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कवि भगवती सेन

कबीर की तरह फक्कड़ कवि: भगवती सेन

इलाहाबाद विश्वविद्यालय एवं छत्तीसगढ़ी पाठ्यक्रम में पढ़ाये जाने वाले लोकप्रिय कवि और अपनी सुदीर्घ काव्य यात्रा में कवि भगवती लाल सेन साहित्य के जीवन अनुभवों के आन्दोलनों में न जानें कितनी परतों से होकर गुजरे हैं, कह पाना कठिन है। उनके काव्य में अभिजात्य कुलीन वर्ग अथवा व्यवस्था के विरूद्ध आक्रोश और व्यंजनागत जो तिक्तता मिलती है वह मात्र कल्पना नहीं, उनका अपना भोगा हुआ यथार्थ है।

शोषितों के प्रति भगवती सेन मात्र बौद्धिक समर्थन के पक्षधर कभी नहीं रहे बल्कि वे हमेशा गरीब किसान और मजदूरों की हक की लड़ाई में कंधे से कंधा मिलाकर अगुवाई करते रहे हैं। भगवती सेन अपने लेखन कर्म की लगभग आधी सदी पूरी कर चुके हैं।

ऐसा बिल्कुल नहीं है कि भगवती सेन ने सिर्फ शोषितों के उत्पीड़न अथवा व्यवस्था-विरोध को ही अपने काव्य का आधार मान लिया है बल्कि उनमें अपनी धरती और विराट प्रकृति के प्रति लगाव भी कम नहीं है। अक्सर प्रकृति अपनी पूरी सजधज के साथ उनके काव्य में चित्रांकित हुई है।

भगवती सेन बाहर और भीतर से आडम्बरहीन है। जीवन में यदि वे कबीर की तरह फक्कड़ हैं तो काव्य में उनका अक्खड़पन निराला की ऊँचाइयों तक जा पहुंचा है। इस तरह की सतर्क दृष्टि इस सदी के किसी और कवि में दिखाई नहीं देती।

कुल मिलाकर यदि यह कहा जाये कि भगवती सेन का काव्य एक स्वस्थ प्रसन्न समाज की तैयारी का काव्य है तो इसमें जरा भी अतिश्योक्ति नहीं है। भगवती सेन जीवन भर सामाजिक विदु्रपताओं पर कविता लिखते रहे। ग्राम सौंदर्य ने उनको अत्यधिक अभिभूत किया है।

प्रकृति भी बार-बार उन्हें आकर्षित करती रही है। तभी तो ‘‘नदिया मरे पियास’’ और ‘‘देख रे आँखी सून रे कान’’ जैसी कृति में मोहक कविताएं आकार पा सकी हैं। इन कविताओं में भगवती सेन की अनुभूतियों का आवेग सहज ही देखा जा सकता है। कहना होगा कि बाहर-भीतर के इन तमाम द्वन्द्वों को चित्रित करने में भगवती सेन को कभी कोई कठिनाई नहीं हुई।

कवि कितना स्वच्छंद होता है, भगवती सेन इस तथ्य का एक अद्भुत मिशाल है कभी तो वे कालिदास की तरह अपने हृदय मेघ को अपनी प्रियतमा के पास भेजते हैं तो कभी अपने जीवन-साथी से अंत तक साथ निभाने का संकल्प भी करते हैं। भगवती सेन की ये अनुभूतियाँ भी सचमुच बड़ी मर्यादित और प्रेरणा-परक हैं।

दरअसल भगवती सेन का व्यक्तित्व कोई दुःख है ही नहीं। जनता का व्यापक दुःख ही शुरू से उन्हें व्यापता रहा है। चाहे महानदी का तट हो या गंगा का जल हो, भगवती सेन निष्ठापूर्वक इन सबको अपनी कविता का विषय बना लेते हैं और कहते हैं:-

सिखोय बर नइ लागय/गरू गाय ल/बैरी ल हुमेले बर/बेरा आथे
भिड़ जाथे/अपन बानी बर/हमन तो/ मनखे आन
बेरा आ गे हे/ फेर हमन/काबर नइ सीखन/अनीत ल ढेले बर

भगवती सेन की कविताओं में व्यंग्य का पैनापन इसीलिए भी अधिक मुखर हुआ है, चूंकि छत्तीसगढ़ के गरीब मजदूर, किसान हमेशा से ही जमीदारों, सेठ, साहूकारों, राजनेताओं के अत्याचारों से पीड़ित रहा है। भगवती सेन के संवेदनशील कवि ने यह सब कुछ करीब से देखा और भोगा है।

स्थिति चाहे आजादी के पहले की हो चाहे बाद की, भगवती सेन उसमें कोई फर्क नहीं देखते। भारत माता तब भी दु:खी था, अब भी दुःखी है। श्रमिकों की दशा नहीं सुधर पाई है। अन्नदाता आज भी दाने-दाने के लिए तरस रहा है। निम्नवर्गीय बाबू हो चाहे अध्यापक, भगवती सेन इन सबके सुखद भविष्य के गीत गाते रहे हैं।

भगवती सेन अक्सर व्यक्तिगत नाम लेकर व्यंग्य करने से नहीं चूकते। गद्दीदार आलोचक इस प्रतिभा को नकारते हैं। कई बार उनके आस्था-भेद पर भी खुसुर-फुसुर होती रहती है, लेकिन अभिव्यक्ति के मामले में भगवती सेन बहुत साफ है। वे किसी के बाप के नौकर नहीं हैं। वे एक ईमानदार कवि हैं और उनके कवि के कदम-कदम पर खतरे उठाकर भी सच बोलने का संकल्प लिया है। फिर सच बोलने वाले किसी कवि पर आरोप क्यों लगाया जाता है ? क्या इससे सच सुनने वालों की कमजोरी साबित नहीं होती ?

भगवती सेन निष्कपट कवि हैं। वे वर्ग-वैषम्य को मिटाना चाहते हैं। सही अर्थों में जनवादी होने का सारा श्रेय उनकी कविताओं को सहज ही दिया जा सकता है। भावना और चिंतन का ऐसा सुंदर तालमेल अन्यत्र कहीं पाना भी मुश्किल है।

भगवती सेन करनी और कथनी में भेद नहीं मानते। तमाम सामाजिक बुराईयों को दूर कर वे एक बेहतर जीवन की आकांक्षा रखते हैं। भगवती सेन इसी तरह जिए जागे और देश को जगाते रहे। हम सब उनके साथ हैं और उन्हीं की तरह हाथों में मशाल लेकर घर-घर को आलोकित करने के लिए कृत संकल्प है:-

जुग के संग रेंगे मं हवे भलाई सब के, खोजो नावा रद्दा, नवा जुग नवा अंजोर
अपने मुड़ पेल गोठ ल अब झन तानव जी, चेथी के आंखी ल, आगू म आनव जी

डुमनलाल ध्रुव
मुजगहन, धमतरी (छ.ग.)
मो. 9424210208

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