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छत्तीसगढ़ में चौमासा

जेठ की भीषण तपन के बाद जब बरसात की पहली फ़ुहार पड़ती है तब छत्तीसगढ़ अंचल में किसान अपने खेतों की अकरस (पहली) जुताई प्रारंभ कर देता है। इस पहली वर्षा से खेतों में खर पतवार उग आती है तब वर्षा से नरम हुई जमीन पर किसान हल चलाता है जिससे खर पतवार की जड़ उखड़ने एवं धूप पड़ने से वह नष्ट हो जाती है तथा खेत फ़सल की बुआई के लिए तैयार हो जाता है। बस यही समय जेठ मास के जाने का एवं आषाढ़ मास के आने का होता है। कहना चाहिए कि यह समय चौमासे के प्रारंभ होने का होता है।

पौराणिक दृष्टि से आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि से लेकर कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी तक के आषाढ़, सावन, भादो, आश्विन नामक ये चार महीने  सनातन परंपरा में चौमासा कहलाते हैं। चौमासा नाम से विदित होता है कि यह वर्षाकाल है एवं इस काल में तीर्थाटन एवं देशाटन नहीं होता। छत्तीसगढ़ अंचल में कृषि कार्यों से जुड़े हुए लगभग सभी पर्व त्यौहार चौमासे में ही मनाए जाते हैं। 

छत्तीसगढ़ अंचल का चौमासा बड़ा ही सुंदर होता है, चारों ओर प्रकृति हरित परिधान धारण कर लेती है। जेठ मास में सूखे हुए वृक्ष एवं पौधे चौमासे की पहली फ़ूहार के साथ हरे हो जाते है तथा बीजो से नवांकुरण प्रारंभ हो जाता है। इसी समय छत्तीसगढ़ में तीज त्यौहार प्रारंभ हो जाते हैं।

जुड़वासन तिहार आषाढ़ मास की अमावश्या को जुड़वासन तिहार मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के गाँवों में तालाबों के की पार पर सीतला माता का स्थान होता है। यह स्थान तालाबों की पार पर इस लिए होता है कि तालाब से पानी लेकर सीतला माता को चढ़ाया जा सके।  इस दिन ग्रामीण जन गाँव के बैगा (ग्राम पुजारी) की अगुवाई में सीतला माता की पूजा पूरे विधि विधान से करते हैं। सीतला माता की सेवा में ग्रामीण भक्त सेवा गीत गाते हैं तथा महिलाएं सीतला माता को चावल चढ़ाती हैं और सीतला माता से आरोग्य की कामना करती हैं।

रथयात्रा छत्तीसगढ़ अंचल में रथदूज या रथयात्रा का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है, जगह-जगह भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जाती है तथा इस दिन मांगलिक कार्य करना भी शुभ माना जाता है। वैसे तो मुख्य रथयात्रा का पर्व उड़ीसा के पुरी में मनाया जाता है, परन्तु छत्तीसगढ़ की सीमा साथ उड़ीसा के साथ लगे होने एवं सांस्कृतिक संबंध होने के कारण वहाँ के तीज त्यौहारों का असर छत्तीसगढी जनमानस पर भी दिखाई देता है। यह पर्व छत्तीसगढ़ एवं उड़ीसा के बीच सांस्कृतिक सेतू का कार्य भी करता है तथा राष्ट्र को एकता के सूत्र में भी बांधता है।

सवनाही सावन के प्रथम सप्ताह में आने वाले प्रथम रविवार को “सवनाही तिहार” मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। इस त्यौहार को मनाने के पीछे उद्देश्य है कि जादू-टोना हारी-बीमारी से गाँव के जन, गाय, बैल, भैंस, बकरी, भेड़ एवं अन्य पालतू जीव जंतुओं की हानि न हो। गाँव में चेचक, हैजा जैसी बीमारियां प्रवेश न करें। सभी सानंद रहें।

सवनाही तिहार मनाने के लिए पहला रविवार ही निश्चित किया जाता है। गाँव का कोटवार इसकी सूचना हाँका करके समस्त ग्रामवासियों को देता है। इस दिन गाँव में सभी कार्य बंद रहते हैं। गाँव का निवासी यदि कहीं गाँव से बाहर भी काम करने जाता है तो उस दिन उसे भी छुट्टी करनी पड़ती है। खेतों में कोई हल नहीं जोतता, कोई बैलागाड़ी नहीं फ़ांदता। सभी के लिए यह अनिवार्य छुट्टी का दिन होता है। अगर कोई इस आदेश का उल्लंघन करता है तो उसके दंड की व्यवस्था भी है। दंड खिलाने-पिलाने से लेकर आर्थिक भी हो सकता है। इतवारी के दिन सिर्फ़ गाँव के चौकीदार को काम करने की छूट रहती है। सवनाही तिहार मनाने के लिए गाँव में बरार (चंदा) किया जाता है। जिससे पूजा पाठ का सामान खरीदा जाता है और बैगा की दान-दक्षिणा दी जाती है। सवनाही पूजा करने बाद ही गाँव में इतवारी छुट्टी मनाने की परम्परा है। जो 5-7 इतवार तक मानी जाती है। अधिकतर गांवों में पाँच इतवार ही छुट्टी की जाती है।

शनिवार की रात में बैगा के साथ प्रमुख किसान गाँव के समस्त देवी-देवताओं की पूजा करते हैं। इस रात बैगा के साथ जाने वाले समस्त लोग रात भर घर नहीं जाते और सोते भी नहीं। गाँव के किसी सार्वजनिक स्थान (मंदिर, देवाला, स्कूल) में रात काट देते हैं। फ़िर रविवार को पहाती (सुबह) होते ही चरवाहे गाँव के सभी मवेशियों को को चारागन में इकट्ठा कर देते हैं, उसके बाद मवेशियों के मालिक अपने घर से पलाश के पत्ते में कोड़हा (धान का चिकना भूसा) से बनी हुई अंगाकर रोटी के साथ कुछ द्रव्य लाकर राऊत और बैगा को देते हैं। जिसे लेकर बैगा और राऊत मवेशियों के साथ गाँव की पूर्व दिशा में सरहद (सियार) पर जाते हैं। वहाँ स्थित सवनाही देवी की पूजा की जाती है। पूजा के लिए एक जोड़ा नारियल, सिंदूर, नींबू, श्रृंगार का सामान, काले, सफ़ेद, लाल झंडे, टुकनी, सुपली, चूड़ी, रिबन, फ़ीता के साथ काली मुर्गी एवं कहीं-कहीं दारु का इस्तेमाल भी किया जाता है। पूजा के लिए नीम की लकड़ी की छोटी सी गाड़ी बनाई जाती है। जिसे लाल,काले और सफ़ेद ध्वजाओं से सजाया जाता है।

बैगा अपने साथ लाया हुआ पूजा का सामान देवी को अर्पित करता है और समस्त ग्राम देवी-देवताओं का स्मरण कर गाँव की कुशलता की प्रार्थना करता है। इसके बाद देवी की सात बार परिक्रमा करके कोड़हा की रोटी का देवी को भोग लगाकर सियार के उस पार रख देता है। इसके पश्चात काली मुर्गी के सिर पर सिंदूर लगा कर उसे सियार के उस पार भुत-प्रेत-रक्सा की भेंट के लिए छोड़ दिया जाता है। फ़िर बैगा वहां से चल पड़ता है, इस समय उपस्थित लोगों के लिए पीछे मुड़ कर देखना वर्जित होता है। ऐसी मान्यता है कि पीछे मुड़ कर देखने से सवनाही देवी नाराज होकर सभी भूत-प्रेतों को सियार (सरहद) पर ही छोड़ कर चली जाती है। सभी जानवरों को वापस गाँव में लाया जाता है। नारियल फ़ोड़ कर प्रसाद बांटा जाता है, यह प्रसाद सिर्फ़ उन्हे ही दिया जाता है जो बैगा के साथ पूजा-पाठ में सम्मिलित रहते हैं। भोग लगाने के बाद बची हुई कोड़हा की रोटी को मवेशियों को खिलाया जाता है।

सवनाही तिहार के दिन लोग घरों में गाय के गोबर से हाथ की 4 अंगुलियों द्वारा घर के दरवाजे पर आदिम आकृति बनाई जाती है। जो कहीं मनुष्याकृति होती है तो कहीं शेर इत्यादि बनाने की परम्परा है। इन आकृतियों से जोड़ कर चार अंगु्लियों की गोबर की रेखा घर के चारों तरफ़ बनाई जाती है। जैसे गोबर की रेखा से घर को चारों तरफ़ से बांध दिया गया हो। इस बंधने का उद्देश्य यही है कि कोई भूत प्रेत या गैबी शक्ति घर के निवासियों को परेशान न करे।

हरेली तिहार प्रकृति जब नवकलेवर को धारण करने लगती है तब सावन मास का आगमन होता है। यह मास देवी देवताओं की पूजा के नाम से महत्वपूर्ण है। लगभग सभी प्रमुख त्यौहार इस मास में ही होते हैं। हरेली का त्यौहार मनाया जाता है। हरेली तिहार सावन मास की अमावश्या को मनाया जाता है। इस समय किसान अपने खेतों में फ़सल की बुआई कर चुका होता है तथा फ़सल बोने के बाद इसे पहला त्यौहार माना जा सकता है।

‘हरेली‘ हरियाली का लोक रूप है। यह सावन माह में अमावस्या को मनाई जाती है। जब कृषक की बोनी, बियासी पूरी हो जाती है तब वह अपने कृषि औजारां की साफ-सफाई कर उनकी पूजा करता है। नांगर, जुड़ा, रापा, कुदारी, चतवार, हंसिया, टंगिया, बसुला, बिंधना आदि उन उन सभी औजारों की, जो कृषि कार्य में सहायक होते हैं, की पूजा की जाती है। पशुधन के बिना तो कृषि कार्य कतई संभव नहीं है। हरेली के दिन प्रातः पशुओं को आटे में नमक की लोंदी और वनोषधि खिलाई जाती है। ताकि वे निरोग रहें। कृषि औजारों की पूजा कर उन्हें ‘चीला और सोहारी‘ चढ़ाया जाता है, राऊत गाँव में प्रत्येक घर जाकर घर के मुख्य द्वार पर ‘दशमूर‘ और नीम की डंगाली खोंचता है। राऊत का यह कार्य उस घर परिवार के लिए निरोग रहने की कामना का प्रतीक है। बदले में गृह स्वामिनी उसे ‘सीधा‘ के रूप में चांवल, दाल व द्रव्य देती है। यह लोक मंगल की कामना का अद्भूत उदाहरण है। कुल मिलाकर हरेली कृषि संस्कृति का मंगल पर्व हैं।

नाग पंचमी श्रावण मास की शुक्ल पक्ष की पंचमी को नाग पंचमी के रूप में मनाया जाता है। नाग व सर्पों से रक्षा इस पर्व का अभिष्ट है। बरसात के दिन में सांप अपने बिल से निकल आते हैं। यही वजह है इस पर्व की लोकमान्यता के पीछे। अखाड़ों में विशेष पूजा की परम्परा है और कुश्ती की प्रतियोगिता भी होती है।

भोजली   भोजली पर्व सावन महीने में मनाया जाता है। भोजली मूलतः ग्रामीण जीवन की संस्कृति की उपज है। यह नागर जीवन में सर्वथा दुर्लभ है। भोजली उस प्रकृति के प्रारंभिक सौंदर्य की सुखानुभूति की अभिव्यक्ति है, जिसमें कोई बीज अंकुरित होकर अपने अलौकिक स्वरूप से सृष्टि का श्रृंगार करता है। श्रावण के शुक्ल पक्ष में सप्तमी या अष्टमी के दिन कुम्हार आवा की काली मिट्टी डालकर किशोरियों द्वारा गेहूं के दाने पूरी श्रद्धा अैर भक्ति के साथ बोए जाते हैं। ये उगे हुए पौधे ही भोजली देवी के रूप में प्रतिष्ठा पा्रप्त करते हैं। यहीं है भोजली, यही है गंगा।

अर्थात ‘भोजली गंगा‘ प्रकृति द्वारा प्रकृति की पूजा। प्रकृति वह जो नया सृजन करे या सृजन की प्रेरणा दे। किशोरियाँ भी तो नारी के रूप में मानव-जीवन का सृजन करती हैं। किशोरियाँ और उन्हीं की देखा-सीखी नन्ही बालिकाएँ भोजली के सृजन से लेकर विसर्जन तक मंगल गीत गाती हैं।

बालिकाएँ भोजली की जड़ों को प्रवाहित कर भोजली घर ले आती हैं। नदी-तालाब के तट पर गाँव में आकर सुवा नृत्य करती हैं। बालिकाओं द्वारा गाँव के देव स्थलों में देवताओं को भोजली अर्पित किया जाता है। तत्पश्चात् भोजली के माध्यम से गाँव के लोग स्नेह सूत्र में बंधते हैं। जिससे मन मिलता हो, जिससे आचार-विचार मिलता हो, जिससे प्रेम हो ऐसे साथी के कान में भोजली खांचकर भोजली बदा जाता है। यह बदना लोगों को जीवन पर्यन्त के लिए मित्रता के सूत्र में बांध जाता है। भोजली बदने के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं होता।

भोजली एक दूसरे को सीताराम भोजली कहकर अभिवादन करते हैं। यह बंधन परिवारिक और आत्मीय रिश्तों में तब्दील हो जाता है। बंधन में बंधने वाला मित्र या सहेलियां एक-दूसरे क नाम नहीं लेते, बल्कि भोजली कहकर संबोधित करते है। एक-दूसरे की माँ को परस्पर फूल दाई तथा बाप को फूल ददा कहकर मान देते हैं। भोजली का यह लोक पर्व सारे गाँव को एक सूत्र में बांधता है।

रक्षाबंधन श्रावण माह की पूर्णिमा रक्षाबंधन का त्योहार है। छत्तीसगढ़ में भी परंपरागत रूप से राखी का पर्व मनाया जाता है।

बहुरा चौथ भादो माह की चतुर्थी को बहुरा चौथ या बहुला चौथ का पर्व मनाया जाता है। माताएं अपने बच्चों की दीर्घायु के लिए यह व्रत रखती हैं। गाय की पूजा भी की जाती है। गुड़ और जव के आटे से लड्डू बनाने की प्रथा है।

कमर छठ हल षष्ठी के नाम से भी यह व्रत माताएं बच्चों के निमित्त रखती हैं। इस दिन वे गाय के दूध, दही और घी का उपयोग नहीं करतीं। पांच किस्म की भाजियों से बनी सब्जी और पसहर चाउंर (वाइल्ड राइस) से बने भात का भोजन करती हैं। कुआंरी जमीन से उपजे चावल को पसहर चावल कहते हैं। कांस के फूल का इस व्रत में विशेष महत्व होता है। भौंरा-बांटी आदि खिलौनों की भी पूजा की जाती है। पोता लगाने की परंपरा है। छुई मिट्टी से पीले रंग का और कोयले से काले रंग का पोता बनाया जाता है। कपड़े के टुकड़े से पोता बनता है जिसे माताएं लड़कों की पीठ पर लगाती हैं और फिर अपने आंचल से पोंछती हैं।

आठे कन्हैया आठे कन्हैया लोक संस्थापक श्री कृष्ण के जन्मोत्सव का केवल प्रतीक मात्र ही नहीं अपितु समूह की शक्ति को प्रतिस्थापित करने का पर्व है। उन्होंने हठी इन्द्र के मान-मर्दन व लोक रक्षण के लिए गोवर्धन पर्वत उठाया था। तब ग्वाल बालों के समूह ने जिस शक्ति शौर्य और सहयोग का प्रदर्शन किया था। आज लोक को उसी शक्ति शौर्य और सहयोग की आवश्यकता है। इसी लोक संगठन के रूप में श्रीकृष्ण लोक में ज्यादा पूज्य हैं।

आठे कन्हैया भादो महीने के कृष्ण पक्ष में अष्टमी को मनाया जाता है। संयोग देखिए कि श्रीकृष्ण देवकी के गर्भ से जन्म लेने वाली आठवीं सन्तान थे और उनका लोक अवतरण भी अष्टमी को हुआ। लोक को इन दोनों कारणों ने प्रभावित किया। इसलिए श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को लोक ने आठे कन्हैया के रूप में स्वीकार किया। इस पर भी लोक की यह आस्था देखिए कि आठे कन्हैया के दिन ग्रामीण जन आठ बालचित्रों को दीवाल पर चित्रित कर पूजते हैं।

तरह-तरह के फलाहारी व्यंजन खासतौर पर बनाए जाते है। सिंघाड़ा, तिखूर, राईजीरा के लड्डू, कोचई की पपची और गुड़ में पाग कर बैचांदी का भोग लगाया जाता है। मंदिरों में मालपुआ, पंजरी के अलावा छप्पन भोग लगाने की परंपरा है। रायपुर के दूधाधारी मठ, जैतुसाव मठ, गोपाल चंद्रमा मंदिर, इस्कॉन और खाटू श्याम मंदिर भक्तों के विशेष आकर्षण का केन्द्र होते हैं।

 नवाखाई (नवान्न ग्रहण)- छत्तीसगढ में नवाखाई का पंरपराओं में विशेष स्थान है। नवाखाई का मतलब है-नये अन्न को भोजन के रूप में खाने की शुरूआत करना। भारतीय परंपरा में जब भी किसी चीज का हम उपभोग करते हैं, तो उसे देव आराधना के साथ करते हैं। नवाखाई को अलग-अलग समुदाय के लोग अलग-अलग दिवस में मनाते हैं।

बस्तर के वनवासी समुदाय के लोग इस पर्व को भादो मास में मनाते हैं। धान की नई फसल आने की शुरूआत हो जाती है। नए धान के चावल से खीर बनती हैं। पूजा अर्चना के पश्चात नए चावल से बने खीर को प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं। बस्तर में ही सवर्ण समुदाय के लोग इस पर्व को राजा के साथ दशहरे के दिन मनाते हैं। इसी प्रकार मध्य छत्तीसगढ़ में इस पर्व को दशहरे के आसपास मनाया जाता है।

पोरा (पोला) – पोला पर्व भादों मास के अमवस्या के दिन मनाया जाता है। इस दिन को अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग तरह से मनाया जाता है। इस पर्व की शहर से लेकर गांव तक धूम रहती है। जगह-जगह बैलों की पूजा-अर्चना होती है। गांव के किसान भाई सुबह से ही बैलों को नहला-धुलाकर सजाते हैं, फिर हर घर में उनकी विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। इसके बाद घरों में बने पकवान भी बैलों को खिलाए जाते हैं।

इस पर्व दूसरा पक्ष है गर्भाही। पोला को आज भी ग्रामीण इलाकों में गर्भाही तिहार (त्यौहार) के रूप में जाना जाता है या मनाया जाता है। गर्भाही अर्थात् गर्भधारण करना। भादो अमावस्या के आते-आते ऐसी मान्यता है कि धान के पौधों में पोटरी आ जाता है, दूध भर आता है। पोटरी अर्थात् पुष्ट होना। पुष्ट होने का अर्थ केवल सबल होना नहीं है, बल्कि धान के पौधों का गर्भधारण करना है। अर्थात् धान के पौधों के भीतर बालियों का अपरिपक्व रूप में आना है। इसे ही पोटरी आना कहते हैं। इसीलिए इस त्यौहार को गर्भाही तिहार कहते हैं। गर्भाही तिहार का छत्तीसगढ़ में बड़ा महत्व है। बल्कि इसका सुन्दर मानवीयकरण का पक्ष है।

पोला के दिन कृषक अपने खेतों में चीला चढ़ाता है। चीला चढ़ाने का भी एक विधान है। इसे हम लोक रूप में पूजा विधान की तरह देख सकते हैं। कृषक घर पर गेंहूँ का मीठा चीला बनवाता है और एक थाली में रोली, चंदन, दीप, नारियल, अगरबत्ती आदि पूजा का समान रखकर खेत में जाता है और खेत के भीतर एक किनारे में पूजा विधान कर घर से लाये हुए चीला को वहीं आदर पूर्वक मिट्टी में दबा देता है। और अभ्यर्थना करता है कि उसकी फसल अच्छी हो। किसी तरह रोग-दोष ना आये। इसका अंतर्भाव यह भी हो सकता है। पुष्ट देह होगी तभी तो फसल भी पुष्ट होगी।

गर्भाही तिहार का भाव और प्रक्रिया ठीक उसी तरह की है, जब बेटियाँ गर्भधारण करतीं हैं, तब मायके से ‘सधौरी’ ले जाने की परंपरा है। सधौरी माने विविध प्रकार के पकवान। कहने का अभिप्राय यह है कि गर्भावस्था में कुछ खाने की अधिक इच्छा होती है, उसी साध को पूरा करने के लिए मातृ पक्ष से यह आयोजन किया जाता है। ठीक उसी प्रकार कृषकों के खेतों में धान के पौधे में पोटरी आने लगता है, तब उसे बेटी सदृश्य मानकर चीला चढ़ाते हैं, यह कृषि परंपरा का एक मानवीय स्वरूप और उदार भाव है।

यह त्यौहार बच्चों के लिए भी बहुत महत्व रखता है। इस दिन को हम कृषि पर्व के रूप में तो मनाते ही हैं। पर मुझे इसमें शैव परंपरा का भी भाव दिखता है। इस दिन बैलों की पूजा के साथ-साथ मिट्टी के बैलों की पूजा और पोरा-जांता की भी पूजा की जाती है। पूजा के पश्चात मिट्टी के बैलों को लड़के और पोरा-जांता लड़कियाँ खेलती हैं।

इस मिट्टी के बैल को भगवान शिव के सवारी नंदी मान कर पूजा किया जाता है। वहीं पोरा-जांता को शिव का स्वरूप मानकर पूजा जाता है। बच्चे इस दिन गेंड़ी जुलुस भी निकालते हैं। यह गेंड़ी चढ़ने का अंतिम दिन होता है। पोला के दूसरे दिन गेंड़ी को विसर्जित कर देते हैं। इस तरह हम इस पर्व में अनेक तत्वों का समावेश पाते हैं।

तीजा भादो में ही स्त्रियों का अत्यंत महत्वपूर्ण हस्तालिका व्रत भी होता है। इस दिन सुहागिनें पति के लिए मंगलकामनाएं कर निर्जला व्रतरखती हैं। दूसरे दिन मायके में व्रत का पारायण होता है नई साड़ी और श्रृंगार सामग्री भेंट की जाती है। तीज उपवास की पूर्व रात्रि “करू-भात” का रिवाज है। महिलाएं मायके में इस प्रथा को निभाती हैं। भोजन में करेले का विशेष महत्व होता है। भाई बहन के ससुराल जाकर उसे मायके में लिवा लाता है। यदि ऐसा संभव न हो तो तीज के दूसरे दिन बहन के लिए मायके से साड़ी, श्रृंगार सामग्री और खुरमी-ठेठरी अवश्य भेजी जाती है।

गणेश चतुर्थी भादो माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश जी की प्रतिमा स्थापित कर दस दिनों तक उत्सवपूर्वक उनकी आराधना होती है। ककड़ी और मोदक का भोग विशेष रूप से अर्पित किया जाता है। रायपुर का गणेशोत्सव प्रसिद्ध है। मनमोहक स्थल सजावट और विशालकाय प्रतिमाएं मुग्ध कर देती हैं। आखिरी के तीन-चार रातें तो मेंले जैसा वातावरण निर्मित करती हैं। पहले अनेक किस्म के सांस्कृतिक और मनोरंजक कार्यक्रम भी हुआ करते थे। सन् 1893 में एक यात्री साधुचरण भारत भ्रमण करते रायपुर पहुंचा था। उसने अपनी यात्रा-वृतांत, भारत भ्रमण के चौथे खंड में उल्लेख किया है कि राजातालाब में गणेश प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है तात्पर्य यह कि रायपुर में सार्वजनिक गणेशत्सव की परंपरा प्राचीन है अनंत चौदस को गणपति विसर्जन होता है। बड़ी गणपति प्रतिमाओं का विसर्जन एक दिन के बाद किया जाता है। राजनांदगांव की विसर्जन झांकियां रायपुर आती हैं जो दर्शनीय होती है।

नेवरात अश्विन शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा यानी प्रथम तिथि से शारदीय नवरात्रि प्रारंभ होती है। इसे क्वांर नवरात्रि भी कहते हैं। अश्विन माह को आंचलिक भाषा में कुआंर या क्वांर कहा जाता है। मंदिरों और घरों में अखंड ज्योति प्रज्ज्वलित कर जवांरा बोया जाता है

दसरहा (दशहरा) -अश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी दशहरा या विजयदशमी का पर्व होता है। संध्या रावणभाठा में रावण वध होता है। रावण वध के पश्चात् घरों में पुरूष सदस्यों की आरती उतारी जाती है तथा दही-चावल का तिलक किया जाता है। सोनपत्ती (शमी-पत्र) का अदान-प्रदान कर शुभकामनाएं व्यक्त की जाती है। दिन-भर पतंगबाजी होती है। रायपुर के रावणभाठा डब्ल्यूआरएस कालोनी और चौबे कालोनी का दशहरा उत्सव आकर्षक का केंद्र होते हैं।

धनतेरस कार्तिक माह की तेरहवीं तिथि अर्थात् तेरस को धनतेरस का पर्व मनाया जाता है। मिट्टी के तेरह दीपक घर के मुख्य द्वार के सामने लगाए जाते हैं। चावल या गेहूं के आटे से चौक पूरने के परंपरा है। इस पर्व को धनवंतरि जयंती के रूप में भी मनाई जाती है। धनतेरस के दिन से दीपावली का पर्व भी प्रारंभ हो जाता है। अगले दिन यम चौदस या नरक चौदस का पर्व होता है। घर के बाहर दीप जलाए जाते हैं।

देवारी (दीपावली) अत्यंत हर्षोल्लास के साथ दीपावली का त्योहार मनाया जाता है। अनेक किस्म के पकवान बनाए जाते हैं। छत्तीसगढ़ में अनरसा और पीडिया विशेष रूप से बनाया जाता है।

बस्तर में देवारी को दियारी त्यौहार के रुप में मनाया जाता है। दियारी तिहार बस्तर अंचल का प्रसिद्ध तिहार है। जिस तरह हम दिवाली के बाद गोवर्धन पूजा करते हैं उसी तरह बस्तर अंचल में पूष एवं माघ के महीने में कृषि कार्य से निवृत्त होने पर स्थानीय निवासी प्रत्यके ग्राम समूह में दियारी तिहार का उत्सव मनाते हैं। प्रत्येक गाँव में तिहार मनाने का दिन निश्चित होता है और निश्चित दिन ही मनाया जाता है।

इस तिहार में ग्राम वासी अपने निकट संबंधियों एवं मित्रों को निमंत्रित करते हैं और सबकी उपस्थिति में उल्लासपूर्ण ढंग से पूजा पाठ कर दियारी उत्सव को मनाया जाता है। जिस दिन तिहार मनाना निश्चित होता है उसकी पूर्व रात्रि को चरवाहा (यहाँ पशु चराने का कार्य (गांदा) गाड़ा जाति करती है) ग्राम के प्रत्येक घर में जाकर पशुओं को “जेठा” (सोहाई) बांधता है। जेठा बांधने आए हुए चरवाहे का सम्मान द्वार पर आरती उतार कर किया जाता है।

इसके पश्चात अगले दिन सभी पशुओं को नहला कर पूजा की जाती है तथा विभिन्न तरह की सब्जियों एवं अनाज से तैयार खिचड़ी खिलाई जाती है। तत्पश्चात इस खिचड़ी को तिहार के प्रसाद के रुप में गृह स्वामी एवं परिजन ग्रहण करते हैं। चावल के आटे से घर की दुआरी में पद चिन्ह बनाए जाते हैं। जो लक्ष्मी के आगमन का सूचक होता है। इसके बाद गोवर्धन भाटा में गांव का बुजुर्ग एक बैल पर सिंगोठा (सिंगबांधा) बांध कर दौड़ाता है  जिसे चरवाहे को पकड़ना होता है। अगर चरवाहा बैल  को पकड़ लेता है तो उसे पुरस्कार दिया जाता है यदि चरवाहा बैल को नहीं पकड़ पाता तो उसे दंड दिया जाता है। मैदान में एक स्थान पर चरवाहे की पत्नी दीया जलाकर बैठती है, यहां पर ग्राम वासी उसे दक्षिणा स्वरुप अन्न-धन देते हैं।

गोवर्धन पूजा लक्ष्मी पूजा के दूसरे दिन गोवर्धन पूजा का पर्व मनाया जाता है। ग्राम के सभी लोग एक स्थान पर अपने पशुओं के साथ एकत्र होते हैं। उस स्थान को दैहान कहते हैं। वहां गोबर का प्रतीकात्मक पहाड़ बनाते हैं। इस आकृति को पशुओं के खुर से रौंदने की प्रथा है। यह पर्व पशुधन की समृद्धि की कामना का है। रायपुर के दूधाधारी मठ में गोवर्धन पूजा अन्नकूट के रूप में मनाई जाती है। मंदिरों में छप्पन किस्म के व्यंजनों का भोग लगाया जाता है। इस पर्व के प्रति यादवों का उत्साह देखते ही बनता है।

मातर मातर गोवर्धन पूजा के दूसरे दिन मनाया जाता है। यादव समुदाय एक स्थान पर एकत्र होते हैं, जहां कुलदेवी, देवता की पूजा की जाती है। खीर का विशेष महत्व है। यादव पुरूष खास किस्म के वस्त्र धारण करते हैं। लाठी, ढाल आदि धारण किए यादव वीर वेश में सेनानी प्रतीत होते है। पशुओं की पूजा कर सोहई बांधने का क्रम शुरू होता है। मातर की संध्या से राउत-नाचा भी प्रारंभ होता है जो देव उठनी एकादशी तक चलता है।

भाई दुईज पांच दिवसीय दिवाली का समापन भाई दूज से होता है। इसे यम द्वितीया के नाम से भी जाना जाता है। यह भाई एवं बहन के स्नेह का प्रतीक है। बहन, परिवार का महत्वपूर्ण अंग है, जिसके विवाह के पश्चात भी परिवार भूलता नहीं है तथा विशेष पर्वों पर उसके मान-दान का विशेष ध्यान रखा जाता है।

भाई दूज के दिन बहनें अपने भाई को तिलक लगाती हैं और उनकी लंबी उम्र की कामना करती हैं। इस त्योहार से भाई-बहन का संबध सुदृढ़ होता है। जहां बहन अपने भाई की लंबी उम्र की कामना करती है वहीं, भाई अपनी बहन के मान सम्‍मान की रक्षा करने का वचन देता है।

भाई दूज के साथ ही दिवाली का त्यौहार या पर्व सम्पन्न हो जाता है। इस दिन गणेश जी, यम, चित्रगुप्त और यमदूतों की पूजा की जाती है। कई घरों में कलम-दवात की पूजा भी की जाती है। इस दिन घर की बड़ी-बुजुर्ग महिलाओं से पारंपरिक कथाएं भी सुनी जाती हैं।

भाई दूज (भ्रातृ द्वितीया) का उत्सव एक स्वतंत्र उत्सव है, किंतु यह दिवाली के तीन दिनों में संभवतः इसीलिए मिला लिया गया कि इसमें बड़ी प्रसन्नता एवं आह्लाद का अवसर मिलता है जो दीवाली की घड़ियों को बढ़ा देता है।

भाई दरिद्र हो सकता है, बहन अपने पति के घर में संपत्ति वाली हो सकती है, वर्षों से भेंट नहीं हो सकी है । इस दिन भाई-बहन एक-दूसरे से मिलते हैं, बचपन के सुख-दुख की याद करते हैं। इसलिए हमारे जीवन में भाई दूज महत्वपूर्ण स्थान है।

जेठउनी कार्तिक माह की ग्यारहवीं तिथि के दिन देव उठनी एकादशी, जेठउनी या तुलसी विवाह का पर्व मनाया जाता है। छत्तीसगढ़ के लोकजीवन में भी तुलसी व्यापक रूप से समाहित है। छत्तीसगढ़ के प्राय: हर घर में तुलसी चौरा मिलता है। जहां नित्य दीपक जलाया जाता है। मरणासन्न व्यक्ति को गंगाजल के साथ तुलसीदल खिलाया जाता है। छत्तीसगढ़ में मितान बदने की परंपरा में तुलसीदल भी बदा जाता है। जब दो मितान तुलसी दल के बंधन में बंध जाते हैं तो परस्पर भेंट के समय सीताराम तुलसीदल कहकर एक दूसरे का अभिवादन करते हैं।

देवउठनी के दिन छत्तीसगढ़ में भी तुलसी और शालिग्राम पूजा की जाती है। तुलसी माता को वस्त्र और श्रृंगार सामग्री अर्पित की जाती है। चने की भाजी, तिवरा भाजी,अमरूद, कंदमूल और अन्य मौसमी फल सब्जी का भोग लगाया जाता है। गन्ना का इस दिन विशेष रूप से प्रयोग किया जाता है।

गांवों में पशुधन को सोहाई बांधा जाता है। ग्राम्य देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। अहीर समुदाय की स्त्रियां किसानों के घर-घर जाकर तुलसी चौरा और धान की कोठी पर पारंपरिक चित्र बनाया करती है। जिसे हाथा देना कहते हैं। जब ग्वाले सोहाई बांधने के लिए आते हैं तब उसी हाथे पर गोबर को अपने मालिक(किसान) की मंगल कामना करते हुए असीस(आशीर्वाद) देकर थाप देते हैं।

उसके बाद इन ग्वालों को किसानों द्वारा सूपा में अन्न, द्रव्य और वस्त्रादि भेंट किया जाता है। इसको सुख धना कहा जाता है। प्राय: जेठौनी के दिन से ही अहीर समुदाय के लोग रंग बिरंगी वेशभूषा में राउत नृत्य करते हुए बाजे-गाजे के साथ मालिक जोहारने (भेंट) की शुरुआत करते हैं जो कार्तिक पूर्णिमा तक चलता है। कुछ क्षेत्रों में भिन्नता भी हो सकती है। जेठौनी तक किसानों के घर में धान की नई फसल आ जाती है इसलिए वे भी गदगद रहते हैं।

जेठौनी के दिन बांस के बने पुराने टुकना चरिहा को जलाकर आग तापते हैं। माना जाता है कि पुराना टुकना जलाने से घर की सभी परेशानियों का अंत होता है और समृद्धि आती है। देवउठनी एकादशी के बाद सभी प्रकार के मांगलिक कार्यों की शुरुआत हो जाती है। विवाह योग्य लड़के लड़कियों के लिए जीवनसाथी तलाश करने का कार्य प्रारंभ हो जाता है, जो पहले पूरे माघ महीने भर तक चला करती थी और फागुन में विवाह होता था।

देवउठनी एकादशी के दिन भगवान चौमासा के बाद जागते हैं, देव के जागने के पश्चात इसी दिन से हिन्दूओं में मांगलिक कार्य प्रारंभ होते हैं। ऐसा माना‌ जाता है और प्रकृति में उमंग उत्साह का संचार होने लगता है जो स्थान-स्थान पर आयोजित होने वाले मेले मड़ाई में दिखाई देता है।

इस तरह छत्तीसगढ़ का चौमासा त्यौहारों की उमंग से ओतप्रोत होता है। इन चार महीनों में बहुत सारे त्यौहार मनाए जाते हैं, जिसका सीधा संबंध लोक एवं पौराणिक मान्यताओं से है। इन चार महीनों का कोई भी पखवाड़ा ऐसा नहीं है कि जिसमें कोई न कोई त्यौहार मनाया जाता न हो। यही त्यौहार सामाजिक समरसता को स्थापित कर लोक को एक सूत्र में बांधे रहते हैं।

आलेख

ललित शर्मा इण्डोलॉजिस्ट रायपुर, छत्तीसगढ़

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4 comments

  1. मनीराम साहू

    छत्तीसगढ़ के तिहार बार, लोक संस्कृति, परंपरा ला बतावत बहुतेच सुग्घर आलेख।

  2. चोवा राम 'बादल'

    अनुपम संग्रहणीय आलेख।

  3. मनोज कुमार पाठक

    बेहतरीन आलेख.. 🙏

  4. छत्तीसगढ़ के चौमासे में होने वाले तीज त्यौहार की अद्भुत जानकारी। संग्रहणीय शोधालेख के लिए बहुत बहुत बधाई एवं धन्यवाद।

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