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ऐसी चित्रकारी जहाँ देह बन जाती है कैनवास

भारत विभिन्नताओं का देश है, यहाँ आदिम जातियाँ, आदिम संस्कृति से लेकर आधुनिक संस्कृति भी दिखाई देती है। यहाँ उत्तर से लेकर दक्षिण तक एक ही कालखंड में विभिन्न मौसम मिल जाएंगे तो विभिन्न प्रकार के खान पान के साथ विभिन्न बोली भाषाओं भी सुनने मिलती हैं, इतनी विभिन्नताएं होते हुए भी हमारी संस्कृति पूरे भारत को जोड़े हुए है।

जनजातियों में गोदना प्रथा आदिकाल से ही प्रचलित है, देह को कैनवास बनाकर कजरी के माध्यम से देह पर परम्परागत चित्रण करने को गोदना कहा जाता है। हम छत्तीसगढ़ के कवर्धा जिले में निवासरत बैगा जनजाति की गोदना प्रथा के विषय में चर्चा कर रहे हैं। इस आधुनिकता के युग में भी वनवासी बंधु स्व में रत रहकर अपनी प्राचीन संस्कृति को संरक्षित कर बचाने का प्रयास कर रहे हैं।

भारत सरकार ने मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ की बैगा जनजाति को विशेष पिछड़ी जनजाति समूह में रखा है। विशेष पिछड़ी जनजाति होने के कारण बैगा जनजाति को सरकार का सरक्षण प्राप्त है जिसके फलस्वरूप इस जनजाति के लिए अनेक शासकीय योजनाये चलाई जा रही है।

खान-पान एवं देवता

बैगा जनजाति जितनी प्राचीन जनजाति है उतनी ही प्राचीन बैगाओं की संस्कृति भी है। बैगा जनजाति अपने संस्कृति को संजोये हुए है। इनका रहन-सहन, खान-पान अत्यंत सादा होता है। बैगा जनजाति के लोग वृक्ष की पूजा करते है तथा बूढ़ा देव एवं दूल्हा देव को अपना देवता मानते है।

वस्त्राभूषण

बैगा झाड़-फूक एवं जादू-टोना में विश्वास करते है। इनकी वेश-भूषा अत्यंत अल्प होती है। बैगा पुरुष मुख्य रूप से एक लंगोट तथा सर पे गमछा बांधते है, वहीं बैगा महिलाएं एक साड़ी तथा पोलखा का प्रयोग करती है। किन्तु वर्तमान समय में मैदानी क्षेत्रों में रहने वाले नौजवान युवक शर्ट-पैंट का भी प्रयोग करने लगे है।

बैगा जनजाति की महिलाएं आभूषण प्रिय होती हैं। बैगा महिलाएं आभूषण के साथ-साथ गोदना भी गुदवाती है। इनकी संस्कृति में गोदना का अत्यधिक महत्व है। बैगा महिलाएं शरीर के विभिन्न हिस्से में गोदना गुदवाती हैं। बैगा जनजाति का मुख्य व्यवसाय वनोपज संग्रह, पशुपालन, खेती तथा ओझा का कार्य करना है।

बैगा उत्पत्ति

आधुनिकता के दौर में बैगा जनजाति की संस्कृति में भी आधुनिकता का समावेश हो रहा है। बैगा अब सघन वन, कंदराओं तथा शिकार को छोड़ कर मैदानी क्षेत्रों में रहना तथा कृषि कार्य करना प्रारंभ कर रहे है। किन्तु बैगा अपने आप को जंगल का राजा और प्रथम मानव मानते है, इनका मानना है कि इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा जी के द्वारा हुई है।

बैगाओं के उत्पत्ति के संबंद में अनेक किवदंतियाँ भी विद्यमान है, इन किवदंतियों के माध्यम से ये अपने उत्पत्ति संबंधी अवधारणाओं को संजो कर रखे हुवे है। बैगा अपने आप को आदिम पुरुष कहते है, उनका मानना है की वही पृथ्वी का प्रथम मानव है। बैगाओं का ही जन्म सर्वप्रथम हुआ है, वे ही पृथ्वी मे मानव जाति को लाने वाले है उनका सम्बन्ध प्रथम मानव से है।

देह शृंगार (अलंकरण) – गोदना

बैगा स्त्रियाँ अपने शरीर पर गोदना गोदवाती हैं, जिसमें पैर से लेकर माथे एवं छाती पर भी गोदने होते हैं। कुछ गोदने ये पिता के घर पर गोदवाती हैं और कुछ विवाह होने के पश्चात ससुराल में गोदवाए जाते हैं। परन्तु जितने अधिक गोदने विवाह पूर्व मायके में गोदवाये जाते हैं, उसे शुभ माना जाता है।

सामाजिक मान्यताएं एवं प्रतिबंध

जिस लड़की के शरीर में अधिक गोदना होता है उसे ससुराल में अधिक सम्मान मिलता है , कम गोदने लड़की के मायके की निर्धनता को इंगित करता है। यदि विवाह के पूर्व गुदना गुदवाया जाता है तो कोई प्रतिबंध नही, यदि विवाह के पश्चात गुदवाया है तो उस पर यह बंधन होता है कि वह अपनी जनजाति के अतिरिक्त किसी अन्य जनजाति में भोजन नही कर सकेगी।

पुखड़ा गोदाय – बैगा जनजाति में गोदना संस्कार की तरह है। सोलह साल की उम्र में बैगा स्त्रियां पुखड़ा (पीठ) गुदवाती है। पीठ पर टिपका, सांकल, चकमक, बांह के पीछे – आगे टिपका, मछली कांटा, बेंडा झेला के गुदना गोदे जाते हैं।

जांघ गोदाय– इसमें जांघों के आगे वाले हिस्से में गोदना गुदवाया जाता है। जांघ में गोदना करवाना बैगा स्त्रियों में विवाह से पहले जरूरी माना जाता है। जांघ गोदाय में गोदना करने वाली बदनिन जाति की औरतें पैर के उपर जांघ तक गोदती हैं। जांघ पर लंबे झेला तथा टखने पर कड़ी, कांटा, पोर, झेला तथा घुटने पर भी झेला, बेंडा, दीवा आदि गोदाये जाते हैं।

पोरी गोदाय– इसमें हाथ की कोहनी से लेकर हाथ तक गोदना गुदवाया जाता है। हाथ में बैगा स्त्रियों द्वारा सामान्यत: टिपका, चकमक, मछली कांटा, झेला गोदना गुदवाया जाता है।

पछाड़ी गोदाय – इस तरह के गोदने में जांघों के आगे वाला भाग में गोदना गुदवाया जाता है। पछाड़ी गोदाय पिंडली तथा उसके ऊपर के भाग में होती है। इसमें भी झेला, टिपका, केंकड़ा, मछली कांटा आदि गोदने गुदवाये जाते हैं।

छाती गोदाय – इसी तरह छाती के गोदने को बैगा स्त्रियां छाती गोदाय कहती हैं। छाती गोदाय बैगा स्त्रियां अपने विवाह के बाद अपनी सुविधा के हिसाब से गुदवाती हैं। बैगा स्त्रियां अपनी स्तनों को छोड़कर छाती पर टिपका, फूल आदि के गोदने बनवाती हैं।

निष्कर्ष-

गोदना अमिट परंपरागत संचार के रूप में बैगा समुदाय के लोगों में आजीवन संचरित होता रहता है। बैगा जनजाति की गोदना परंपराएं अमिट परंपरागत संचार के रूप में आज भी प्रासंगिक है लेकिन आधुनिक जनमाध्यमों के प्रभाव एवम् आधुनिकता के अधिकाधिक प्रयोग के चलते बैगा जनजाति में परंपरागत संचार की इस विधा का प्राकृतिक-सहज आकर्षण कम हो गया है।

दरअसल बैगा समुदाय में प्रचलित गोदना परंपराएं परंपरागत संचार की अमूल्य सांस्कृतिक विरासत हैं। बैगाओं के संस्कारों के साथ ही यह परम्परा बैगा समुदाय की सांस्कृतिक अस्मिता से भी जुड़ी हुई हैं। यही कारण है कि बैगा समुदाय के परंपरागत संचार की गोदना परंपरा को सहेजना सही मायनों में बैगा समुदाय के संस्कारों तथा सांस्कृतिक अस्मिता को सहेजने जैसा ही है।

आलेख एवं चित्र

गौरव निहलानी, रायपुर
लेखक हाथी विशेषज्ञ के रुप में जाने जाते हैं।

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One comment

  1. बैगाओं पर शानदार लेख। जनतातियों खासकर बैगा पर आपके सचित्र पुस्तक का इंतजार है। आशा है वर्षांत तक बहुप्रतिक्षित किताब हमारे हाथों में होगी। बहुत बधाई एवं अनंत शुभकामनाएं।

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