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छत्तीसगढ़ का सांस्कृतिक वैभव : बांसगीत

छत्तीसगढ़ में निवासरत राउत जाति जोकि अपने को यदुवंशी मानते हैं तथा भगवान श्रीकृष्ण को अपना पूर्वज मानकर उनकी पूजा करते हैं साथ ही उनकी बाँसुरी के प्रति अटूट श्रद्धा रखते हैं। इनके प्रिय गीत बाँस गीत के गायन के साथ एक लगभग दो हाथ लम्बी मोटे बाँस की बनाई हुई बाँसुरी होती है जिसे ‘बाँस’ कहा जाता है, जिसे बजाने पर विशेष प्रकार की ‘भों-भों’ की आवाज उत्पन्न होती है तथा इसे बाँस गीत के साथ बजाया जाता है।

बाँस गीत विभिन्न रसों एवं भावों से भरा होता है। मान्यता है कि महाभारत काल से ही इसे गाने और बजाने की परंपरा अनवरत चली आ रही है। कहा जाता है कि गोवर्धन पर्वत को अपनी अंगुलियों में धारण करने के समय भगवान श्री कृष्ण ने यह वा़द्य राउत जाति को दिया था। इसका प्रयोग प्रायः गाय चराते समय एवं अपने पारंपरिक पर्वों में राउत जाति द्वारा किया जाता है।

श्री पंजूराम जी के अनुसार – बाँस गीत में एक गायक होता है जिसे ‘बँसकहार’ कहा जाता है तथा उसका साथ देने वाले एक-दो बाँस बजाने वाले होते हैं साथ ही दो अतिरिक्त व्यक्ति गायक का साथ देने के लिये होते है। जिन्हें ‘रागी’ और ‘टेही’ कहा जाता है। बाँस के निर्माण के लिये मालिन प्रजाति के बाँस को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है क्योंकि इसमें स्वर भंग की स्थिति नहीं आती।

बँसकहार बाँस का मर्मज्ञ होता है वह जंगल से बाँस को छांटकर लाता है जो न तो ज्यादा मोटा हो न पतला हो और आगे की ओर थोड़ा सा मुड़ा हुआ भी हो इसे ठेगड़ी बाँस कहा जाता है, जो बाँस काटकर लाया जाता है वह अंदर से पोला होता है और गाँठयुक्त होता है। इस बाँस में गर्म लोहे के सरिये से छेद किया जाता है जिससे कि स्वर आसानी से निकल सके इससे कुछ दूरी पर एक छेद किया जाता है जिसे ब्रम्हरंध्र कहा जाता है इसमें मोम लगाकर दो भागों में विभक्त किया जाता है तथा तालपत्र से आधा आच्छादित किया जाता है ताकि विशेष स्वर निकल सके।

बाँस के मध्य स्थल में बाँसुरी के समान चार छेद किये जाते हैं जिन्हें धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का प्रतीक माना जाता है। बाँस को बजाते समय इन्हीं सुराखों पर अंगुलियाँ चलाकर विभिन्न प्रकार की ध्वनियाँ निकाली जाती है। बाँस गीत में मुख्य रुप से चार लोगों की भूमिका होती है प्रथम बाँस को बजाने वाला बँसकहार, दूसरा गायक, तीसरा रागी जो गायक का साथ देता है तथा चौथा टेहीकार जो गीत की समाप्ति पर ‘राम-राम जी’ ‘जय हो’ का उदघोष करता है यह लोकोक्ति, मुहावरों और दोहों को पिरोकर श्रोताओं को मुग्ध कर देता है।

बाँस गीत में छत्तीसगढ़ के जनजीवन से संबंधित गीत, यादव वीरों की गाथा, रामायण और कबीर के दोहे तथा आध्यात्मिक गीतों का समावेश होता है। इन गीतों में लोकभाषा में गूढ़ रहस्यों का भी प्रतिपादन किया जाता है। यह मात्र लोकगीत ही नहीं वरन् छत्तीसगढ़ की सरल, सहज और सादगी पूर्ण संस्कृति और संस्कार का भी द्योतक है।

बाँस गीत का प्रारंभ सर्वप्रथम बाँस वादक द्वारा बाँस को बजाकर किया जाता है जब एक वादक रुकता है तो वहीं से दूसरा वादक बजाना प्रारंभ करता है उसके पश्चात् गायक द्वारा लोक कथाओं पर आधारित गीत प्रस्तुत किया जाता है, यहाँ पर गायक का साथ ‘रागी’ देता है तथा ‘टेही’ इनको प्रोत्साहित करता है। बाँस गीत गायन का प्रारंभ किसी देवी-देवता की वंदना या प्रार्थना से होता है। उसके पश्चात् विभिन्न लोककथाओं को गीत के रुप में प्रस्तुत किया जाता है।

वंदना या प्रार्थना गीत –

सारद सारद मैं रटेंव सारदी माता,
उतर सारदी माता महियर ले।
बैंठव माझा दरबार।। टेक।

बइठे ल देवं तोह कारी कमरिया,
माड़ी ले धोई देतें व गोड़।
गोड़े धोंवत चरनामृत लेतेंव,
अउ डंडा सरन टेकोंव पांव हो।।

भावार्थ- माँ शारदा की आराधना मैं कर रहा हूँ। हे माँ! तू मैहर के मंदिर से उतर कर मेरी कुटिया में आ। मैं बीच दरबार में बैठकर तेरी स्तुति कर रहा हॅूँ, तू ही मेरी लाज रख। मेरी कामना है कि जब तू आयेगी, तब अपनी अमूल्य कारी कामरी तेरे लिए बिछा दूंगा और उसमें तुझे बिठाकर तेरे दोनों पावों को पखार कर चरणामृत लूंगा तथा साश्टांग प्रणाम करुंगा। अतः हे शारदा माँ! तुम एक बार मेरे ऊपर कृपा अवश्य करो। मेरी पुकार अवश्य सुनो। इसी प्रकार –

सुमरनी

अंठे मा बइठै गुरु कंठा न तो, जिभिया मा गौरी गणेश।
ज्यों-ज्यों अक्षर भूल बिसरौ माता, भूले अक्षर देवे समझाय।।

इसे सुमरनी कहते हैं इसके पश्चात् गायक दोहों के माध्यम से अपने कुल गौरव का भी बखान करते हैं जैसे-

कऊने दियना तोरे दिन मा बरे, कऊने दियना बरे रात।
कऊने दियना घर अंगना मा बरे, कऊने दिया दरबार हो।
सुरुज दियना तोरे दिन मा बरे, चंदा दियना बरे रात।
सैना दियना घर अंगना मा बरे, भाई दियना दरबार हो।।
जोहार जाथे जोहार जाथे, सरसती माता के जोहार जाथे हो।
मोरे ढंइया-भुंइया के गोहार जाथे हो, मोरे ठाकुर देवता के जोहार जाथे हो।।

भावार्थ- मैं आज सब देवताओं का वंदन करता हॅूँ। माँ सरस्वती, स्थान देवता एवं ठाकुर देवता सभी को प्रणाम करता हूँ।

काबर अवतरिन मोर गौरी गनपति, काबर अवतरिन हनुमान हो।
पूजा करे बर अवतरिन गौर गनपति, लंका ढहे बर हनुमान हो।
काबर अवतरिन कौसल्या के लछिमन राम, काबर अवतरिन किसन भगवान हो।
रावन बधे बर अवतरिन लछिमन राम, कंस बधे बर किसन भगवान हो।
रावन ला बध के रमायन बनाइन, कंस ला बध के पुरान हो।
नाभी कमल ले मोर ब्रम्हाजी उपजय, बाचथें वेद पुरान हो।।

भावार्थ- गौरी और गणपति का अवतार पूजा हेतु तथा हनुमान का जन्म लंका ढहाने के लिए हुआ है। उसी प्रकार राम और लक्ष्मण को जन्म रावण के नाश हेतु तथा कृश्ण का जन्म कंस के वध के लिये हुआ है। राम ने रावण का वध करके रामायण की रचना की, उसी प्रकार कृश्ण ने कंस वध के पश्चात् पुराना बनाया, जिसे विश्णु के नाभि कमल से उत्पन्न होने वाले ब्रह्माजी पढ़ते हैं। 

इस गीत में गायक पहले वंदना करते हैं फिर अपने गौ मालिक की प्रशंसा तथा सम्मान करते है –

पहिली धरती अउ पिरथी,
दूसर बंदव अहिरान।

तीसर बंदव गाय भंइस ल, काटव चोला के अपराध।
चौथे बंदव नोई कसैली, राउत के करै प्रतिपाल।
पंचवे बंदव अहिर पिलोना, जन्मे हे गोपी गुवाल।
पान खाय सुपारी खाय, सुपारी के दुई फोरा।
रंग महल म बइठो मालिक, राम-राम लौ मोरा।
गाय-बइलर के सींग म देखेव माटी,
ठाकुर पहिरे सोना-चांदी, ठकुराइन पहिने छांटी।

इसके पश्चात् वे अपने गौ मालिक की प्रशंसा करते हुए उससे उपहार स्वरुप चांवल, रुपया आदि ग्रहण करते है और उन्हें आशीष देते हुए कहते हैं –

जइसे लिये दिये मालिक, तइसने देहौं असीस हो।
अन-धन तोर घर भरे रहै, जीवौ लाख बरीस हो।

इसी प्रकार लोकगीतों में रामायण के प्रसंगों को भी रोचक ढंग से प्रस्तुत किया जाता है जैसे सीता हरण का प्रसंग – जिसमें जटायु जी सीता जी से पूछते हैं –

काखर हो तुम धिया पतोहिया, काखर हौ भौजाई।
काखर हौ तुम प्रेम सुन्दरी, कऊन हरण लेई जाई।।
दसरथ के मैं धिया पतोहिया, लछमन के भौजाई।
रामचन्द्र के प्रेम सुन्दरी, रावण हर ले जाई।।

गीत का पद समाप्त होने पर टेहीकार कहता है – रामजी-रामजी सत्य हे और हास्य उत्पन्न करने के लिए स्वरचित आशु कविता उदृधत करता है –

इहां ले गयेन कुण्डा, सब लइका होवत रहंय मुण्डा।
इहां ले गयेन दाबो, सब टुरी कहंय तुंहरे घर जाबो हो।।

साधारण लोकगीतों के माध्यम से गूढ़ रहस्यों का प्रतिपादन भी गायकों की अपनी विशिष्टता होती है-

केंवट घर के बेंवट लइका, घन के गांथय जाल।
दहरा के मछरी थर-थर कांपय, चिंगरा टोरय जाल।।

भावार्थ – परब्रह्म रुपी केंवट के बच्चे अंशावतारी देवों के द्वारा मायारुपी घना जाल बुना जाता है जिसके देखकर गहरे मोह रुपी संसार में रहने वाला जीव भय से कांपता है लेकिन ज्ञानरुपी आरा का आलंबन करने वाला ज्ञानी इस माया रुपी जाल से सहज ही मुक्त हो जाता है। इसी तरह ढोला-मारु, यादव वीर, लाला छऊरा आदि की कथाओं को भी बाँसगीत के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।

वर्तमान में बाँस गीत की परंपरा विलुप्त होती जा रही है, बाँस गीत के गायक श्री पंजूराम जी से मुलाकात में उन्होंने बताया कि- मैंने यह कला विरासत में अपने पिता स्वर्गीय श्री जुठेल जी से पायी तथा उनके द्वारा प्रदान किये गए बाँस का वादन मैं आज भी कर रहा हूँ हमारी कला ही हमारी पहचान और रोजीरोटी का माध्यम है, बाँस गीत में मेरा साथ मेरे भाई श्री लछन जी भी देते थे किंतु उनका स्वास्थ्य अब ठीक नहीं है। मैं अभी अपने बेटे राजा को इसकी शिक्षा दे रहा हूँ ताकि आगे चलकर वह भी हमारी इस परंपरा को कायम रख सके।

आज छत्तीसगढ़ के कुछ ही स्थानों पर बाँस गीत के गायक बचे हुए है वहीं नई पीढ़ी भी इस परंपरा को आगे बढ़ाने में उत्सुक नहीं दिखती है। कुछ गायकों को तो स्थान-स्थान में भटककर बाँस गीत का प्रदर्शन कर अपनी रोजी-रोटी कमानी पड़ रही है। आधुनिक गीत-संगीत ने भी इस परंपरा को अतिशय हानि पहुँचायी है। आज आवश्यकता है कि हम अपनी इस विशेश सांस्कृतिक परंपरा को अक्षुण्ण बनाए रखने में सहभागी बनें। 

संदर्भ  – म.प्र. शासन द्वारा प्रथम ईसुरी पुरस्कार से सम्मानित लोक साहित्यकार पं. अमृतलाल दुबे जी  की दुर्लभ कृति ‘तुलसी के बिरवा जगाय’ (1963)।

 – विडियो लोक गीतकार एवं कवि श्री राजेश चौहान,           रायपुर।  

 – विडियो श्री पंजूराम बाँस गीत गायक, ग्राम- अचानकपुर (नयापारा), चकरभाठा, बिलासपुर।

 – छत्तीसगढ़ का अनूठा लोकगीत बाँसगीत, श्री तेरस यादव (रउताही2014)।

आलेख

डॉ. विवेक तिवारी,
बिलासपुर (छत्तीसगढ़) 9200340414

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2 comments

  1. विवेक तिवारी

    धन्यवाद भईया सादर पैलगी🙏🙏

  2. मनोज कुमार पाठक

    बहुत बढ़िया .. ✒️👌