Home / संस्कृति / लोक संस्कृति / ग्रामीण संस्कृति का अविभाज्य अंग वनवृक्ष साल
साल वृक्ष अचानकमार छत्तीसगढ़ (फ़ोटो-ललित शर्मा)

ग्रामीण संस्कृति का अविभाज्य अंग वनवृक्ष साल

वृक्ष हमारी संस्कृति एवं जीवन का अभिन्न अंग है, इनके बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। जब हम लद्धाख के वृक्ष विहीन पर्वतों एवं भूमि को देखते हैं तो लगता है किसी दूसरे ग्रह पर पहुंच गए, जहां जीवन नहीं है। इन वृक्षों में जीवन का सार है, एक वृक्ष अपने जीवन में लाखों जीव का संरक्षण एवं संवर्धन करता है। मैं चर्चा कर रहा हूं साल वृक्ष की, जो छत्तीसगढ़ में बहुतायत में पाया जाता है।

साल वृक्ष (sal tree) बस्तर, फ़ोटो – ललित शर्मा

छत्तीसगढ़ की सरई (साल) की इमारती लकड़ी के रुप में गुणवत्ता विश्व प्रसिद्ध है। कभी सारा भू-भाग सरई से आच्छादित था। रेल लाईन बिछाने के लिए अंग्रेज शासकों एवं तत्कालीन सरकारों ने अंधाधुंध दोहन किया। मैं सिर्फ़ साल वृक्ष का उपयोग जंगल में रात रुकने के बाद अगली सुबह दंत धावन के लिए करता हूँ। मुझे इसकी दातौन मुझे बहुत पसंद है, सीधी एवं लम्बी शाखा को दांतों से चबाते ही न टूटने वाली उम्दा ब्रश बन जाती है और दांत आसानी से साफ़ हो जाते हैं।

कभी गर्मी के दिनों में साल वृक्ष की छाया में लेटकर ऊपर से गिरते हुए साल के बीज देखना बहुत ही मनोरंजक अनुभव होता है। शाख से टूट कर बीज इस तरह शनै शनै मंद गति से धरा पर आते हैं, जैसे स्वर्ग की कोई अप्सरा धरा पर उतर रही हो मंथर गति से कि धरती पर पैर रखते ही कहीं घास का कोई तृण उसके पंजो से आहत न हो जाए। क्या गजब का दृश्य होता है, प्रकृति ने बीज के धरती पर अवतरण के लिए पंख लगा दिए है, जो हेलीकाप्टर का अहसास कराते हैं।

आसमान से होड़ लेते पचास, पचहत्तर फ़ुट ऊंचे वृक्षों को देखकर लगता है कि ये आसमान को भेद कर और भी ऊपर निकल जाएंगे और व्योम तक पहुंच जाएंगे। इसके शिखर पर बैठकर पक्षी पथिक को आमंत्रित करते हैं। जब उनकी आवाज सुनकर पक्षियों को ढूंढ़ता हूँ तो शीश भूमि पर गिरने को हो जाता है, पर दिखाई नहीं देते। जब इनसे गोंद स्रवित होता है, तो उस महक का कहना ही क्या है।

सालभंजिका, अप्सरा, मंदिर स्थापत्य, फ़ोटो – ललित शर्मा

बौद्ध धर्म में भी यह वृक्ष पूजनीय है क्योंकि भगवान बुद्ध ने दो साल के वृक्षों के तीर लेट कर निर्वाण प्राप्त किया था तो उनको जन्म भी माया ने साल वृक्ष नीचे ही दिया था । मैं इन्हें महानिर्वाणी वृक्ष भी कहता हूँ। हिन्दु धर्म में इसकी मान्यता है यह भगवान विष्णु को प्रिय है, इसे विष्णुप्रिया भी कहा जाता है तथा स्वर्ग की अप्सरा सालभंजिगा तो जग प्रसिद्ध है, प्रत्येक मंदिरों की भित्ति में इसने साल के साथ स्थान पाया है।

साल वनवासी कभी भी वन में पानी लेकर नहीं जाते। ऐसे तो जंगल में नदी नाले एवं ढ़ोड़ी का पानी मिल जाता है पीने के लिए, परन्तु गर्मी में वह भी सूख जाता है तब साल वृक्ष मांगने पर अपना जल दे देते हैं पथिक को प्यास बुझाने के लिए। इसकी एक टहनी काट कर उसके मुंह पर पत्ते का दोना बांधने पर कुछ देर में वह भर जाता है और शुद्ध खनिज एवं आयुर्वैदिक जल पीने के लिए प्राप्त हो जाता है, थोड़ा कसैला होता है परन्तु प्राण रक्षा के लिए काफ़ी होता है।

साल वृक्ष आजीविका का भी साधन है, इससे सालबीज और रेजिन जैसा गोंद प्राप्त होता है, जिसकी बाजार में अच्छी कीमत मिल जाती है। साल वृक्ष की उम्र के विषय में कहावत है कि सौ बरस खड़ा, सौ बरस पड़ा और सौ बरस जड़ा। कम से कम तीन सौ बरस तो इसकी उम्र मानकर चलना चाहिए। वैसे इसकी अधिकतम आयु दो हजार बरस मानी गई है।

छत्तीसगढ़ के कोरबा अंचल के सतरेंगा ग्राम के वृक्ष की उम्र चौदह सौ बरस आंकी गई है तथा मातमार में भी हजार बरस पुराना वृक्ष है। इस वृक्ष की ग्रामीण पूजा करते हैं अपना पुरखा मानकर। यह आज भी हरा भरा है तथा शादी विवाह शुभकार्य करने से पहले इसकी पूजा करना अनिवार्य है। वन विभाग ने वृक्ष को संरक्षित घोषित करते हुए चबूतरा बनाया है। तने की चौड़ाई 28 फीट 2 इंच व ऊंचाई 28 मीटर है।

साल वृक्ष अचानकमार छत्तीसगढ़ (फ़ोटो-ललित शर्मा)

साल का वृक्ष एवं पुष्प सरना धर्म के लिए पवित्र और पूज्यनीय है। सरहुल पर्व का पवित्र वृक्ष ‘सरई’, ‘सारजोम’, ‘साल’ या ‘सखुआ’ है। यह बसंत आगमन का सूचक है, जब सरई के वृक्ष में नये फ़ूल आते हैं तो समझ लो बसंत आ गया तब सरहुल त्यौहार मनाया जाता है, देवताओं की पूजा करने के बाद एक दूसरे के साल का फ़ूल भेंट किए जाते हैं तथा पुजारी हर घर की छत पर फ़ूल डालता है जिसे फ़ूल खोंसी कहा जाता है। यह फ़ूल भाई चारे एवं मित्रता का प्रतीक हैं।

साल वृक्ष जीवनोपयोगी है, भयानक से भयानक आंधी-तूफान, मारक अकाल और दुर्भिक्ष तथा मौसम की मार के बावजूद यह तन कर खड़ा रहता है। साहस, हिम्मत, संघर्ष और धैर्य का यह अद्भुत प्रतीक है। इसकी ऊंचाई अपने अटूट हौसलों से आसमान को भेदती चली जाती है। न जाने कब से यह मनुष्य के साथ साँस से साँस मिलाकर उसमें प्राणवायु का संचार कर रहे हैं। जब भी साल वृक्ष को देखता हूँ तो प्रकृति देवता के समक्ष स्वत: ही नतमस्तक हो जाता हूँ जिसने साल जैसा अमुल्य धन इस प्रकृति को दिया है।

आलेख

ललित शर्मा इंडोलॉजिस्ट, रायपुर छत्तीसगढ़

About hukum

Check Also

मन की शक्ति जुटाने का पावन पर्व नवरात्र

चैत्र नवरात्र वसंत के समय आता है, ऐसे में जहां प्राकृतिक परिवर्तन पुराने आवरण को …