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राजकुमार सिद्धार्थ से बुद्ध होने की यात्रा


बुद्धं शरणम् गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि, संघम शरणम् गच्छामि का मूल महामंत्र का शंखानिनाद करने वाले महात्मा बुद्ध भगवान विष्णु के नवमें अवतार थे। अवतार सदा से धर्म की स्थापना एवं अधर्म के विनाश के लिए होते आये हैं।

सदियों से अनेक वैशाख पूर्णिमायें इस धरती पर आई और चली गई लेकिन 563 ईसा पूर्व एक ऐसी वैशाख पूर्णिमा भी आई जब शाक्य गणराज्य की तत्कालीन राजधानी कपिलवस्तु के निकट लुम्बिनी में क्षत्रीय शाक्य कुल के राजा शुद्धोधन एवं महारानी माया देवी के घर राजकुमार सिद्धार्थ के रुप में बुद्ध की चेतना अवतरित हुई।

उनके जन्म के समय एक आश्चर्यजनक घटना यह घटी कि उनके दर्शन करने के लिए हिमालय के परम तपस्वी ॠषि असिता आए। वो कभी राजधानी नहीं आते थे और कभी कभार सम्राट उनसे मिलने के लिए स्वयं जाते थे।

महा तपस्वी असिता ने उन्हें बताया कि उनका शिशु कोई साधारण जीवत्मा नहीं है। अपितु सब तरह से अलौकिक है, कई सदियाँ बीत जाती हैं तब कहीं ऐसी आत्मा आती है। यह समूची मानवता के लिए सिद्धार्थ है।

महातपस्वी असिता ने शिशु के बारे में भविष्यवाणी की कि यह बालक तो महान चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या एक महान आध्यात्मिक पथ प्रदर्शक बनेगा। ॠषि असिता को इस बात का पछतावा भी था कि जब यह शिशु बुद्धत्व के शिखर पर होगा तब वे उसे देख नहीं सकेंगे क्योंकि उनके धरती से जाने का समय निकट आ गया था।

काल के प्रवाह में समय बीतता गया, सिद्धार्थ युवा हुए, समवय की अनिंद्य सुंदरी यशोधरा उनकी राजरानी बनी। राहुल के रुप में उन्हें पुत्र मिला। महाराज शुद्धोधन चाहते थे कि सिद्धार्थ चक्रवर्ती सम्राट बने, इसलिए उन्होंने उनके जन्म से ही इस बात का विशेष ध्यान रखा कि सिद्धार्थ को किसी भी तरह के सांसारिक दुख का स्पर्श न हो।

उनके राज में किसी भी पीड़ित रोगी या वृद्ध व्यक्ति को स्थान नहीं दिया जाता था बल्कि ऐसे लोगों को राज्य से अलग स्थान में रखा जाता था ताकि सिद्धार्थ इन्हें देखकर दुखी न हो। सिद्धार्थ के समक्ष केवल सुख एवं ऐश्वर्य को ही प्रस्तुत किया जाता था।

महाराज शुद्धोधन का यह आदेश था कि संसार में जितने भी तरह का सुख है, वह सिद्धार्थ के समक्ष प्रस्तुत किया जाए और किसी भी तरह के दुख से उन्हें दूर रखा जाए क्योंकि उनके पिता यह नहीं चाहते थे कि राजकुमार सिद्धार्थ के मन में सांसारिक दुखों के कारण वैराग्य का भाव उत्पन्न हो और वे तपस्या करने के लिए राज्य छोड़कर चले जाएं। लेकिन विधि को और ही कुछ मंजूर था।

राजकुमार सिद्धार्थ को स्वप्न में ही संसार का दुख दिखने लगा। दुखद सपनों के कारण उनका मन उद्विग्न रहने लगा और उनकी आंखों की नींद उड़ गई, फ़िर एक अवसर ऐसा भी आया जब संसार की वास्तविकता से उनका परिचय हुआ।

एक दिन वे अपने अभिन्न मित्र व सारथी छंदक के साथ नगर भ्रमण के लिए निकले और इस दौरान उन्होंने खांसते कराहते मरीजों को देखा, लाठी चलकर चलते वृद्धों को देखा, श्मशान ले जाये जाते मुर्दों को देखा और नगर में घूमते सन्यासियों को देखा।

छंदक ने बताया कि जीवन में रोग व्याधि होती रहती है, वृद्धावस्था आती ही है और एक दिन जीवन भी समाप्त हो जाता है इसलिए संन्यासी लोग ज्ञान का अन्वेषण कर मोक्ष प्राप्त करने का प्रयास करते हैं। यह घटना ऐसी थी जिसने राजकुमार सिद्धार्थ के मन को झकझोर दिया।

बचपन से लेकर युवा होने तक ऐसे दृश्य उन्होंने कभी नहीं देखे थे और न ही उनके बारे में कभी सुना था, जो इस संसार का सत्य था उससे भी अपरिचित थे। उसको जानने उपरान्त उनके मन में ऐसा प्रचंड वैराग्य उत्पन्न हुआ कि एक रात्रि अपने पुत्र राहुल और पत्नी यशोधरा को छोड़कर अन्यत्र तपस्या करने के लिए चले गये।

इस तरह युवराज तपस्वी बन गये। तपस्या करते-करते उनकी देह दुर्बल एवं जर्जर हो गयी और एक ऐसा आया जब सुजाता ने उन्हें खीर खिलाई, जिससे उनकी देह को ही नहीं, जीवन चेतना को भी नवजीवन मिला। उसके बाद वे जब ध्यान में बैठे तो फ़िर बुद्ध बनकर ही अपने नेत्र खोले। बुद्धत्व प्राप्ति का यह दिन वैशाख पूर्णिमा ही था। गौतम गोत्र में जन्म लेने के कारण वे गौतम बुद्ध कहलाये।

आलेख

मुकेश ॠषि

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