ही उन्हें विस्मृत किया जा सकता जिन्होंने स्वतंत्रता की लड़ाई में अपना सर्वस्व हवन कर दिया और प्राणों को न्यौछावर कर दिया। वे हमारे आज भी आदर्श हैं। उनके विषय में आज देश की युवा पीढ़ी को जानना चाहिए और उनके कार्यों पर शोध कार्य करना चाहिए।

मैं आज इन क्रांतिकारियों का स्मरण इसलिए कर रहा हूँ कि आज महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म दिन है। चंद्रशेखर आज़ाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित सीताराम तिवारी था, जो बदर गांव, जिला-उन्नाव, उत्तर प्रदेश के निवासी थे। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता। 

चंद्रशेखर आज़ाद, मात्र 17 वर्ष की आयु में क्रांतिकारी दल ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में सम्मिलित हो गए। उन्होंने दल में प्रभावी भूमिका निभायी। उन्होंने प्रसिद्ध ‘काकोरी कांड’ में सक्रिय भाग लिया। सांडर्स वध, सेण्ट्रल असेम्बली में भगत सिंह द्वारा बम फेंकना, वाइसराय की ट्रेन बम से उड़ाने की चेष्टा, सबके नेता वही थे।

क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद की प्रतिमा

1921 में जब महात्‍मा गाँधी ने असहयोग आन्दोलन प्रारंभ किया तो उन्होंने उसमे सक्रिय योगदान किया। चंद्रशेखर आज़ाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। 

27 फ़रवरी, 1931 को जब चंद्रशेखर आज़ाद अपने साथी सुखदेव राज के साथ एल्फ्रेड पार्क में बैठकर विचार–विमर्श कर रहे थे तो मुखबिर की सूचना पर पुलिस ने उन्हें घेर लिया। बहुत देर तक आज़ाद ने जमकर अकेले ही मुक़ाबला किया। उन्होंने अपने साथी सुखदेवराज को पहले ही भगा दिया था।

आख़िर में उनके पास केवल एक आख़िरी गोली बची। उन्होंने सोचा कि यदि मैं यह गोली भी चला दूँगा तो जीवित गिरफ्तार होने का भय है। उन्होंने आख़िरी गोली स्वयं पर ही चला दी। इस घटना में चंद्रशेखर आज़ाद की मृत्यु हो गई। 

यह तो सर्वज्ञात है कि चंद्रशेखर आजाद का भारत की आजादी के आन्दोलन में उनका सक्रिय योगदान था, उनके सशस्त्र संघर्ष को भुलाया नहीं जा सकता। ओरछा यात्रा के दौरान मैं उस स्थान पर गया जहाँ सातार नदी के किनारे काकोरी कांड के बाद छद्म नाम एवं वेशभूषा में चंद्रशेखर आजाद ने अपना अधिकतम समय काटा था।

अज्ञातवास के दौरान आजाद इसी मृदा शैय्या पर शयन करते थे।

यहाँ काकोरी कांड 1925 के बाद क्रांतिकारी दल को पुन: गठित करने के उद्देश्य से चंद्रशेखर आजाद साधु वेश में गुप्त रुप से रहे थे। सातार नदी तो अब सूख चुकी है, परन्तु चंद्रशेखर आजाद की यादों की नदी अभी तक जन मानस में प्रवाहित है। द्वार पर चंद्रशेखर आजाद स्मृति मंदिर लिखा हुआ है। मध्य प्रदेश सरकार ने यहाँ उनकी आदमकद प्रतिमा स्थापित कर दी है।

चंद्रशेखर आजाद यहाँ एक कुटिया में रहा करते थे। उनका मिट्टी का बिस्तर एवं उसका सिरहाना ज्यों का त्यों संरक्षित है। परन्तु कुटिया की हालत खराब है, कभी भी गिर सकती है। इस कुटिया से पचीस कदम की दूरी पर उन्होने एक गुफ़ा भी बना रखी थी, जिसमें उनको आपातकाल में छिपने की सुविधा हो सके।

अज्ञातवास के दौरान छिपने के लिए खोदी गई सुरंग

काकारी कांड के बाद फ़रारी की हालात में आजाद का केन्द्र झांसी था। यहां उनके क्रांतिकारी साथी और संरक्षक मास्टर रुद्रनारायण सिंह, भगवानदास माहौर और सदाशिवराव मलकापुरकर थे। मास्टर साहब तो आजाद के बड़े भाई जैसे थे। 

सातार नदी के किनारे आजाद आधा कंबल कमर से बांधे और आधा कंधों पर डाले सातार तटवासी बाबा बने रहे। लेकिन जल्दी ही वे धोती-कुर्ता से लैस होकर दल की एक साइकिल पर ढिमरपुरा आने-जाने लगे। काकोरी मामले से जुड़े क्रांतिकारियों में आजाद ही अकेले थे, जो फरारी की हालत में सक्रिय रह कर भी ब्रिटिश पुलिस के हाथ नहीं आए।

नेतृत्व की स्वाभाविक जिम्मेदारी उनके ऊपर आ गई थी। क्रांतिकारी साथियों ने आजाद से मांग की कि वे झांसी छोड़ कर लाहौर, दिल्ली, आगरा, कानपुर, बनारस आदि शहरों में बारी-बारी से रहें। लेकिन आजाद ने अपना मुख्यालय झांसी ही बनाए रखा।

सातार नदी के किनारे चंद्रशेखर आजाद द्वारा खोदा गया कुंआ

एक बार आजाद सातार तट से झांसी लौट रहे थे कि उनका सामना दो पुलिस वालों से हो गया। वे पूछने लगे- ‘क्या तू आजाद है?’ बिना चौंके आजाद ने कहा- ‘हां, आजाद तो हैं! सो तो हम लोग होते ही हैं। हमें क्या बंधन है बाबा!’ सिपाहियों ने थाने चलने कहा तो वे दृढ़ता से बोले- ‘तुम्हारे थाने के दारोगा से हनुमानजी बड़े हैं। मैं तो हनुमानजी का हुक्म मानूंगा।’ पुलिस वाले भी उनकी सूरत देख कर समझ गए कि हनुमान भक्त उनसे तगड़ा है, सो उससे उलझना ठीक नहीं।

यहाँ पर आजाद ब्रह्मचारी के रुप में रहते थे, उन्होंने अपने हाथ छोटा सा कुंआ खोदा और बजरंग बली की स्थापना भी की। यहां उनका नाम हरिश्चंद्र ब्रह्मचारी था। वे कमर में मूंज की लंगोटी बांधते एवं हाथ में रामायण का गुटका लेकर चलते थे।

आजाद के व्यवहार एवं चाल चलन को देखते हुए ढिमरापुर के ठाकुर मलखान सिंह ने स्कूल के लिए अपनी चौपाल में जगह दे दी। उनका दिन भर विद्याथियों के बीच चौपाल में कटता था। आपसी प्रेम एवं विश्वास ऐसा स्थापित हुआ कि ठाकुर लोग उन्हें अपना पाँचवा भाई मानते थे।

आजाद ने यहां रहकर संगठन के सूत्र पुन: जोड़े। मास्टर रुद्रनारायण सिंह उनके सहायक बने।। कई बार खतरों के समय मास्टर साहब के घर में वे सुरक्षित बने रहे। आजाद सातार तट पर रहे तो वहीं से उन्होंने क्रांतिकारी दल के बिखरे सूत्रों को जोड़ लिया था।

क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद के आराध्य श्री हनुमान जी, उन्होंने हनुमान जी की स्थापना स्वयं की थी।

काकोरी के मुकदमे की सूचनाएं और अखबारों की कतरनें आदि उनके साथी उन्हें दे जाते थे। यहां रहते हुए आजाद का संपर्क झांसी के जिन लोगों से बना हुआ था, उनमें सदाशिवजी के अलावा विश्वनाथ वैशम्पायन, बालकृष्ण गिधौशेवाले, सोमनाथ और कालिकाप्रसाद अग्रवाल थे।

आजाद के गुप्त निवास के बारे में इन्हीं को मालूम था। आजाद ने कुछ खतरों को भांप कर सातार और ढिमरपुरा छोड़ दिया। पर आज भी सातार नदी के किनारे आजाद का स्थान उनकी याद दिलाता है। मैं इस पावन भूमि की रज को धारण कर धन्य हो गया। जीवन में ऐसे अवसर कभी कभी ही आते हैं।  महावीर क्रांतिकारी की 113 वीं जयंती पर उनको मेरा शत शत नमन।

आलेख एवं छायाचित्र

ललित शर्मा इंडोलॉजिस्ट

About hukum

Check Also

क्रांतिकारी पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान

सार्वजनिक जीवन या पत्रकारिता में ऐसे नाम विरले हैं जिनका व्यक्तित्व व्यापक है और जो …

2 comments

  1. बहुत ही प्रासंगिक जानकारी दी है आपने इस लेख में।

  2. Rakesh Kumar Kataria

    चंद्रशेखर आजाद के जीवन चरित्र पर आपने बहुत अच्छे ढंग से दर्शन कराएं भारत मां के सपूत को सच्ची श्रद्धांजलि
    शानदार उल्लेख गजब का लेखन

Leave a Reply to Rakesh Kumar Kataria Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *