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बस्तर में शक्ति उपासना की प्राचीन परंपरा

बस्तर प्राचीनकाल में दंडकारण्य कहलाता था। छत्तीसगढ़ के दक्षिण में ”बस्तर“ ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण क्षेत्र रहा है। आदिम युग से अर्वाचीन काल तक बस्तर में अनेक राजवंशों का उत्थान और पतन हुआ। बस्तर के विशाल अंचल को देवी-देवताओं की धरा कहें तो कोई अतिशोक्ति नहीं हैं।

बस्तर की देवियां-
राज मान्यता प्राप्त देवियों में केशरपाल की केशरपालीन, बस्तर की गंगादाई, गढ़मधोता की महिषासुर मर्दिनी, आमापाल की आमाबलिन, लोहड़ीगुड़ा की लोहड़ीगुड़ीन, बेड़ागांव की हिंगलाजीन, कोंडागांव की दाबागोसीन, बनियागांव की दुलारदाई प्रमुख है। बस्तर क्षेत्र की देवियों में बारसूर में पीलाबाई का अलग प्रताप है। यहीं महिषासुर मर्दिनी की सुन्दर मूर्ति है और इनकी सतवंतीन गद्दी है। कुरूसपाल में भैरव, दुर्गा आदि अपनी सभ्यता के इतिहास कहते हैं। नारायणपुर में मावलीमाता, तेलीनघाट मुंडीन में तेलीन सती, बैलाडीला घाट की बंजारिन, दरभाघाट की बंजारिन माता को वनवासी पूजते हैं। केशकाल की गोबारिन जिसे गोंडिन देव भी कहा जाता है। जिसके सती होने की कथा बस्तर में प्रचलित है।

बस्तर में दंतेश्वरी देवी और आंगादेव की मान्यता लोकव्यापी है। काकतीय वंश के साथ दंतेश्वरी देवी प्रतिष्ठित हुईं जो बड़े डोंगर, दंतेवाड़ा और जगदलपुर में विराजमान हैं। बस्तर के मड़िया, मुरिया, भतरा, परजा, गोड और नागवंशीय आदिवासी मूलतः दंतेश्वरी माई और आंगादेव के अन्नय भक्त हैं। छत्तीसगढ़ फ्यूडेटरी स्टेटस् के लेखक ई.ए. डेब्रेट के अनुसार बस्तर के गोंड गौ माता को मानते हैं। उनके यहां हिन्दू देवी-देवताओं को पूजा जाता है। लेकिन बूढ़ी माता को सुअर और मुर्गा चढ़ाते हैं, मदिरा नहीं चढ़ाते। मान्यता है कि बूढ़ी माता चेचक और पशुओं को रोग मुक्त रखती है।

बस्तर की ग्राम देवियां-
चेचक से मुक्ति देने वाली बूढ़ी माता लोक मान्यता से जुड़ी हैं। तेलगिन माता और परदेसिन माता आदि इनकी सात बहनें है सबकी पूजा होती है। परजा जनजाति माटी माता (धरती) की पूजा को विशेष महत्व देते हैं। इसे वे वैदिक पूजा के अन्तर्गत मानते हैं। जगदलपुर जिले की गड़बा जाति ठाकुराइन माता को पूजती है। इनकी सात बहनों की भी पूजा होती है लेकिन लंगूरदेवी, दंतेश्वरी और तेलगिन माता की पूजा यह जाति नहीं करती। वर्तमान में सभी जातियां दंतेश्वरी माई की पूजा करती है।

वन प्रकृति में देवियां-
बस्तर के सघन वनों के बीच बसे गांवों में देवी देवताओं की स्थापना का विशेष महत्व है। हर गांव में कम से कम पांच देवियां विद्यमान रहती हैं। सभी देवियों की पूजा का अपना विधान और समय भी अलग-अलग होता है। देवी-देवताओं के नाम वनवासियों की अपनी बोलियों में है। विशेष चर्चा में जो देवी-देवता हैं उनके नाम इस प्रकार है , गंगादेई, लिंगादेई, बस्तरीन, दुलादेई, सोनादेई, लाहुरी, बोहरयत, परदेशीन माता, तपेश्वरीन, पेंर्ड्रबडीन, कंकालीन, भंगाराम (केसकाल) भैरमदेव, पाटदेव, उलटभैरम, भीमासन, भीमादेव, चंदर, सुहूर (माता का सेवक) मावलीमाता, हिंगलाजिन, बंगारिन माता, शीतला माता, चौरयामाता, वासुगायता माता, बूढ़ी परदेशीन, कोटगोड़िन माता, नागा भीम, नागा भैरम, डोंगरदेव, डोकरादेव, राउड़, राजा राउड़, दीवान राउड़, रानी राउड़ डांढ, पंडीरराम, सिंगा साव, उलटराव, सिंगराय, सकनीराय, चीतराराय, कमनी (पानी के देव) गयादेव, गयागोरिन, गंडिनमाता, आदि हैं।

बलि प्रथा की परंपरा-
प्राचीन बस्तर की जनजातियां शिकार कर अपना भरण-पोषण करती थीं। आदिवासी शिकार करने के बाद देवियों का भोग लगाते थे। देवी मंदिरों में भैसा,बकरा की बलि सर्वाधिक प्रचलित थी। खास तौर पर मावली मंदिरों में बलि प्रथा प्रचलित थी। जगदलपुर के अलावा कई स्थानों में मावली देवी (मणिकेश्वरी देवी) के मंदिर मिलते हैं। 10 से 13वीं शताब्दी के बीच बस्तर के नागवंशीय राजाओं ने कई मंदिरों का निर्माण कराया। नागवंशीय राजाओं की प्रमुख आराध्य मणिकेश्वरी देवी थी। 13वीं शताब्दी में काकतीय वंश के राजाओं ने बस्तर में सत्ता संभाली और दंतेश्वरी देवी का मंदिर राजा अन्नमदेव ने बनवाया। दंतेश्वरी देवी राज्य की प्रधान देवी और राजा उनके पुजारी बने रहे।

मातृका देवियां –
जनजातीय भूदेवी, भूमि, (माटी) को भी देवी मानते हैं। हर, वनवासी समूह पृथ्वी, माता को अपने-अपने नाम से पूजता है। भू-देवी, पृथ्वी स्थिर होती है जिनका स्थान भी स्थिर होता है। जब कोई नया गांव बसता है तब उस नए गांव की नई भू-देवी होती है। पुराने गांव की देवियां तब भी पूजी जाती है।

भू-देवी के बाद गांव की मातृका देवी को पूजा जाता है। मातृका देवी अलग-अलग जातियों और गांवों में अपना अलग-अलग नाम धारण कर लेती हैं। मातृका देवियों में कांकेर के पास केसकाल की घाटी में कुंवरपाट देवी का प्राचीन मंदिर है।

मातृका देवी का मंदिर (मरिया) गांव में होता है। साधारण पत्थर या सूखे वृक्ष के तने के रूप में भी देवी के स्वरूप को प्रतिष्ठापित कर लिया जाता है। त्यौहारों पर देवी की यात्रा निकलती है। झंडा और छत्र के प्रतीक के साथ देवी की सवारी निकलती है।

भू-देवी, मातृका देवी के बाद कुल देवी पूजी जाती है। हर कुल की अपनी कुल देवी होती है। कुल देवी के बाद आत्माएं पूजी जाती है। परिवार की पितृ आत्माओं के अलावा अन्य आत्माओं के साथ प्राकृतिक स्थानों की आत्माएं भी पूजी जाती हैं।

देव के परिधान और श्रृंगार-
देवी-देवता सामान्यतः लहंगा-चोला पहनाते हैं। जो अपने हाथों में कांटा, मुंदर, सिगारी, मुंदरा, गुरद और त्रिशूल धारण करते हैं। देवी-देवता सोना-चांदी के जनेऊ, सोना-चांदी के आभूषण मुकुट, बाजूबंद, मोहरमाला, कमरपट्टा धारण करते हैं।

अधिकांश स्थानों में बलि प्रथा परंपरानुसार आज भी प्रचलित हैं। मणिकेश्वरी देवी मंदिर में पहले नरबलि दी जाती थी। वर्तमान में यहां पशुबलि दी जाती है, कुछ देवी स्थल में नारियल सुपाड़ी के साथ सादी पूजा की परंपरा है। प्रकृति के सानिध्य में रहने वाले बस्तर में अनेक राजवंशों का शासन रहा है। राजवंशों की कुल देवी के अलावा लोक देवी-देवताओं को भी पूजा जाता है।

देवी दशहरा –
बस्तर का देवी दशहरा आज विश्व प्रसिद्ध है। जहां रावण दहन नहीं होता और देवी दंतेश्वरी की छत्रछाया में रथयात्रा संपन्न होती है। यहां समूचे बस्तर की अनूठी परंपरा, जनजातीयो की विभिन्न वेश-भूषा उनके जनजीवन की संस्कृति परिलक्षित होती है। दशहरा पर्व एक माह तक चलता है जिसमें विभिन्न विधि विधान परंपरानुसार संपन्न होते हैं।

मावली मेला –
नारायणपुर की ऐतिहासिक मावली मड़ई (मेला) की ख्याति दूर-दूर तक फैली है। हर वर्ष मार्च अप्रैल के बीच मेला एक सप्ताह तक चलता है। मेले में गांव गांव के देवी-देवता सम्मलित होते हैं, जिन्हें गांवों के बैगा, सिरहा लाते हैं। मावली मेला में धार्मिक अनुष्ठान आज भी विधिवत संपन्न होते हैं। वहीं वनवासियों का सांस्कृतिक वैभव यहां साकार हो उठता है।

देवी की अदालत –
बस्तर क्षेत्र के देवी-देवताओं को अदालत में हाजिर होना पड़ता है। कांकेर में चारभाठा की दंतेश्वरी देवी 22 गांवों की तहसीलदार मानी जाती है। हर वर्ष की कार्तिक अमावस्या के बाद के पहले सोमवार को दंतेश्वरी देवी के दरबार में मेला भरता है और जन सुनवाई होती है। दंतेश्वरी देवी अपने दीवान भंगाराम देवी के माध्यम से देवी-देवताओं को दंड भी देती है। दंड के भागी देवों की पूजा बंद करा दी जाती है। किसी देवी देवता को क़ैद कर दिया जाता है। केशकाल में विराजी देवी भंगाराम की अदालत में बस्तर के देवी-देवता आते हैं। हर वर्ष भादो जात्रा में उत्सव मनाया जाता है। जो देवी देवता भक्तों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता उन्हें भंगाराम देवी सजा देती है। जहां देवता अपनी गलतियां सुधारते हैं।

बस्तर के जनजाति लोग प्रकृति की शक्ति को शाश्वत मानते हैं। जिन्हें वे अलग अलग स्वरूपों में पूजकर अपनी जीवन चर्या में सहेजते भी हैं। बस्तर का प्राकृतिक वैभव, वहां की मनोरम वन प्रकृति, कल कल बहती नदियां, तो हरहराते हुए झरने यहां की सुरम्य वादियों को और भी मनमोहक बनाते हैं। समूची प्रकृति को पूजने वाले बस्तर के वनवासी इनके रखवाले हैं जो अपनी परंपरा, संस्कृति और जीवन के हर मोड़ पर अपने देवी-देवताओं की आस्था लिए हुए चलते हैं।

आलेख

श्री रविन्द्र गिन्नौरे
भाटापारा, छतीसगढ़

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