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महामाया माई अम्बिकापुर : छत्तीसगढ़ नवरात्रि विशेष

अम्बिकापुर की महामाया किस काल की हैं प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध नहीं है पर यह तो तय है कि महामाया, छत्तीसगढ़ की सर्वाधिक प्राचीन देवियों में से एक हैं। यह क्षेत्र सधन वनों से आच्छादित था। पूरे क्षेत्र में गोंड़, कोरवा, चेरवा आदि जनजातियां निवास करती थीं। जनजातियों में प्रतीकात्मक देवी-देवताओं की पूजा की जाती है।

गांवों में सरना के रूप में शिव की और गांव की सीमा पर डिहारिन देवी के रूप में पार्वती की पूजा की जाती है। इसके लिये गांव की सीमा पर मडै़यानुमा झोपड़ी बना दी जाती है। महामाया पहाड़ी के उपर श्रीगढ़, नवागढ़ में गोंड़, कोरवा, चेरवा आदि जनजातियों की बस्तियां थीं।

सरना देव और डिहारिन देवी के रूप में बस्ती की सीमा में दो अनगढ़ पत्थरों को रखकर पूजा की जाती थी। 1910 से पहले जब मंदिर का निर्माण नहीं हुआ था इसी जगह में चबूतरे पर स्थापित दोनों मूर्तियां को बड़ी समलाया और छोटी समलाया के नाम से जाना जाता था। पुजारी, कोरवा या चेरवा जाति के लोग हुआ करते थे जिन्हें बैगा कहा जाता था।

महाराजा रघुनाथ शरण सिंह देव द्वारा 19वीं सदी के अन्त में वैदिक विधि से पूजा प्रारंभ की गई। 1910 में पहली बार महामाया मंदिर का निर्माण कराया गया था। मंदिर शहर के पूर्व में श्रीगढ़ पहाड़ी के ढलान पर बना हुआ है। कुछ समय पश्चात छोटी समलाया को मंदिर के पश्चिम में शहर की दिशा में अलग मंदिर बनाकर स्थापित किया गया।

महाराज रघुनाथ शरण सिंह देव द्वारा अपने काल में तीन मंदिरों के निर्माण की जानकारी मिलती है। महाराज रघुनाथ शरण सिंह देव के पुत्र महाराज रामानुजशरण सिंह देव थे। उनकी माताजी महारानी भगवतीदेवी मिर्जापुर के विजयगढ़ की थीं। विन्ध्यवासिनी देवी महारानी की आराध्य देवी थीं।

श्री विग्रह, विंध्यवासिनी देवी एवं महामाया देवी

महारानी मां विंध्यवासिनी की पूजा-अर्चना कर सकें इसके लिये देवी को अम्बिकापुर लाकर महामाया (बड़ी समलाया) के बगल में स्थापित किया गया। मां अम्बिका के नाम पर ही शहर का नाम अम्बिकापुर रखा गया है। 1680 में शिवाजी की मृत्यु के बाद मराठे निरंकुश हो चुके थे। लूटमार करना उनका व्यापार हो गया था। सरगुजा को भी उन्होंने काफी क्षति पहुंचायी थी।

अनेक लोगों से यह सुना गया है कि मराठे महामाया को ले जाना चाहते थे, परन्तु भारी विरोध के कारण नहीं ले जा सके फलस्वरूप वे महामाया का सिर ही काटकर ले गये। ऐसा कहा जाता है रतनपुर में वर्तमान मूर्ति के पीछे जो दूसरा सिर है वह इन्हीं महामाया का है।

कथन सही प्रतीत नहीं होता। सरगुजा के अनेक मंदिरों की मूर्तियां तोड़ी गई हैं। मराठे मूर्तिभंजक नहीं थे, वे तो देवी के उपासक थे। रतनपुर की पुरानी मूर्ति तराशी हुई है जो कल्चुरि कालीन है।

अकबर (1556-1605) ने अपने राज्य को 15 सूबों में बांटा था। उस वक्त सरगुजा, इलाहाबाद सूबे के अन्तर्गत था। आसफ खां इस सूबे का प्रथम सूबेदार था। आसफ खां ने महाकौसल के राजगोढ़ी तथा रतनपुर के कल्चुरि शासकों को अपने अधीन कर लिया था। उसने एक अभियान के दौरान सरगुजा के मंदिरों और मूर्तियों को नष्ट किया था। उसी वक्त महामाया मूर्ति का सिर तोड़ा गया था।

जानकारों ने बताया कि गांव वालों ने नया सिर बनाकर देवी को पुनर्स्थापित किया। तब से शारदीय नवरात्रि की प्रथम रात को पुराने सिर का विसर्जन कर नया सिर लगाने की परम्परा चली आ रही है। इस कार्य को एक कुम्हार परिवार पीढ़ी दर पीढ़ी से करता आ रहा है।

प्रातः मंदिर के पट खोलकर देवियों की शृंगार-पूजा का कार्य आज भी चेरवा बैगा द्वारा किया जाता है। स्टेट समय के पहले से बलि प्रथा प्रारंभ थी। बकरे, भैंसे आदि की बलि दी जाती थी। वर्तमान में कानूनी तौर पर बलि प्रथा बंद है, परन्तु मंदिर के सामने लकड़ी का एक चौड़ा खंभा आज भी गड़ा है जिस स्थान पर बलि दी जाती थी।

बलि स्थल से थोड़ा हटकर पूर्व की ओर यज्ञशाला है। महाराज रामानुजशरण सिंह देव के समय यज्ञशाला का निर्माण हुआ था। अष्टमी-नवमी के संधि काल में महाराज द्वारा मां महामाया की पूजा की जाती थी। वर्तमान में राजपरिवार के उत्तराधिकारी श्री टी.एस.सिंह देव द्वारा राज परम्परा का निर्वाह किया जा रहा है।

संधि काल दिन में हो या रात में मूहूर्त के अनुसार ही देवी की पूजा की जाती है। शस्त्र व नगाड़े की पूजा दशहरे के दिन राजभवन में की जाती है। महाराज रघुनाथ शरण सिंह के समय सरगुजा स्टेट में 200 हाथी थे। दशहरे के दिन हाथियों को चांदी के हौदों से सजाकर महाराज का भव्य जुलूस निकला करता था और बंजारी में जाकर नीलकण्ठ का दर्शन किया करते थे।

यह बहुत ही जागृत शक्ति स्थल है। स्व0 लक्षणधारी मिश्र ῞विलक्षण राही῎ द्वारा महामाया की विलक्षण स्तुति लिखी गई है। देवी की ऐसी स्तुति अन्यत्र नहीं मिलेगी।

माँ महामाया जी की आरती

कृपामयी कृपा करो, प्रणाम बार-बार है,
दयामयी दया करो, प्रणाम बार-बार है,

न शक्ति है न भक्ति है, विवेक बुद्धि है नहीं,
मलीन दीन हीन हूं, व पूर्ण शुद्धि है नहीं,
अधीर विश्वधार बीच, डूबता शिवे सदा,
अशान्ति, भीति, मोह, शोक, राह रोकते सदा,
विपत्ति है अनन्त अम्बे, आपदा अपार है।

कृपामयी कृपा करो, प्रणाम बार-बार है,
दयामयी दया करो, प्रणाम बार-बार है,

तुम्हे अगर तजूँ कहूँ, कहाँ विपत्ति की कथा,
सुने उसे कौन अगर, सुनो न देवि सर्वथा,
सृजन-विनाश-स्वामिनी समस्त विश्व पालिका,
अदृश्य-दृश्य प्राण शक्ति, एकमेव कालिका,
कठोर तू तथापि भक्त, के लिये उदार है।

कृपामयी कृपा करो, प्रणाम बार-बार है,
दयामयी दया करो, प्रणाम बार-बार है,

अखंड हैं विभूतियां, अनन्त शौर्यशालिनी,
अखण्ड तेज राशि युक्त, देवि मुण्ड मालिनी,
समस्त सृष्टि एक अंश, से प्रखर प्रकाशिका,
विवेक दायिका विमोह, पाप शूल नाशिका,
क्षमामयी क्षमा करो, उठी यही पुकार है।

कृपामयी कृपा करो, प्रणाम बार-बार है,
दयामयी दया करो, प्रणाम बार-बार है,

शिवे! विनीत भावना, लिये हुये खड़ा हुआ,
चरण-सरोज में अबोध, पुत्र है पड़ा हुआ,
कृपा भरी सुदृष्टि , एक बार तू पसार दे,
मिटे अशान्ति शोक, एक बार तू निहार दे,
हरेक वस्तु बीच अम्बे! , आपका विहार है।

कृपामयी कृपा करो, प्रणाम बार-बार है,
दयामयी दया करो, प्रणाम बार-बार है,

स्रोत –

1-सरगुजा का एतिहासिक पृष्ठ

2-श्री रामप्यारे “रसिक”

3-गोविन्द शर्मा, अम्बिकापुर, सरगुजा (स्टेट मामलों के जानकार)

आलेख

श्री श्रीश मिश्र
भूतपूर्व प्राचार्य
अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

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