31 जुलाई 1940 : क्रान्तिकारी ऊधमसिंह का बलिदान दिवस
कुछ क्रांतिकारी ऐसे हुए हैं जिन्होंने शांति के जगह क्रांति का रास्ता अपनाया, उन्होंने अंग्रेजों की नेस्तनाबूत करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, ऐसे ही क्रान्तिकारी थे ऊधमसिंह, जिनको लंदन में 1940 को फांसी दी गई थी। सरदार ऊधमसिंह ने लंदन जाकर उस जनरल डायर को गोली से उड़ा दिया था जिसके आदेश पर जलियाँवाला बाग में निहत्थे लोगों की लाशें बिछा दी गईं थी।
वह 13 मार्च 1940 का दिन था। लंदन के काम्सटन हाल में जनरल डायर एक व्याख्यान देने जाने वाला था। ऊधमसिंह भी तैयारी के साथ हाल में पहुँच गये। उनहोंने अपना रिवाल्वर एक पुस्तक में छिपा रखा था। उन्होंने पुस्तक के बीच के पन्ने कुछ इस तरह काटे थे रिवाल्वर छिप जाय लेकिन ऊपर से देखने में वह पुस्तक ही लगे।ऊधमसिंह दीवार के सहारे बैठ गये। व्याख्यान के बाद लोग डायर से मिलने जुलने लगे। ऊधमसिंह भी डायर के करीब पहुंचे और सामने जाकर गोली मारदी। ऊधमसिंह ने दो फायर किये। दोनों गोलियां डायर को लगीं और वह गिर पड़ा।
ऊधमसिंह उस हत्या कांड के चश्मदीद थे। उनके सामने ही वैशाखी के लिये एकत्र निर्दोष भारतीयों का दमन हुआ था। उन्होंने इसका बदला लेने की ठानी और जीवन भर उसी लक्ष्य पूर्ति में लगे रहे। उन्हे जनरल डायर को मारकर ही चैन मिला।
सरदार ऊधमसिंह का जन्म 26 दिसम्बर 1899 को संगरूर जिले के गाँव सनाम में हुआ था। उनका परिवार काम्बोज के नाम से जाना जाता था। उनके एक बड़े भाई भी थे जिनका नाम मुक्ता सिंह था। परिवार आराम से चल रहा था कि 1907 में किसी बीमारी से माता पिता दोनों की मृत्यु हो गई।
बड़े भाई यद्यपि बहुत बड़े न थे फिर उन्होंने ऊधम सिंह को संभाला और दोनों भाई संघर्ष के साथ जीने लगे। यह वे दिन थे जब अंग्रेज पंजाब में अपना वर्चस्व बनाने के लिये अनेक प्रकार की ज्यादतियां कर रहे थे और अंग्रेजों के विरुद्ध नौजवान क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ रहे थे।
दोनों भाइयों के मन में भी अपनी मिट्टी के स्वाभिमान जगाने की चिंता थी। समाज और राष्ट्र जागरण के कार्यक्रमों में दोनों भाई हिस्सा लेते। बड़े भाई का अनेक क्रान्तिकारियों से संपर्क बन गया था। ऊधम सिंह भी भाई के साथ आते जाते थे और वे भी क्रांतिकारियों के संपर्क में आये। तभी वर्ष 1917 बड़े भाई का देहांत हो गया।
ऊधमसिंह अकेले रह गये और सब छोड़ कर सीधे क्रान्तिकारी आँदोलन से जुड़ गये। तभी जनरल डायर और कुछ अंग्रेज अफसरों ने पंजाब में अपनी धाक जमाने और अपना डर पैदा करने के लिये 1919 में जलियांवाला बाग में वैशाखी मना रहे निर्दोष लोगों पर गोलियाँ चला दी। जिसमें सैकड़ो लोग मारे गये।
ऊधमसिंह उस हत्या कांड के चश्मदीद थे और उन्होंने मिट्टी हाथ में लेकर जनरल डायर को मारने की शपथ ली। डायर को अंग्रेजों ने भारत से हटाकर यहाँ वहां भेज दिया। ऊधमसिंह ने पीछा किया। वे जनरल डायर को खोजने के लिये द अफ्रीका, नैरोबी और ब्राजील आदि देशों में भी गये। अंत में रिटायर होकर डायर लंदन में रहने लगा।
ऊधमसिंह भी 1934 में लंदन चले गये और वहाँ अपना ठिकाना बना लिया। वे लंदन में 9 एल्डर स्ट्रीट, कमर्शियल रोड पर पर रहने लगे। उन्होंने अपने व्यवहार से सबका विश्वास प्राप्त कर लिया। कुछ दिनों बाद उन्होंने एक सिक्स राउन्ड रिवाल्वर खरीद लिया।
रिवाल्वर चलाना उन्होंने भारत में अपने क्रान्तिकारी साथियों से सीख लिया था। कुछ दिनों बाद उन्होंने डायर का पता लगाया और उन स्थानों पर आना जाना शुरू किया जहाँ डायर आया जाया करता था। ऊधमसिंह मौके की तलाश में रहे और उन्हे यह मौका जलियाँवाला बाग हत्याकांड के 21 साल बाद और उन्हे लंदन में रहने के पांच साल बाद मिला।
वह 13 मार्च 1940 का दिन था। लंदन के काम्सटन हाल में जनरल डायर एक व्याख्यान देने जाने वाला था। ऊधमसिंह भी तैयारी के साथ हाल में पहुँच गये। उनहोंने अपना रिवाल्वर एक पुस्तक में छिपा रखा था। उन्होंने पुस्तक के बीच के पन्ने कुछ इस तरह काटे थे रिवाल्वर छिप जाय लेकिन ऊपर से देखने में वह पुस्तक ही लगे।
ऊधमसिंह दीवार के सहारे बैठ गये। व्याख्यान के बाद लोग डायर से मिलने जुलने लगे। ऊधमसिंह भी डायर के करीब पहुंचे और सामने जाकर गोली मारदी। ऊधमसिंह ने दो फायर किये। दोनों गोलियां डायर को लगीं और वह गिर पड़ा।
ऊधमसिंह ने भागने की कोई कोशिश नहीं। वे मौके पर ही बंदी बना लिये गये। उन्हे 4 जून 1940 को फांसी की सजा सुनाई गई और 31 जुलाई 1940 को पेंटनविले जेल में फांसी पर चढ़ाया गया। शत शत नमन महावीर ऊधमसिंह को ….
आलेख
श्री रमेश शर्मा, भोपाल मध्य प्रदेश