मानव सभ्यता का उद्भव और संस्कृति का प्रारंभिक विकास नदी के किनारे ही हुआ है। भारत जैसे कृषि प्रधान देश में नदियों का विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति में ये जीवनदायिनी मां की तरह पूजनीय हैं। यहां सदियों से स्नान के समय पांच नदियों के नामों का उच्चारण तथा जल की महिमा का बखान स्वस्थ भारतीय परम्परा है। सभी नदियां भले ही अलग–अलग नामों से प्रसिद्ध हैं लेकिन उन्हें गंगा, यमुना, सरस्वती, नर्मदा, महानदी, ताप्ती, क्षिप्रा नदी के समान पवित्र और मोक्षदायी मानी गयी हैं। कदाचित् इन्हीं नदियों के तट पर स्थित धार्मिक स्थल तीर्थ बन गये..।
सूरदास भी गाते हैं :
हरि–हरि–हरि सुमिरन करौं।
हरि चरनार विंद उर धरौं।
हरि की कथा होई जब जहां,
गंगा हू चलि आवै तहां॥
जमुना सिंधु सरस्वति आवै,
गोदावरी विलंबन लावै।
सब तीरथ की बासा तहां,
सूर हरि कथा होवै जहां॥
महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यों का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था। महानदी को ”गंगा” कहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में श्रृंगी ऋषि का आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था। वे अयोध्या में महाराजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा का पवित्र जल भरा था। समाधि से उठते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उद्गम में मिल गया। गंगाजल के मिलने से महानदी गंगा के समान पवित्र हो गयी।
भारत की प्रमुख नदियों में महानदी भी एक है। इसे ”चित्रोत्पला–गंगा” भी कहा जाता है। इसका उद्गम सिहावा की पहाड़ी में उत्पलेश्वर महादेव और अंतिम छोर में चित्रा–माहेश्वरी देवी स्थित हैं। कदाचित इसी कारण महाभारत के भीष्म पर्व में चित्रोत्पला नदी को पुण्यदायिनी और पाप विनाशिनी कहकर स्तुति की गयी है :-
उत्पलेशं सभासाद्या यीवच्चित्रा
महेश्वरी।
चित्रोत्पलेति कथिता सर्वपाप प्रणाशिनी॥
सोमेश्वरदेव के महुदा ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला–गंगा कहा गया है :-
यस्पाधरोधस्तन चन्दनानां
प्रक्षालनादवारि कवहार काले।
चित्रोत्पला स्वर्णावती गताऽपि
गंगोर्भि संसक्तभिवाविमाति॥
महानदी के उद्गम स्थल को ”विंध्यपाद” कहा जाता है। पुरूषोत्तम तत्व में चित्रोत्पला के अवतरण स्थल की ओर संकेत करते हुए उसे महापुण्या तथा सर्वपापहरा, शुभा आदि कहा गया है :-
नदीतम महापुण्या विन्ध्यपाद विनिर्गता:।
चित्रोत्पलेति विख्यानां सर्व पापहरा
शुभा॥
महानदी को ”गंगा” कहने के बारे में मान्यता है कि त्रेतायुग में श्रृंगी ऋषि का आश्रम सिहावा की पहाड़ी में था। वे अयोध्या में महाराजा दशरथ के निवेदन पर पुत्रेष्ठि यज्ञ कराकर लौटे थे। उनके कमंडल में यज्ञ में प्रयुक्त गंगा का पवित्र जल भरा था। समाधि से उठते समय कमंडल का अभिमंत्रित जल गिर पड़ा और बहकर महानदी के उद्गम में मिल गया। गंगाजल के मिलने से महानदी गंगा के समान पवित्र हो गयी। कौशलेन्द्र महाशिवगुप्त ययाति ने एक ताम्रपत्र में महानदी को चित्रोत्पला के नाम से संबोधित किया है :-
चित्रोत्पला चरण चुम्बित चारूभूमो
श्रीमान कलिंग विषयेतु ययातिषुर्याम्।
ताम्रेचकार रचनां नृपतिर्ययाति
श्री कौशलेन्द्र नामयूत प्रसिध्द॥
17वीं शताब्दी के महाकवि गोपाल ने भी महानदी को ”अति पुण्या चित्रोत्पला” माना है।
पाप हरन नरसिंह कहि बेलपान गबरीस,
अतिपुण्या चित्रोत्पला तट राजे सबरीस।
इसी प्रकार स्कंध पुराण में ”पुरूषोत्तम क्षेत्र” की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए महानदी को माध्यम बनाया गया है:-
ऋषिकुल्या समासाद्या
दक्षिणोदधिगामिनीम्।
स्वर्णरेखा महानद्यो मध्ये देश:
प्रतिष्ठित:॥
अर्थात् पुरूषोत्तम क्षेत्र स्वर्णरेखा
से महानदी तक विस्तृत रूप से फैला है,
उसके दक्षिण में ऋषिकुल्या नदी स्थित
है।
महानदी के सम्बंध में भीष्म पर्व में वर्णन है जिसमें कहा गया है कि भारतीय प्रजा चित्रोत्पला का जल पीती थी। अर्थात् महाभारत काल में महानदी के तट पर आर्यों का निवास था। रामायण काल में भी पूर्व इक्ष्वाकु वंश के नरेशों ने महानदी के तट पर अपना राज्य स्थापित किया था। मुचकुंद, दंडक, कल्माषपाद, भानुमंत आदि का शासन प्राचीन दक्षिण कोसल में था।
डॉ. विष्णुसिंह ठाकुर लिखते हैं :- ”चित्रोत्पला शब्द में दो युग्म शब्द है–चित्रा और उप्पल। उप्पल का शाब्दिक अर्थ है– नीलकमल, और चित्रा गायत्री स्वरूपा महाशक्ति का नाम है। चित्रा को ऐश्वर्य की महादेवी भी कहा जाता है। राजिम क्षेत्र कमल या पदम क्षेत्र के रूप में विख्यात् है। राजिम को ”श्री संगम” कहा जाता है। ”श्री” का अर्थ ऐश्वर्य या महालक्ष्मी जिसका कमल आसन है। महानदी के तट पर ”श्रीसंगम” राजिम में स्थित विष्णु भगवान का प्रतिरूप ”राजीवलोचन” या राजीवनयन विराजमान हैं। राजीव का अर्थ भी कमल या उप्पल होता है। यहां स्थित ”कुलेश्वर महादेव” उत्पलेश्वर कहलाते हैं। शब्द कल्पदुम के अनुसार महानदी के उद्गम को ”पद्मा” कहा गया है–
”सा पद्मया विनिसृता राम पुराख्याग्रामात पश्चिम उत्तर दिग्गता।”
मार्कण्डेय और वायु पुराण में महानदी को ”मंदवाहिनी” कहा गया है और उसे शुक्तिमत पर्वत से निकली बताया गया है। लेकिन महानदी धमतरी जिलान्तर्गत सिहावा (नगरी) से निकलकर 965 कि. मी. की दूरी तय करके बंगाल की खाड़ी में गिरती है।
यह नदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सबसे बड़ी नदी है। इस नदी के उपर गंगरेल और हीराकुंड बांध बनाया गया है। इन बांधों के पानी से लाखों हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती है, साथ ही बुरला–संबलपुर में बिजली का उत्पादन भी होता है। महानदी के रेत में सोना मिलने का भी उल्लेख मिलता है। इस नदी में अस्थि विसर्जन भी होता है।
गंगा के समान पवित्र होने के कारण महानदी के तट पर अनेक धार्मिक, सांस्कृतिक और ललित कला के केंद्र स्थित हैं। सिरपुर, राजिम, मल्हार, खरौद, शिवरीनारायण, चंद्रपुर और संबलपुर प्रमुख नगर हैं। सिरपुर में गंधेश्वर, रूद्री में रूद्रेश्वर, राजिम में राजीव लोचन और कुलेश्वर, मल्हार पातालेश्वर, खरौद में लक्ष्मणेश्वर, शिवरीनारायण में भगवान नारायण, चंद्रचूड़ महादेव, महेश्वर महादेव, अन्नपूर्णा देवी, लक्ष्मीनारायण, श्रीरामलक्ष्मणजानकी और जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा का भव्य मंदिर है।
गिरौदपुरी में गुरू घासीदास का पीठ और तुरतुरिया में लव कुश की जन्म स्थली वाल्मीकि आश्रम स्थित था। इसी प्रकार चंद्रपुर में मां चंद्रसेनी और संबलपुर में समलेश्वरी देवी का वर्चस्व है। इसी कारण छत्तीसगढ़ में इन्हें काशी और प्रयाग के समान पवित्र और मोक्षदायी माना गया है। शिवरीनारायण में भगवान नारायण के चरण को स्पर्श करती हुई ”रोहिणी कुंड” है जिसके दर्शन और जल का आचमन करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। सुप्रसिद्ध प्राचीन साहित्यकार पंडित मालिकराम भोगहा इसकी महिमा गाते हैं :-
रोहिणि कुंडहि स्पर्श करि चित्रोत्पल जल
न्हाय।
योग भ्रष्ट योगी मुकति पावत पाप बहाय॥
प्राचीन कवि बटुकसिंह चौहान ने तो रोहिणी कुंड को ही एक धाम माना है। देखिए एक बानगी :-
रोहिणी कुंड एक धाम है, है
अमृत का नीर,
बंदरी से नारी भई, कंचन
होत शरीर।
जो कोई नर जाइके, दरशन
करे वही धाम,
बटुक सिंह दरशन करी, पाये
पद निर्वाण॥
भारतेन्दु युगीन रचनाकार पंडित हीराराम त्रिपाठी ”शिवरीनारायण महात्म्य” में लिखते हैं
चित्रउतपला के निकट श्री नारायण धाम।
बसत सन्त सज्जन सदा शिवरिनारायण ग्राम॥
ऐसे पवित्र नगर शिवरीनारयण, जांजगीर–चाम्पा जिलान्तर्गत महानदी के तट पर स्थित है और ”गुप्तधाम” कहलाता है। इसे छत्तीसगढ़ का प्रयाग और जगन्नाथ पुरी भी कहा जाता है। माघ पूर्णिमा को प्रतिवर्ष यहां भगवान जगन्नाथ पधारते हैं। इस दिन महानदी स्नान कर उनका दर्शन मोक्षदायी होता है। इसी प्रकार राजिम में भगवान राजीव लोचन का दर्शन ”साक्षी गोपाल” के रूप में किया जाता है। खरौद में भगवान लक्ष्मणेश्वर का दर्शन काशी के समान फलदायी होता है। इसी प्रकार चंद्रपुर की चंद्रसेनी और संबलपुर की समलेश्वरी देवी का दर्शन शक्ति दायक होता है।
प्राचीन काल में महानदी व्यापारिक संपर्क का एक माध्यम था। बिलासपुर और जांजगीर–चांपा जिले के अनेक ग्रामों में रोमन सम्राट सरवीरस, क्रोमोडस, औरेलियस और अन्टीनियस के शासन काल के सोने के सिक्के मिले हैं। इसी प्रकार महानदी सोना और हीरा प्राप्ति के लिए विख्यात रही है। आज भी ”सोनाहारा” जाति के लोग महानदी के रेत से सोना निकालते हैं। सोनपुर नगर का नामकरण सोना मिलने के कारण है।
संबलपुर के हीरकुंड क्षेत्र में हीरा मिलने की बात स्वीकार की जाती है। वराहमिहिर की वृहद संहिता में कोसल में हीरा मिलने का उल्लेख है जो शिरीष के फूल के समान होते हैं :- ”शिरीष कुसुमोपम च कोसलम्” मिश्र के प्रख्यात् ज्योतिषी टालेमी ने कोसल के हीरों का उल्लेख किया है। रोम में महानदी के हीरों की ख्याति थी।…. तभी तो पंडित लोचनप्रसाद पाण्डेय छत्तीसगढ़ की वंदना करते हुए लिखते हैं :-
महानदी बोहै जहां होवै धान बिसेस।
जनमभूम सुन्दर हमर अय छत्तीसगढ़ देस॥
अय छत्तीसगढ़ देस महाकोसल सुखरासी।
राज रतनपुर जहां रहिस जस दूसर कासी॥
सोना–हीरा के जहां मिलथे खूब खदान।
हैहयवंसी भूप के वैभव सुजस महान॥
कहा गया है कि महानदी के जल का स्पर्श करके पितृ देवों का तर्पण करना चाहिए। ऐसा करने से उन्हें अक्षय लोकों की प्राप्ति होती है और उसके कुल का उद्धार हो जाता है। सुप्रसिद्ध कवि बुटु सिंह चौहान भी गाते हैं :-
दोहा शिव गंगा के संगम में, कीन्ह
अस पर वाह।
पिण्ड दान वहां जो करे, तरो
बैकुण्ठ जाय॥
चौपाई वहां स्नान कर यह फल होई।
विद्या वान गुणी नर सोई॥
एक सौ पितरन वहां पर तारे।
पितरन पिण्ड तहां नर पारै॥
गाया समान ताही फल जानो।
पितरन पिण्ड तहां तुम मानो॥
मानो पितर गाया करि आवे।
पितरन भूरि सबै फल पाये॥
जो कोई जायके पिण्ड ढरकावहीं।
ताकर पितर बैकुण्ठ सिधावहीं॥
दोहा क्वांर कृष्णो सुदि नौमि के, होत
तहां स्नान।
कोढ़िन को काया मिले, निर्धन
को धनवान॥
महानदी गंग के संगम में, जो
किन्हे पिण्ड कर दान।
सो जैहैं बैकुण्ठ को, कहीं
बुटु सिंह चौहान॥
शिवरीनारायण में महानदी के तट पर स्थित माखन साव घाट और राम घाट में अस्थि विसर्जन के लिए कुंड बने हुए हैं। माखन साव घाट में रेत के नीचे दबे चट्टान में भी एक अस्थि विसर्जन के लिए कुंड है लेकिन यह कुंड रेत के हटने के बाद दृष्टिगोचर होता है।
कदाचित यही कारण है कि यहां सज्जन व्यक्तियों का वास है जो सदा हरि कीर्तन में रत रहते हैं। भारतेन्दु कालीन कवि पंडित हीराराम त्रिपाठी भी गाते हैं :-
दोहा
चित्रउतपला के निकट श्रीनारायण धाम॥
बसत सन्त सज्जन सदा शिवरीनारायणग्राम॥ 1 ॥
सवैया
होत सदा हरिनाम उच्चारण रामायण नित गान
करैं।
अति निर्मल गंगतरंग लखै उर आनंद के
अनुराग भरैं।
शबरी वरदायक नाथ विलोकत जन्म अपार के
पाप हरैं।
जहां जीव चारू बखान बसैं सहजे भवसिंधु
अपार तरैं॥ 1 ॥
महानदी से संस्कारित मेरी यह काया शिवरीनारायण और छत्तीसगढ़ का ऋणी है। जब भी मैं महानदी घाटी के ग्राम्यांचलों में चित्रित भित्ति चित्र को देखता हूं तो पत्रकार भाई श्री सतीश जायसवाल की बात याद आती है। इसे उन्होंने ”महानदी घाटी की सभ्यता” कहा है। कदाचित् महानदी छत्तीसगढ़ और उड़ीसा की सांस्कृतिक परम्परा को जोड़ने का एक माध्यम है। छत्तीसगढ़ शासन द्वारा राजिम और शिवरीनारायण को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने का निर्णय लेकर उचित और स्वागतेय कदम उठाया है।
आलेख
प्रो (डॉ) अश्विनी केसरवानी, चांपा, छत्तीसगढ़