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जानिए बस्तर के आदिवासी समाज में क्या और क्यों होता है खटला फ़िराना

धर्म भीरू मानव एक ऐसे समाज का निर्माण करता है, जहाँ अच्छे और बुरे कर्म के साथ स्वर्ग-नर्क की अवधारणा है। अच्छे कर्म के लिये अच्छा फल चाहे उसे देर से प्राप्त होता हो। किन्तु बुरे कर्म का बुरा फल उसे तत्काल प्राप्त हो जाता है, यही उसके समाज की अवधारणा है। ऐसे समाज के मन में हर समय, हर कदम पर अनिष्ट होने की आशंका बनी रहती है, जिससे बचने के लिये कदम-कदम पर कई तरह के उपाय किये जाते हैं।

यह अनिष्ट से बचने के प्रारम्भिक उपाय हैं जिसे टोना-टोटका निवारण के लिये किया जाता है। जैसे बुरी नजर से बचने के लिये बच्चों को काला टीका लगाया जाता है, घर में मिर्ची का धुआँ दिखाया जाता है। बिल्ली के रास्ता काटने पर आगे नहीं जाते, यदि किसी अच्छे काम के लिये जा रहे हैं और किसी ने पीछे से टोक दिया तो बनता काम बिगड़ जाने की आशंका होती है। इस तरह रोजमर्रा की जिन्दगी में कितने ही तरीके के टोटके होते है और इन्हें आधुनिक सभ्य समाज भी करता है। मन की शान्ति के लिये पूजा-पाठ, हवन-पूजन, ईश्वर का प्रति दिन स्मरण करना आम है, यदि यही काम कोई अन्य समाज करता है तो उसे अंधविश्वासी और न जाने क्या-क्या कहा जाता है।

बस्तर का सबसे बड़ा आदिवासी समाज देव संस्कृति को मानने वाला है। देव संस्कृति को गोंडी में “पेन हानाल” कहा जाता है। प्रकृति आधारित जीवन-यापन करने वाला आदिवासी समाज यथार्थ में जीता है, वह जो प्रत्यक्ष देखता है, उसी पर विश्वास करता है।

आदिवासी समाज में अच्छे और बुरे कर्म का कोई स्थान नही है, कारण उसका प्रत्येक कार्य देवाज्ञा से या देवताओं के बताये अनुसार किया जाता है। यही कारण है कि आदिवासी समाज द्वारा सम्पन्न कार्यो में बुरे कार्यो का स्थान नहीं होता, कहने का मतलब यह है कि देवाज्ञा से किये गये कार्यो में बुरे काम की सम्भावना कम होती है।

आदिवासी समाज अपने सुखमय जीवन को अपने लोक देवताओं की प्रसन्नता मानता है और अनिष्ट होने पर देवताओं की अप्रसन्नता से जोड़ कर, उन्हें प्रसन्न करने का उपाय करता है। इनके द्वारा किये गये प्रत्येक देव काम अपने देवों को प्रसन्न करना ही है परन्तु विशेष रूप से देवों द्वारा गाँव और परिवार के कष्टों को दूर करने के लिये उपकृत होने की इस क्रिया को खटला फिराना कहा जाता है।

बस्तर का आदिवासी समाज साल में एक बार आवश्यक रूप से खटला फिराने की क्रिया करता है। इसे आम बोलचाल में खटला फिराना और गोंडी में खटला कियाना कहा जाता है। यह एक प्रकार का कराड़ (करार) या मनौती है जो अपने लोक देवता या गाँव के रक्षक देवता के प्रति उसके द्वारा पूर्व में किया गया होता है, जिसे किसी अवसर पर उन्हें प्रसन्न करने के लिये दिया जाता है। हम इसे इस प्रकार भी कह सकते हैं जिस प्रकार अन्य समाज के लोग ग्रह शान्ति के लिये अपने घरों में साल में एक बार हवन-पूजन का आयोजन करते हैं, उसी प्रकार आदिवासी समाज अपने कष्टों के निवारण हो जाने के बाद किसी विशेष अवसर उस समय किये गये मनौती को पूरा करता है। किसी भी आदिवासी समाज के परिवार में कोई कष्ट होता है, तो पहले वह उसे सामान्य तरीके से लेता है, जैसे यह आम बात है परन्तु यह कष्ट परिवार में लम्बे समय तक बना रहता है, तब वह दूसरा उपाय करता है। यह उपाय देव बैठाने से लेकर देव पूछने का होता है। सिरहा के उपर देवता सवारी कर उस कष्ट के सम्बन्ध में बताता है और उनके द्वारा ही निवारण के उपाय भी बताये जाते है। सिरहा के द्वारा बताये गये उपाय को देने के लिये वह परिवार वचनबद्ध या कराड़ करता है। इस करार को उन अप्रसन्न देवताओं को अर्पित कर प्रसन्न करने की क्रिया को खटला फिराना कहा जाता है।

खटला फिराने की प्रक्रिया दो तरह से की जाती है, एक पूरे गाँव के द्वारा सामूहिक रूप से तथा दूसरा एक परिवार के द्वारा व्यक्तिगत रूप से भी इसे किया जाता है। आदिवासी समाज गाँव की प्रत्येक घटना का आँकलन करता रहता है। गाँव में कोई भी असामान्य घटना उसे विचलित कर देती है, जिसे वह देवताओं की नाराजगी से जोड़कर देखता है। उसका मानना है कि गाँव में होने वाली प्रत्येक घटना के पीछे समाज के किसी व्यक्ति के द्वारा कोई ऐसा कृत्य किया गया है, जो उसकी मान्य परम्परा के खिलाफ है या उसने प्रकृति के नियम को भंग किया है, उसका परिणाम यह असाधारण घटना है। इसे वह बोलचाल की भाषा में गाँव बिगड़ना कहता है। इसका तात्पर्य है कि गाँव में अप्रिय स्थिति का निर्मित होना। गाँव में अचानक महामारी बीमारी जिसमें आदमी की मृत्यु हो जाती है, पालतू-पशु अचानक मरने लगते है या फिर उनमें खुरा-चपका की बीमारी होती है, गाँव में खाज-खुजली का प्रकोप होने लगता है, ऐसी सब स्थिति निर्मित होने से गाँव बिगड़ गया कहा जाता है। इसी प्रकार गाँव में शेर खोरी होने से भी यह कहा जाता है, शेर खोरी से आशय है कि गाँव के पालतू जानवरों को शेर, चीता, द्वारा मार देने से भी गाँव बिगड़ना कहा जाता है।

गाँव बिगड़ने की घटना आदिवासी समाज को विचलित कर देती है। वह किसी अनिष्ट होने की आशंका से भयभीत हो जाता है। आदिवासी समाज ऐसी घटना को अपने गाँव और समाज के रक्षक देवताओं की नाराजगी मानता है। उसे लगता है कि समाज के किसी व्यक्ति के कार्य-व्यवहार से उसके रक्षक देव या लोक देवता नाराज हुये हैं, उसका परिणाम है कि गाँव बिगड़ गया है।

इसका निदान भी उसके लोक देवताओं के पास है, जिनसे पूछकर या उनके बताये अनुसार इसका उपाय करता है। आदिवासी समाज के रक्षक देवता उनके पितृदेव जिन्हें वह डुमादेव कहता है, रावबाबा जो उनकी किसी ऊँचें स्थान पर विराजित होकर प्राणियों और फसल की रक्षा करते हैं। इसी तरह कैना जल वृद्धि करने वाली जलपरी या जलकी देवी तथा “कौडो” लड़के की पवित्र आत्मा को माना जाता है। ये सब देवता आदिवासी समाज की कदम-कदम पर रक्षा करते हैं और बदले में आदिवासी समाज अपने समय-समय पर होने वाले देवोत्सव में उनकी पूजाकर, बलि देकर उपकृत होता है। इसी तरह ग्राम देवता, गाँव माटी के कुपित होने से भी गाँव में नाना प्रकार की आपदायें आती हैं। जिसका निदान आदिवासी समाज को करना अनिवार्य हो जाता है।

          जैसे ही गाँव बिगड़ने का आभास आदिवासी समाज या किसी व्यक्ति को होता है, वह पहले कुछ लोगों से सलाह लेता है और ग्राम देवती स्थल, जिसे जागारानी कहा जाता है, यह एक ऐसी जगह है जहाँ गाँव के देवता सम्बन्धी कार्य किये जाते है, में जाकर तोड़ी (दुदुंभी जैसा वाद्य) फूँका जाता है। गाँव में तोड़ी बजने से सभी ग्रामवासी को यह भान हो जाता है कि गाँव में किसी विशेष बात पर विचार करने के लिये आकस्मिक बैठक की जा रही है और सब अपने सब काम छोड़कर बैठक में भाग लेने आते हैं। सभी ग्राम वासी के उपस्थित होने के बाद माटी गांयता, माटी पुजारी, सभी सिरहा, ग्राम पटेल आदि को बुलवाया जाता है। सबके आने के बाद चर्चा की जाती है कि हमारा गाँव बिगड़ गया है इसे सुधारने का प्रयास किया जाना है। इसके बाद सबकी सहमति से देव बैठाकर पूछते हैं कि क्या कारण है गाँव बिगड़ने का?

सिरहा के उपर आरूढ़ देवता गाँव बिगड़ने का कारण बताता है, तब उनसे उसके निदान के उपाय के विषय में पूछा जाता और क्या उस उपाय को वह देव कर सकता है? सिरहा के ऊपर आरूढ़ देवता बताते हैं कि खटला फिराना पड़ेगा और देवताओं को अर्पित करने के लिये इन सामग्रियों की आवश्यकता होगी और इस कार्य को वह कर सकता है या फिर उस देवता का नाम बताता है कि कौन इस कार्य को करेगा। देवता और खटला में लगने वाली सामग्री की जानकारी होने पर फिराने के लिये दिन तय किया जाता है। सब सामग्री की व्यवस्था गाँव के व्यक्तियों द्वारा अपने लोक देवताओं से पूर्व में दिये जाने का करार किये रहते है, किया जाता हैं। खटला में उसे ही देने का सिरहा पर आरूढ़ देव आज्ञा देता हैं।

बस्तर के आदिवासी बाहुल्य गाँव में देवता सम्बन्धी कार्य करने के लिये सप्ताह में एक निश्वित दिन होता है। यह दिन प्रायः सोमवार, मंगलवार, शुक्रवार, या शनिवार होता है। इनमें एक दिन किसी गाँव का देव काम किया जाता है। खटला फिराने में लगने वाली सामग्रियों की व्यवस्था करके निश्चित दिन सभी ग्रामवासी ग्राम देवती (जागारानी) में जमा होते हैं। यहाँ ग्रामवासियों को बताया जाता है कि पूर्व में हम ग्रामवासी अपने लोक देवताओं से गाँव के कष्ट निवारण होने पर हम आज जो सामग्रियाँ लाये हैं, उन्हें देने का करार किया था। उसके बाद गाँव के सिरहाओं के ऊपर देवता चढ़ता है और माटी गांयता, पुजारी उन रक्षक देवताओं का आह्वान करते हैं। सबकी विधिवत पूजा की जाती है। इसके बाद सिरहा पर आरूढ़ देव के बताये अनुसार रक्षक देवों को पूर्व में किये गये करार को पूरा किया जाता है।

आदिवासी समाज के रक्षक देव रावबाबा, सात्विक और ब्रह्मचारी देव हैं, जिन्हें दूध, केला, नारियल, सुपारी अर्पित किया जाता है। कैना भी कुवाँरी कन्या होती है, उसे श्रृंगार का सामान प्रिय है, उसे चूड़ी, फून्दड़ी अर्पित करने का आदेश होता है और साथ में काला चूजा जिसे हल्बी में कार कुकड़ी और गोंडी में कारियाल पीसे कहा जाता है बलि के रूप में देते है। ग्राम देवता और माटी माय (पृथ्वी माता) को जोड़ा चूजा अर्पित किये जाने का आदेश देवता द्वारा दिया जाता है।

कभी-कभी खटला फिराने की क्रिया को परिस्थिति के अनुरूप तत्काल करने की आवश्यकता होती है। आदिवासी समाज महसूस करता है कि उसके गाँव में असाधारण घटना घट रही है, जैसे अल्प समय में व्यक्ति की मृत्यु होती और उसके तत्काल बाद किसी पालतू जानवर की मृत्यु होती है, ऐसी घटना के लगातार होने से संवेदनशील आदिवासी समाज को ज्ञात हो जाता है कि कुछ तो गड़बड़ है। उपाय के रूप में जागारानी में तोड़ी की आवाज से सब ग्रामवासी एकत्रित होते हैं और गाँव में घटने वाले घटनाओं पर विचार किया जाता है। देव पूछाया जाता है, सिरहा के ऊपर आरूढ़ देव बताता है कि कोई गुनिया गाँव में खापूड़ गाड़ दिया है, इस कारण ऐसी घटना घट रही है। उपाय के रूप में खापूड़ कापाड़िंग करना होगा। देवता से पूछा जाता है कि क्या वह इस कार्य को कर सकता है देव के हाँ कहने पर कापाड़िंग निकालने की क्रिया की जाती है।

यहाँ खापूड़़ का अर्थ गुनिया द्वारा काला जादू करके गाँव के बीच मशान गाड़ने से है, जिसके कारण गाँव में लगातार घटनाएँ हो रही है और कापाड़िग करने का तात्पर्य उस मशान को निकालने से है। गाँव में लगातार होने वाली घटना की जानकारी होने के बाद कापाड़िंग करने की क्रिया की जाती है। गाँव के सभी सिरहाओं पर देवता की सवारी आती है, फिर वे उस स्थान पर जाते हैं जहाँ काला जादू करके मशान गाड़ा गया होता है। चिह्नांकित किये गये स्थान पर गाँव के जानकार व्यक्ति गुनिया द्वारा किये गये तांत्रिक क्रिया का काट किया जाता है, फिर उस जगह की खोदाई की जाती है और उस मशन को जो जिस स्थान पर गाड़ा गया है, उसे निकालते हैं। यह कुछ भी हो सकता है, जैसे पुतला, पहनने का कपड़ा, सिर का बाल आदि। इसे निकालने के बाद उसका विधिवत विसर्जन किया जाता है, यह क्रिया गाँव के बाहरी सीमा में किया जाता है। गाँव के चारो दिशा में सीमा होती है, जिसे संध कहा जाता है। इस तांत्रिक क्रिया को संध से बाहर करने के पीछे यह मान्यता है कि आदिवासी समाज में बुरी आत्माओं के लिये कोई स्थान नहीं है न ही उन्हें किसी प्रकार का महत्व ही दिया जाता है।

यही कारण है कि संध के बाहर उस बुरी आत्मा को ऐसी वस्तुयें दी जाती हैं, जो उपयोगी नहीं होती, मसलन कड़वा फल, जिसे गोंडी में केमूर बोदेला, और हल्बी में कड़ू बोदेला कहा जाता है, अर्पित करते हैं। इसी प्रकार चूल्हे की जली हुई मिट्टी जिसे गोंडी में डाहतड़ी कहा जाता है, देते हैं। मुर्गी का खराब अण्डा जिसे हल्बी में नसलो गार और गोंडी में हवले कहा जाता है, इसी प्रकार अण्डा का छिलका जिसे गोंडी में कराक कहा जाता है, अर्पित करने का विधान है।

इस समय उन बुरी आत्माओं से कहा जाता है कि “ तुमने हमारे गाँव का बहुत अनिष्ट किया है, हमारे देवता तुम्हें कभी माफ नहीं करेगें, हम भी अपनी नाराजगी का प्रदर्शन में ऐसी बेकार वस्तुएँ तुम्हें अर्पित कर रहें हैं, इसे ग्रहण करो और कभी हमारे गाँव में नहीं आना, यह चेतावनी है”।

इस तरह प्रार्थना करने के बाद उन्हें संध के बाहर भटका कर छोड़ा जाता है। इस समय जो जानकार या गुनिया होते हैं या सिरहाओं के द्वारा अपने गाँव का बन्धन किया जाता है। इसका अर्थ है कि गाँव में फिर से इस तरह की बलाओं को आने से रोकने के लिये पूर्व उपाय करना बन्धन करना बन्धन करना कहलाता है। 

इसी तरह गाँव में शेर खोरी होने की घटना को भी आदिवासी समाज अपने देवता की नाराजगी से जोड़कर देखता है। शेर खोरी को गोंडी में उरपायना कहा जाता है। पालतू-पशु को लगातार शेर या चीता द्वारा मारकर खाने से गाँव के लोग सहम जाते हैं और फिर जागारानी में तोड़ी बजाई जाती है, जिसे सुनकर गाँव के लोग जमा होते हैं। यहाँ शेर खोरी के कारण पर विचार किया जाता है। देवता पूछाया जाता है, सिरहा पर आरूढ़ देवता बताते हैं कि किसी समय इन रक्षक देवों को गाँव की ओर से कुछ देने का वादा किया गया था, जिसे आज तक नहीं दिया गया है, इसलिये ऐसी अनहोनी घटनाएँ घट रही हैं, इसे देने से सब ठीक हो जायेगा। इसके बाद आदिवासी समाज उन सामग्रियों की व्यवस्था करके एक बार फिर जागारानी में जमा होता है, जहाँ माटी गांयता, पुजारी, सिरहा उन रक्षक देवों का आह्वान कर पूजा करते हैं, उनके सम्मान में बलि देते है और प्रार्थना करते है।

“ हमने आपसे इन सामग्रियों को देने का वादा या करार किया था, किसी कारणवश नहीं दे पाये थे, हमें माफ करें, आपने याद दिलाया, उसके लिये हम आभारी हैं, आज इन वस्तुयों को दे रहे हैं, इन्हें ग्रहण कीजिये और हम पर प्रसन्न होइये” ऐसा कहकर सब पैर पड़ते है। (प्रणाम करते हैं।)

इस समय कुछ लोग शेर के द्वारा मारे गये जानवर का पुतला बनाते हैं, उसे उस स्थान से जहाँ उसे शेर ने या चीता के द्वारा मारकर खाया जाता है, वहाँ से घसीटते हुये लेकर पहले जागारानी में आते हैं और सिरहा गांयता के बताये अनुसार गाँव के बाहर संध में लेकर जाते हैं। इन व्यक्तियों के पीछे एक व्यक्ति यह कहते हुये चलता है “यहीं से शेर खाया, यहीं से शेर खाया” यह गोंडी में बोला जाता है, डुवाल तीत, डुवाल तीत। इस तरह उस पुतले को यह कहते हुये संध के बाहर या गाँव की सीमा के बाहर ले जाकर जला दिया जाता है। यह क्रिया टोटका का काट करने का उपक्रम है, जिसे संवेदनशील आदिवासी समाज करता है। इस टोटका को करने के बाद आदिवासी समाज आश्वस्त हो जाता है कि उसके द्वारा दी गई बलि से देवता प्रसन्न हो गये हैं और अब उनके गाँव में इस तरह की घटना नहीं होगी।

खटला फिराने की क्रिया गाँव में महामारी फैलने पर भी की जाती है। जब गाँव में कोई बीमारी फैलती है, जो महामारी का रूप ले लेती है, तब आदिवासी समाज एक बार फिर तोड़ी की आवाज सुनकर जागारानी में जमा होता है और सिरहा को देव बिठाकर उसके कारणों का पता करता है। कारण का पता हो जाने के बाद पूजा सामग्री की व्यवस्था कर फिर जागारानी में जमा होता है। जागारानी में माटी माता या धरती माता की विधिवत पूजाकी जाती है और एक किनारे की मिट्टी खोदकर उसमें जोड़ी चूजा की बलि दी जाती है, सब हाथ जोड़कर प्रार्थना करते हैं कि “हे माता आज जो बलि आपको अर्पित की हैं, उसे किसी समय देने का हमने कराड़ किया था, किसी कारणवश उसे नहीं दे पाये थे, इसके लिये हम माफी माँगते हैं, आज दे रहे हैं इसे ग्रहण करके प्रसन्न होवें और हमारे गाँव की रक्षा करें”। प्रार्थना करने के बाद खोदी गई मिट्टी में बलि दी गई वस्तु को उसमें गाड़ दिया जाता है।

आदिवासी समाज गाँव की मिट्टी को बहुत ही पवित्र मानता है, उसमें यदि किसी भी कारण से खून गिरने से वह विचलित हो जाता है। उसके अन्दर किसी अनहोनी होने का भय समा जाता है। वह मानता है कि उसके गाँव की पवित्र मिट्टी जिसे वह माता मान कर पूजता है, उस पर गिरे खून किसी अनहोनी का संकेत है।

ऐसा होने पर वह इसके निवारण का उपाय देव पूछा कर करता है। सिरहा के उपर आरूढ़ देवता बताते है कि ऐसा नहीं होना चाहिये, पर हो गया है ता काट करने के लिये खटला फिराना पड़ेगा। धरती में खून गिरने के कई कारण हो सकते है, जैसे कोई झाड़ से गिर गया, किसी और कारण से दुर्घटना हो गई या फिर किसी की हत्या हो जाने से घरती में खून गिरता है। ये सब कारण आदिवासी समाज को किसी अनहोनी की आषंका से भयभीत कर देती है और इसके निवारण के लिये वह खटला फिराने का टोटका करता है। यदि गाँव में कोई अनजान व्यक्ति की मौत हो जाती है, जिसकी पहचान नही हो रही है, तब भी खटला फिराने का टोटका किया जाता है। इसके लिये जागारानी में सब ग्रामवासी जमा होकर माटी माता की विधिवत पूजा करने के बाद जोड़ी चूजे की बलि देकर प्रार्थना करते हैं कि “हे माता आपके ऊपर जो खून गिरा है वह अनजाने में हो गया है हमारे किसी व्यक्ति के द्वारा यह जानबूझ कर नहीं किया गया है, हमसे अनजाने में हुये इस कृत्य के लिये हम आपसे माफी माँगते हैं, हमें क्षमा कर कीजिये”। इसी तरह उस अनजाने व्यक्ति की मौत के लिये भी माफी माँगी जाती है। यह आदिवासी समाज का अपनी धरती माता जिसे तलुर मुत्ते (बहुत से बच्चों की माँ) कहता है और जो गाँव देवती स्थल या जागारानी में स्थापित होती है के प्रति समर्पण को दर्शाता है।

खटला फिराने के इसी प्रकार का टोटका प्रत्येक आदिवासी परिवार अलग से भी करता है। जब किसी आदिवासी परिवार में कोई बच्चा पैदा होता है, तब वह छटी हो जाने के बाद या पहले फुर्सत में इस कार्य को करता है। यह क्रिया पवित्र धरती में खून गिरने के लिये क्षमा माँगने के अलावा उस नवजात के बोझ उठाने के निवेदन कर उपकृत होने की क्रिया होती है। इस कार्य को करने के लिये एक विषेश दिन उस परिवार के मुखिया अपने गाँव के माटी गांयता और सिरहा आदि को सूचना देता है कि वह बच्चा पैदा होने के लिये खटला बनाया है, उसमें उन्हें सम्मलित होना है। इसी तरह वह अपने विषम गोत्रीय रिश्तेदारों को भी सूचना देता है, सब आकर उस काम को करते हैं। माटी माता से उसके ऊपर खून गिरने के लिये क्षमा माँगते हैं और प्रार्थना करते है कि “हे माता अब यह नवजात भी आपके ऊपर जीवन-यापन करेगा, इसके बोझ को भी आपको धारण करना है।”

इसके अलावा भी आदिवासी परिवार अलग से खटला फिराने का कार्य करता है। किसी परिवार में जब लगातार मौत, किसी गम्भीर बीमारी का प्रकोप लगातार बना रहता है, तब वह अपने गाँव के सिरहा के शरण में जाता है। सिरहा पर आरूढ़ देवता उसे बताता है कि उसके परिवार के किसी कृत्य से कौन देवता उनसे नाराज है और उन्हें प्रसन्न करने के लिये क्या उपाय किया जायेगा। अपने परिवार पर आये संकट को टालने के लिये देवता द्वारा बताये उपाय को करने का कराड़ करता है या बचनबद्ध होता है। परिणाम स्वरूप उसके परिवार पर छाया संकट का बादल छटने लगता है और किसी समय उस किये गये कराड़ को नाराज देवताओं को खुश करने के लिये देता है। इसे करने के लिये वह गाँव के माटी गांयता, पुजारी, सिरहा के अलावा अपने विषम गोत्रिय रिश्तेदारों को बुलाता है, ये रिश्तेदार वे होते हैं जिनके घर परिवार से वैवाहिक सम्बन्ध होता है। यहाँ खटला बनाने का अधिकार उनका होता है।

सभी लोगों की उपस्थिति में माटी गांयता उन देवों का आह्वान करता है जिन्हें बलि देने का कराड़ उस परिवार ने किया होता है, उन देवो की विधिवत पूजा की जाती है और कराड़ की वस्तु उन्हें अर्पित की जाती है, फिर प्रार्थना करते हैं कि “आपने इस परिवार का कष्ट दूर किया है, हम जो कराड़ किये थे, उसे दे रहें हैं आप प्रसन्न होवे”।

आदिवासी समाज की मान्यता है कि खटला फिराने का कार्य धान बोने के पूर्व कर लिया जाना चाहिये, कारण कि धान बोने के बाद बीज कुकड़ी मनाने के समय सभी रक्षक देवों को फसल की रक्षा करने का भार दिया जाता है। उस समय वे दूसरा कार्य नहीं करते है। इस तरह आदिवासी समाज अपने देवताओं को प्रसन्न करने के लिये अपने द्वारा पूर्व में किये गये कराड़ को पूरा करता है।

नोट :- गांव बनाने या अन्य किसी कार्य के तांत्रिक उपचार के पश्चात उस ओर जाना मना होता है, इसलिए कि कहीं वे अनिष्टकारी शक्तियाँ फ़िर न लौट आएं। इस कार्य की फ़ोटो लेना भी अच्छा नहीं समझा जाता। इस तरह ये खटला फ़िराना के ये चित्र एक्सक्लुसिव हैं।

*लेखक पेशे से अधिवक्ता एवं आदिवासी विषयों के जानकार हैं।

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शिवकुमार पाण्डेय नारायणपुर

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One comment

  1. Vijaya Pant Tuli

    विस्तृत जानकारी
    धन्यवाद आपका ✍️✍️🙏

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